प्रकृति

जम्मू और कश्मीर में बढ़ रहे दवा उद्योग का औषधीय पौधों पर क्या असर होगा? 

जैव विविधता से सम्पन्न हिमालयी क्षेत्र में दवा बनाने वाली कंपनियां भारी निवेश कर रही हैं। इसलिए जम्मू और कश्मीर में ये सवाल उभरकर सामने आया है कि इससे कहीं औषधीय पौधों का दोहन बढ़ तो नहीं जाएगा। 
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<p>इलस्ट्रेशन: <a href="http://cargocollective.com/kabiniamin/Current-Conservation-editorial-illustration">क़ाबिनी अमीन</a> / द थर्ड पोल</p>
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इलस्ट्रेशन: क़ाबिनी अमीन / द थर्ड पोल

 

 

जम्मू और कश्मीर में फार्मास्युटिकल इंडस्ट्री को बढ़ावा देने पर काफ़ी ज़ोर दिया जा रहा है। हालांकि यहां के स्थानीय लोगों और पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वालों के बीच इसको लेकर काफ़ी भ्रम की स्थिति है। इन लोगों की कुछ चिंताएं भी हैं। ऐसे भी सवाल हैं कि कहीं इससे क्षेत्र के कई स्थानिक और लुप्तप्राय औषधीय पौधों का दोहन तो नहीं बढ़ जाएगा। इसका रेगुलेशन कैसे होगा, इस बात पर काफ़ी सुस्ती दिख रही है। रेगुलेशन की समझ से ही पता चल सकेगा कि स्थानीय लोगों के बीच संसाधनों का आवंटन किस तरह से होना है। द् थर्ड पोल को बताया गया है कि इन सबको लेकर इनमें से कई महत्वपूर्ण समितियां ‘केवल कागज़ो’ पर ही हैं। 

शोधकर्ताओं ने जम्मू और कश्मीर में औषधीय उपयोग वाली 1,123 पौधों की प्रजातियों को सूचीबद्ध किया है। ये हिमालयी क्षेत्र की समृद्ध जैव विविधता का एक महत्वपूर्ण घटक भी हैं। पारंपरिक चिकित्सा में सदियों से इनका उपयोग किया जाता है। इनमें से कुछ पौधों के तत्व, मुख्यधारा की दवाइयों में पाए जाते हैं। मांग काफ़ी ज़्यादा होने की वजह से इनकी तस्करी और अत्यधिक निकासी के मामले बढ़े हैं। इस प्रवृत्ति की वजह से कई प्रजातियों और उनके इकोसिस्टम पर दबाव बढ़ा है। यह अलग बात है कि कई ऐसे पौधे भी हैं, जिनके संभावित चिकित्सीय उपयोग अभी तक वैज्ञानिकों द्वारा पूरी तरह से खोजे नहीं गए हैं।

यहां के स्थानीय समुदायों और मूल निवासियों के लिए औषधीय पौधों का उपयोग ज़रूरी है। शोधकर्ताओं ने हालांकि पाया है कि ओवर हार्वेस्टिंग और एक आधुनिक शिक्षा प्रणाली, पारंपरिक पौधों और पारंपरिक ज्ञान, दोनों के नुकसान का कारण बन रही है।

जम्मू और कश्मीर के एक बड़े एनवायरनमेंट लॉयर, नदीम कादरी कहते हैं: “चूंकि औषधीय पौधे पहले से ही दबाव की स्थिति में हैं और कई विलुप्त होने के कगार पर हैं, ऐसे में अगर दवा कंपनियों के प्रवेश और कामकाज को ठीक ढंग से रेगुलेट नहीं किया गया तो हालात चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं।”

जम्मू और कश्मीर की आंशिक स्वायत्तता और धारा 370 को 2019 में ख़त्म करने के बाद से यहां बाहरी कंपनियों के लिए ज़मीन खरीदना और उद्योग लगाना आसान हो गया है। जम्मू-कश्मीर की 2021 औद्योगिक विकास योजना की घोषणा के बाद से जैव प्रौद्योगिकी क्षेत्र एक प्राथमिकता के रूप में उभरा है। इसका उद्देश्य निवेश और विकास को आकर्षित करना है। जम्मू और कश्मीर की सरकार के मुताबिक, जुलाई 2022 तक, उसे बायोटेक क्षेत्र से जुड़े 338 प्रस्ताव प्राप्त हुए हैं। सरकार अरोमाथेरेपी और वैकल्पिक चिकित्सा क्षेत्रों को बढ़ावा देने के लिए भी प्रयासरत है।

इंडस्ट्रीज एंड कॉमर्स डिपार्टमेंट फॉर जम्मू की डायरेक्टर-जनरल अनु मल्होत्रा ने द् थर्ड पोल के साथ बातचीत में कहा कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान सरकार ने जम्मू डिवीजन में 50 से अधिक दवा कंपनियों को भूमि आवंटित की है। जम्मू और कश्मीर में दो एडमिनिस्ट्रेटिव डिवीज़न। इसमें एक जम्मू है। 

अनु मल्होत्रा ने बताया कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि अभी तक भूमि का क्या उपयोग- या तो अनुसंधान और विकास के लिए, या मौजूदा उत्पादों के निर्माण के लिए- किया गया है। लेकिन उन्होंने यह भी बताया कि केंद्र शासित प्रदेश के कश्मीर डिवीजन में अभी तक किसी दवा कंपनी ने जमीन के लिए आवेदन नहीं किया है। 

नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि 45 दवा कंपनियां केंद्र शासित प्रदेश में परिचालन के रूप में सूचीबद्ध हैं।

शोधकर्ताओं ने 2018 में पाया कि दवा उद्योग की वजह से कच्चे पौधों की मांग बढ़ रही है। नतीजतन हिमालय में जंगली औषधीय पौधों की प्रजातियों की अधिक कटाई हुई। दवा उद्योग का विस्तार, जम्मू और कश्मीर में जो रूप लेगा, वह क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है।

Medicinal plants found in Jammu and Kashmir Hindi

सरकारी आश्वासन

सरकार के अनुसार, फार्मास्युटिकल उद्योग के विकास से, इस क्षेत्र के ग्रामीण और जनजातीय क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा। लोगों के लिए अधिक नौकरियां होंगी। पौधों के व्यापार का रेगुलेशन बेहतर हो सकेगा। दरअसल, अधिकारी, शोधकर्ता और संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाले लोग, कई सालों से कह रहे हैं कि तस्करी के व्यापार को कमज़ोर करने के लिए औषधीय पौधों और नर्सरियों के लिए एक औपचारिक बाजार स्थापित करने की आवश्यकता है।

सरकार औषधीय पौधों के व्यावसायीकरण की रणनीति पर काम कर रही है। सरकार की तरफ से यह भी कहा गया है कि पौधों को जरूरत से ज्यादा न निकाला जाए, ऐसा सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं।  

सितंबर 2020 में जम्मू-कश्मीर के लिए 10 सदस्यीय जैव विविधता परिषद का गठन किया गया था। 

जम्मू-कश्मीर के प्रिंसिपल चीफ कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट्स इसके अध्यक्ष हैं। इसमें पदेन सदस्यों के रूप में, पांच सरकारी अधिकारी और गैर-आधिकारिक सदस्यों के रूप में, पांच स्वतंत्र विशेषज्ञ हैं। यह परिषद, सरकार को जैव विविधता के संरक्षण, जैविक संसाधनों के सस्टेनेबल यानी सही ढंग से उपयोग और इन सबसे होने वाले फायदों के समान बंटवारे पर सलाह देगी।

सरकार की तरफ से औषधीय पौधों की नर्सरियां भी स्थापित की गई हैं। वर्तमान में उत्तरी कश्मीर के गुरेज और भद्रवाह, जम्मू डिवीज़न के डोडा और तप्याल सांबा में इसके लिए जगहों का विकास किया जा रहा है। इनमें कुछ हिस्से वे भी हैं, जो गुर्जरों और बकरवालों के माने जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में गुर्जर और बकरवाल एक घुमंतू जाति है। ये खानाबदोश होते हैं। रहने के ठिकाने बदलते रहते हैं। 

नाम न छापने की शर्त पर, जम्मू और कश्मीर के वन विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि दिसंबर 2022 में सरकार ने नॉन-टिंबर फॉरेस्ट प्रोड्यूस (एनटीएफपी) नीति में बदलाव किया, जिनमें औषधीय पौधे शामिल हैं। उन्होंने इसको कुछ इस तरह से बताया कि इससे वनों पर निर्भर समुदायों की आजीविका के अवसर बढ़ेंगे। उनका यह भी कहना है कि वन संसाधनों के संरक्षण, सस्टेनेबल कलेक्शन यानी उचित संग्रह और उपयोग को बढ़ावा देने के मामले में ये सुधार ऐतिहासिक हैं। 

जम्मू और कश्मीर में औषधीय पौधों का रेगुलेशन कैसे होता है 

भारत के 2002 के जैविक विविधता अधिनियम (बायोलॉजिकल डायवर्सिटी एक्ट) के तहत, जैव विविधता बोर्डों का गठन, राज्य करते हैं। जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता के कारण, राज्य की निर्वाचित विधान सभा द्वारा स्वीकार किए जाने से पहले तक, यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर में स्वतः लागू नहीं था। इसे स्वीकार किए जाने और जैव विविधता बोर्ड की स्थापना के लिए 2015 तक का समय लगा। 2020 में बोर्ड को जैव विविधता परिषद द्वारा बदल दिया गया।

Podophyllum hexandrum
पोडोफिलम हेक्सेंड्रम की जड़ और राइजोम। यह हिमालयी क्षेत्र में उगता है। इसका  पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग किया जाता है। राइजोम एक प्रकार का पौधे का तना होता है जो या तो मिट्टी की सतह पर या भूमिगत होता है जिसमें नोड्स होते हैं, जिनसे जड़ें और अंकुर निकलते हैं। (फोटो: अलामी)

जम्मू और कश्मीर के प्रिंसिपल चीफ कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट्स और द् जम्मू एंड कश्मीर फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर असफ महमूद सागर ने द् थर्ड पोल को बताया कि भारत में जैविक संसाधनों तक पहुंच के लिए विदेशी जैव प्रौद्योगिकी कंपनियों को राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण से अनुमति की आवश्यकता है।

स्थानीय कंपनियों को राज्यों में जैव विविधता बोर्ड या किसी केंद्र शासित प्रदेश में राज्य जैव विविधता परिषद से अनुमति प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।

वह बताते हैं, “जैव विविधता परिषद/बोर्ड पहले जैव विविधता प्रबंधन समितियों से टिप्पणियां लेगा। फिर वे कंपनी को विशेष क्षेत्र में जाने की अनुमति देंगे। जैव विविधता प्रबंधन समितियां, कंपनी की गतिविधियों की निगरानी कर सकती हैं।” 

सागर कहते हैं, “जैव विविधता परिषद किसी भी कंपनी द्वारा निकाले गए उत्पादों से उनकी रॉयल्टी प्राप्त करेगी। इसे फिर, जैव विविधता प्रबंधन समितियों के साथ साझा किया जाएगा।”

जैव विविधता प्रबंधन समितियों की स्थापना 2020 के बाद जम्मू और कश्मीर में ग्राम पंचायत, नगर पालिका और जिला स्तर पर की गई। 

यह 2004 बायोलॉजिकल डायवर्सिटी रूल्स के तहत एक कानूनी आवश्यकता है।  सैद्धांतिक रूप से, ये रेगुलेटरी सिस्टम यानी नियामक प्रणाली का एक महत्वपूर्ण घटक हैं। ये समुदायों की इस मामले में आवाज उठाते हैं कि जैविक संसाधनों तक  कौन पहुंच बना सकता है। 

ये सात सदस्यों की समितियां हैं। इनमें एक अध्यक्ष, दो महिलाएं और एक अनुसूचित जाति का सदस्य है। पंचायत स्तर की जैव विविधता प्रबंधन समितियां, ग्राम सभा (ग्राम परिषद) के तहत काम करती हैं। जिला स्तर पर वे जिला विकास परिषद को रिपोर्ट करती हैं।

जैव विविधता प्रबंधन समितियों के गठन में देरी 

जैव विविधता प्रबंधन समितियां, 2015 में जम्मू और कश्मीर में स्थापित की जानी थीं। हालांकि, 2020 तक ऐसा नहीं हुआ।

वन विभाग के एक अधिकारी ने द् थर्ड पोल को बताया कि भारत की पर्यावरण अदालत, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने इस मामले में हस्तक्षेप किया था क्योंकि जम्मू और कश्मीर सरकार, जैव विविधता प्रबंधन समितियों और पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर का गठन नहीं कर रही थी।

सागर, जो जम्मू और कश्मीर की जैव विविधता परिषद के सदस्य सचिव भी हैं, का कहना है कि जैव विविधता प्रबंधन समितियों का कार्यकाल पांच साल का होता है और नई समितियां, नई पंचायतों द्वारा बनाई जाएंगी।

जैव विविधता प्रबंधन समितियां, स्थानीय जैविक संसाधनों की उपलब्धता और उनके औषधीय या अन्य उपयोगों पर व्यापक जानकारी के साथ-साथ एक पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर (पीबीआर) को भी मेनटेन करती हैं। इसे किसी गांव या क्षेत्र की स्थानीय आबादी के परामर्श से तैयार किया जाता है।

जैव विविधता प्रबंधन समितियां, प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच को भी नियंत्रित करती हैं। जम्मू-कश्मीर जैव विविधता परिषद का नेतृत्व करने वाले सैयद तारिक का कहना है कि जिले के बाहर के लोगों और कंपनियों को औषधीय पौधों का उपयोग करने और निकालने के लिए, जैव विविधता प्रबंधन समितियों की अनुमति प्राप्त करने की आवश्यकता है। सागर का कहना है कि अगर किसी नियम का उल्लंघन होता है तो समितियां, संबंधित अधिकारियों को इसकी सूचना देती हैं। 

दिसंबर 2022 एनटीएफपी नीति में कहा गया है कि बायोलॉजिकल डायवर्सिटी एक्ट यानी जैविक विविधता अधिनियम, जैव विविधता प्रबंधन समितियों को उन लोगों पर शुल्क लगाने का अधिकार देता है जो अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र में आने वाले क्षेत्रों से व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए कोई जैविक संसाधन इकट्ठा करते हैं।

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जम्मू और कश्मीर में वुलर झील से एक आदमी सिंघाड़ा इकट्ठा कर रहा है। इसका इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवाओं में किया जाता है। (फोटो: सजद हामिद)

पर्यावरण वकील, कादरी का कहना है कि अगर दवा कंपनियों की “संग्रह प्रणाली” में पूरी पारदर्शिता है, तो इससे जैव विविधता प्रबंधन समितियों और स्थानीय पंचायतों (निर्वाचित ग्राम परिषद) के वित्त में वृद्धि होगी।

कश्मीर घाटी में आखिरी पंचायत चुनाव 2018 में हुए थे। और 2019 तक 61 फीसदी पंचायत पद अभी भी खाली थे। इससे बीएमसी की स्थापना और प्रभावशीलता पर सवाल उठना स्वाभाविक है। 

डिवीजनल कमिश्नर, कश्मीर ऑफिस के एक अधिकारी ने द् थर्ड पोल को बताया कि इस साल पंचायत चुनाव होंगे और सभी खाली सीटें भर दी जाएंगी।

अगर दवा उद्योग का लगातार विस्तार होता है, इस प्रयास को ठीक से लागू किया जाता है, ठीक से निगरानी की जाती है, तो इससे फायदा होगा। लेकिन सोचिए कि अगर उन चीजों का ठीक से पालन नहीं किया गया, तो क्या होगा।
नदीम कादरी, पर्यावरण वकील

कादरी कहते हैं, “लेकिन हमें पहले औषधीय पौधों, विशेष रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण के बारे में सोचने की ज़रूरत है, ताकि वे खतरे में न आएं।” 

उनका कहना है कि कंपनियों को बड़े पैमाने पर वन उपज निकालने की अनुमति देने से पहले एक संरक्षण और कार्य योजना तैयार करने की जरूरत है।

उनका कहना है, “अगर ये सब ठीक ढंग से किया जाता है, इसे ठीक से लागू किया जाता है, ठीक से निगरानी की जाती है, तो इससे फायदा होगा लेकिन सोचिए कि अगर उन चीजों का ठीक से पालन नहीं हुआ, तो आपका जंगल किसी भी प्राकृतिक औषधीय पौधे से रहित हो जाएगा। उनका कहना है कि यह देखना जरूरी होगा कि चीजें कैसे आकार लेंगी।

जैव विविधता प्रबंधन समितियों के पास केवल कागजों पर शक्ति है

मोहम्मद मुदासिर यातू, मध्य कश्मीर के एक जिले बडगाम में एक छोटा सा व्यवसाय करते हैं। दो साल पहले, 33 वर्षीय, मोहम्मद मुदासिर यातू को जिला जैव विविधता प्रबंधन समिति (बीएमसी) के सात सदस्यों में से एक के रूप में नामित किया गया था।

हालांकि यातू का कहना है कि उसके बाद से उन्हें अपनी भूमिका और ज़िम्मेदारियों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली है। वह कहते हैं, “ऐसा लगता है कि बीएमसी का गठन सिर्फ नाम के लिए किया गया था क्योंकि समिति केवल कागजों पर ही रह गई।”

इस क्षेत्र में पर्यावरण के लिए काम करने वाले एक जाने-माने एक्टिविस्ट, राजा मुजफ्फर भट, जोर देकर कहते हैं कि कानून के तहत जैव प्रौद्योगिकी कंपनियों के पास अनुसंधान या वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए जैविक संसाधन प्राप्त करने के लिए संबंधित जैव विविधता प्रबंधन समिति यानी बीएमसी की अनुमति होनी चाहिए।

बडगाम जिले के बीएमसी के अध्यक्ष भट कहते हैं, “लेकिन यह तभी होगा जब सशक्त जैव विविधता प्रबंधन समितियां, अपनी भूमिका से अवगत हों।”

वह कहते हैं कि अगर बायोटेक कंपनियों को रेगुलेट नहीं किया गया, तो कश्मीर घाटी अपने औषधीय संसाधनों को खो देगी।

Horse grazing in meadow
बडगाम, कश्मीर में विविध प्रकार के पौधे उगते हैं। (फोटो: अलामी)

भट कहते हैें कि वैसे तो सरकार ने जिला, नगर पालिका और ग्राम स्तर पर जैव विविधता प्रबंधन समितियों का गठन किया है, लेकिन 2022 में एक सम्मेलन को छोड़कर, सरकार ने समिति के सदस्यों को सूचित करने और जागरूक करने के लिए कुछ भी नहीं किया है कि काम कैसे किया जाए। 

सैयद बारी अंद्राबी, जो दक्षिणी कश्मीर में पुलवामा जिले के लिए बीएमसी के अध्यक्ष हैं, ने 2022 के सम्मेलन में भाग लिया। उन्होंने द् थर्ड पोल को बताया कि सम्मेलन के दौरान उन्होंने महसूस किया कि जैव विविधता प्रबंधन समितियां कितनी महत्वपूर्ण हैं।

वह कहते हैं कि कार्यक्रम, गांव और पंचायत स्तर तक पहुंचना चाहिए था, जो नहीं हो रहा है। 

भट का कहना है कि जब भी सरकार इस क्षेत्र में, औषधीय पौधों की निकासी के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर करने का इरादा करे, तो उसे बीएमसी को लूप में रखना चाहिए। अन्यथा, यह जैविक विविधता अधिनियम का उल्लंघन करेगा। 

दवा कंपनियों का रेगुलेशन केवल तभी होगा, जब सशक्त जैव विविधता प्रबंधन समितियां अपनी भूमिका से अवगत हों।
राजा मुजफ्फर भट, एनवायरमेंट एक्टिविस्ट 

वहीं, जम्मू-कश्मीर जैव विविधता परिषद के तारिक कहते हैं कि जैव विविधता प्रबंधन समितियों को प्रशिक्षित करने के लिए जागरूकता अभियान जम्मू में शुरू हो गया है और जल्द ही कश्मीर में शुरू होगा।

तारिक कहते हैं, “कश्मीर में हम पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर की प्रक्रिया को अंजाम दे रहे थे और इसे प्रिंट कर लिया गया है। हम अब जागरूकता अभियान शुरू करेंगे।” 

वह कहते हैं: “हम पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर में विभिन्न पौधों की स्थिति की जांच करेंगे: यदि पौधे खतरे में है, तो हम [वाणिज्यिक उपयोग या उसकी निकासी के लिए] अनुमति से इनकार करेंगे। हालांकि, अगर पौधों की प्रजातियां पर्याप्त हैं, तो हम उन्हें अनुमति देंगे।”

आजीविका और संरक्षण के लिए एक अवसर?

तारिक कहते हैं, “सरकार जंगलों और उसके आसपास रहने वाले लोगों को आजीविका सहायता प्रदान कर रही है। जैव विविधता प्रबंधन समितियों को उनकी रॉयल्टी मिलेगी और लोग लाभान्वित होंगे। उनका कहना है कि सब कुछ एक प्रक्रिया के माध्यम से होगा और व्यापार वैध हो जाएगा।” वहीद-उल-हसन, जम्मू-कश्मीर मेडिसिनल प्लांट्स बोर्ड के टेक्निकल ऑफिसर हैं और उनके पास पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों की शिक्षा, अनुसंधान और प्रचार की जिम्मेदारी है। 

उन्होंने द् थर्ड पोल को बताया कि जम्मू-कश्मीर मेडिसिनल प्लांट्स बोर्ड ने जम्मू-कश्मीर वन विभाग के साथ मिलकर पिछले एक साल में 230,000 लुप्तप्राय औषधीय पौधों को उगाया है। जंगलों का और अधिक दोहन किए बिना, उच्च मांग की जरूरत को पूरा करने के लिए, इन पौधों को जम्मू के मारवाह फॉरेस्ट डिवीजन की प्लांट नर्सरियों में में उगाया गया। 

जिन संवेदनशील प्रजातियों की खेती की जा रही है उनमें कुथ, कुटकी और मुश्कबाला शामिल हैं। हसन का कहना है कि मेडिसिनल प्लांट्स बोर्ड की योजना इन नर्सरियों में किसानों को रोजगार देने की है। 

सीएसआईआर-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटीग्रेटिव मेडिसिन, जम्मू स्थित एक सरकारी संस्थान हैं। यह औषधीय पौधों की खेती और अध्ययन को बेहतर बनाने के लिए काम करता है। इसकी वेबसाइट पर बताया गया है कि “दवा कंपनियों को जंगलों से काटे गए पौधों के बजाय, खेती वाले पौधों का उपयोग करना होगा।  

दरअसल, पौधों को जंगलों से निकालने की विधियां और सूक्ष्म जीवों, कीटनाशकों व भारी धातुओं के साथ कन्टैमनेशन यानी संदूषण “हर्बल दवाओं की गुणवत्ता, सुरक्षा और प्रभावकारिता के साथ हस्तक्षेप” कर सकती हैं।

हालांकि, कादरी का दावा है कि कई औषधीय पौधे, केवल उनके प्राकृतिक आवास में ही उग सकते हैं।

वह पूछते हैं, “सरकार [औषधीय पौधे] क्यों नहीं उगा पाई? जबकि “उनके पास डेमोंस्ट्रेशन के लिए नर्सरियां उपलब्ध हो सकती हैं।” कादरी यह भी पूछते हैं, “इन पौधों के लिए बाहरी वन क्षेत्र वाली नर्सरियां कहां हैं … [ताकि सरकार] बड़ी आवश्यकताओं को पूरा कर सके?” 

कादरी को चिंता है कि अपने प्राकृतिक आवास के बाहर पौधों को उगाने की तकनीक को ठीक-ठाक करने में एक दशक का समय लगेगा और इस बीच, कंपनियां जंगलों से उपज लेने के लिए लोगों को भुगतान कर सकती हैं।

वहीं, भट का तर्क है कि जैव प्रौद्योगिकी कंपनियां, लुप्तप्राय औषधीय पौधों के व्यवसायीकरण और उपयोग को आगे बढ़ाएंगी। इससे अवैध व्यापार को बढ़ावा मिलेगा। 

इस बीच, उद्योग के विस्तार से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले कई लोग अंधेरे में हैं। कश्मीर के खानाबदोश गुर्जर समुदाय के सदस्य 66 वर्षीय कदीर डोय कहते हैं कि उनके कबीले को योजनाओं की जानकारी नहीं है।

सैद्धांतिक तौर पर, डोय जैसे समुदायों को, क्षेत्र के औषधीय पौधों की कटाई करने की अनुमति है। 16 नवंबर, 2021 को जम्मू-कश्मीर जैव विविधता परिषद के फेसबुक पेज – इसकी वेबसाइट काम नहीं करती – पर एक नोटिस में कहा गया है कि परिषद की अनुमति के बिना ऐसे पौधों के उपयोग को सीमित करने वाले प्रावधान “क्षेत्र के स्थानीय लोगों और समुदायों” पर लागू नहीं होते हैं।

गर्मियों के दौरान डोय अपने पशुओं को कश्मीर के युस्मार्ग ले जाते हैं। यह जगह विभिन्न प्रकार के औषधीय पौधों के लिए मशहूर है। वह कहते हैं, “सरकार हमें औषधीय पौधों को यह कहते हुए निकालने की अनुमति नहीं देती है कि वे लुप्तप्राय हैं लेकिन अगर अन्य लोग आएंगे और हमारे संसाधन ले लेंगे, तो वे [सरकार] हमें क्यों रोकेंगे?” 

फिलहाल यह सवाल बना हुआ है कि औषधीय पौधों से संबंधित नीतियों से सबसे अधिक प्रभावित लोग, इन प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के लिए सशक्त होंगे या नहीं? यह देखना अभी बाकी है।