पूरे दक्षिण एशिया में आजीविका पर कोविड-19 का प्रभाव चरम पर है। कम संक्रमण दर और यहां तक कि हताहतों की संख्या कम होने के बावजूद अधिकांश दक्षिण एशियाई देशों में लॉकडाउन के कारण दुर्दशा झेल रहे प्रवासी मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। लॉकडाउन के चलते पहाड़ों और ग्रामीण समुदायों में संकटग्रस्त हालात में जीवन बसर कर रहे मजदूरों पर सरकारों को ध्यान देना चाहिए।
चूंकि दक्षिण एशिया में पिछले कुछ दशकों में कृषि आय में स्थिरता है, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से सूखे और बाढ़ की घटनाएं बढ़ी हैं, इसलिए गरीब श्रमिकों की शहरी क्षेत्रों में बाढ़ सी आ गई है। तटीय क्षेत्रों में, बढ़ते समुद्र ने भूमि को खारा और बांझ बना दिया है। इसने लाखों लोगों को संकट में धकेल दिया है। इससे लोग किसी भी तरह और कहीं भी रोजगार हासिल करने के लिए मजबूर हुए। विदेश और दक्षिण एशिया के देशों में लॉकडाउन किया गया है, लेकिन इसमें प्रवासी मजदूरों के जीवन की हताश प्रकृति को भी स्पष्ट शब्दों में प्रकट किया जा सकता है क्योंकि ये लोग अपनी आजीविका के साधनों के साथ दिन-प्रतिदिन अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
भुखमरी के कगार पर
लक्ष्मण खटीक कहते हैं, “आप लोगों की सेहत के लिए आप लोग हमें बंद करके रखा है।” इंदौर में प्रवासी श्रमिकों के लिए बनाये गये एक क्वारंटाइन सेंटर से एक वालेंटियर से मांग कर फोन करने वाले लक्ष्मण खटीक के अंदर की कड़वाहट बाहर आ गई। उनके पास फोन है, लेकिन कॉल करने के लिए उसमें पैसे नहीं बचे हैं।
खटीक के पास 10 साल का राजमिस्त्री का काम करने अनुभव है लेकिन जब उनको यहां से घर जाने की अनुमति मिलेगी तो उनके पास घर ले जाने के लिए रुपये नहीं हैं। मध्य प्रदेश के एक अन्य हिस्से में उनका गांव है जहां खेतों पर काम करने के लिए मजदूर उपलब्ध नहीं हैं, जबकि वहां गेहूं की कटाई-मड़ाई का काम होना है जिसकी बुवाई नवंबर में की गई थी। खटीक बेहद दुखी होकर बताते हैं कि कोविड-19 संक्रमण से बचाने के लिए उन्हें और उनके जैसे 200 अन्य प्रवासी श्रमिकों को वहां क्वारंटाइन सेंटर में रखा जा रहा है। वह कहते हैं कि हमें यहां बस किसी तरह ठूंस दिया गया है। कोई इस तरह कैसे रह सकता है। यहां 200 लोगों के बीच केवल चार शौचालय हैं।
खटीक कहते हैं, “क्या हम जानवर हैं?”
जब उनसे पूछा गया कि क्या वह घर वापस जाने के लिए लोगों से बात कर रहे हैं, तो उन्होंने कहा “मैंने ऐसा किया, जब तक कि मेरे फोन में बैलेंस था। मैं अपने घर एक महीने से कोई पैसा नहीं भेजा पाया हूं। उन्हें खाना खरीदना पड़ता है और हमारे गांव की किराने की दुकान पर उनको भारी-भरकम बिल जमा करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। भगवान न करे, अगर मेरे माता-पिता बीमार पड़ जाते हैं, तो हम डॉक्टर को कैसे भुगतान करेंगे या दवाइयां कैसे खरीदेंगे? ” हालांकि सरकार ने कहा है कि कुछ निर्माण कार्य 20 अप्रैल से फिर से शुरू हो सकते हैं, लेकिन खटीक को इससे बहुत कम उम्मीद है। वह कहते हैं कि मैं काम कहां खोजूंगा? अगर सरकार अनुमति देती है तो भी मैं उस चौराहे पर खड़ा रह जाऊंगा जहां से लोग रोजाना के लिए मजदूरों को ले जाते हैं। एक काम के लिए आठ लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा होगी। दिहाड़ी मजदूरी गिरेगी। पहले मैं रोजाना 400 रुपये काम लेता था लेकिन अब अगर मैं बहुत भाग्यशाली रहा तो रोजाना के 100 रुपये कमा पाऊंगा।
इसी तरह, नई दिल्ली में यमुना तट के किनारे फंसे राम पाल की स्थिति तो इससे भी ज्यादा बदतर थी। वह उन लोगों में से थे जो नदी के किनारे लोगों द्वारा फेंके गये आधे सड़े केलों में कुछ खाने लायक केले खोज रहे थे। बिहार के रहने वाले राम पाल राजधानी में लॉकडाउन से पहले ई-रिक्शा चलाते थे।
राम पाल कहते हैं, ”पहले मुझे ऐसा करने में शर्म आ रही थी – इससे भी अधिक शर्म की बात यह है कि टीवी पत्रकारों ने मुझे देखा। लेकिन अब मुझे खुशी है कि वे वहां थे। उन्होंने यह न्यूज़ में दिखाया और तब से हमें दिन में दो बार भोजन के पैकेट मिल रहे हैं। उन केलों को देखने से पहले हममें से अधिकांश ने तीन दिनों तक कुछ भी नहीं खाया था। ” कोविड-19 के प्रसार को रोकने के लिए भारत में 24 मार्च की मध्यरात्रि से लॉकडाउन घोषित किया गया था, जहां राम पाल जैसे लाखों श्रमिकों को अनेक तकलीफों का सामना करना पड़ रहा है। वैसे, राम पाल की तकलीफ भरी कहानी काफी चर्चा में रही है। वह 800 किमी दूर अपने गांव जाने की जाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन लॉकडाउन में परिवहन व्यवस्था बंद होने की वजह से उनको रोक दिया गया। हालात तब और भी बदतर हो गये जब उनको एक भयानक भीड़भाड़ वाले क्वारंटाइन सेंटर में भेज दिया गया जहां उनको पूरे एक दिन खाने को कुछ नहीं मिला। इन सबके चलते वह और कुछ अन्य लोग वहां से भागने पर मजबूर हो गये और आकर यमुना तट के किनारे इकट्ठा हो गये। यहीं उन्होंने मजबूरी में केलों के ढेर में से अपना भोजन खोजने का जोखिम उठाया।
वह अपने परिवार और अपनी घर वापसी के बारे में बात नहीं करना चाहते। वह कहते हैं, “जब उनके पास पैसे नहीं होंगे तो आप उनसे कैसे कोई उम्मीद कर सकते हैं? जब मैं अपने गांव के लिए निकला था तो मेरे पास कुछ पैसे थे, लेकिन अब मैं यहां फंस गया हूं, मैंने पैसे भोजन खरीदने के लिए खर्च कर दिये, अभी घर जाने का कोई मतलब नहीं है। मैं उन सबको अपनी शक्ल कैसे दिखाऊंगा ? मेरी पत्नी और बच्चे क्या सोचेंगे कि मैं किस तरह का आदमी हूं?
पाकिस्तान में ही वही निराशा
पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के एक घर में एक निजी रसोइया 46 वर्षीय रोशन खान वार्षिक अवकाश पर अपने गांव में थे जब सरकार ने कोविड -19 महामारी के कारण लॉकडाउन की घोषणा की। पाकिस्तान-प्रशासित कश्मीर में पुंछ जिले की राजधानी रावलाकोट के पास अपने गांव से फोन पर बातचीत में उन्होंने कहा, “जिन लोगों के लिए मैं काम करता हूं, उन्होंने मुझसे कहा है कि जब तक वे न कहें, तब तक उन्हें आने की जरूरत नहीं है।
बिना वेतन के रोशन खान ने अपने परिवार के लिए भोजन और अन्य आवश्यक चीजों की खरीद पर पहले ही 16,000 पाकिस्तानी रुपये खर्च कर चुके हैं। वह कहते हैं, “अब मैं उधार पर दैनिक किराने का सामान खरीद रहा हूं और दुकानदार का अब तक 19,000 पाकिस्तानी रुपये उधार हो चुका हूं। पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला की ढलान पर सिंघोला के छोटे से गांव में एक-दूसरे को सब लोग जानते हैं, इसलिए दुकानदार ने पैसे नहीं मांगे। लेकिन मुझे लगता है कि वह दिन बहुत दूर नहीं है जब वह पैसे के लिए कहेगा।”
गांव में उसके लिए कोई काम नहीं है। सभी सामानों को सड़क से लोगों के घरों तक खड़ी ढलान पर ले जाना पड़ता है। कुछ पड़ोसी पल्लेदार के रूप में पैसा कमाते हैं। रोशन ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि उसने हाल ही में उसने एक गांठ को निकलवाने के लिए अपने गर्दन का ऑपरेशन करवाया है। वह कहते हैं, “मैं कठिन श्रम नहीं कर सकता या भारी वजन नहीं उठा सकता। अगर मैं करता हूं, तो मुझे गर्दन और सिर में तेज दर्द होता है और सांस लेने में तकलीफ होने लगती है।” उन्होंने अपने नियोक्ता से पैसे नहीं मांगे हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें शर्म आ रही है और “उन्होंने अभी तक कुछ भी नहीं दिया है।”
उन्हें सरकार से बहुत कम उम्मीद है। रोशन उन लोगों में से हैं जिन्हें 2005 के भूकंप के बाद वादा किये गये मुआवजे का भी भुगतान नहीं मिला था। “मुझे केवल 75,000 (पाकिस्तानी रुपये) (450 अमेरिकी डॉलर) मिले जबकि 200,000 (पाकिस्तानी रुपये) (1200 अमेरिकी डॉलर) देने का वादा किया गया था और तब से मैंने अपना सामान्य घर बनाने में 400,000 (पाकिस्तानी रुपये) (2400 अमेरिकी डॉलर) खर्च कर दिये हैं जिसका निर्माण कार्य पूरा होने में अभी काफी वक्त है। साल 2007 से मैं अपना ऋण चुका रहा हूं। अभी भी मुझे 70,000 (पाकिस्तानी रुपये) का ऋण चुकता करना है।” कोरोना की महामारी ने उनकी चिंता में केवल इजाफा ही किया है।
कराची के डिफेंस फेस 4 में एक रेस्तरां में वेटर 43 वर्षीय मोहम्मद खलील तीन सप्ताह से काम पर नहीं गए, जब सभी भोजनालयों को सिंध सरकार द्वारा बंद करने का आदेश दिया गया। उनके जैसे दुख को साझा करने वाले 12 अन्य वेटर हैं जो तीन कमरों में रहते हैं, जिसके लिए वे प्रति माह 24,600 (पाकिस्तानी रुपये) का किराया देते हैं। लॉकडाउन के कारण, उनमें से कोई भी यात्रा नहीं कर सकता है।
खलील कहते हैं, “मेरे नियोक्ता ने मुझे रोजाना 300 पाकिस्तानी रुपये का भुगतान किया और अच्छे दिनों में मैंने औसतन 500 पाकिस्तानी रुपये कमाये हैं।” अब उन्हें और उनके दोस्तों को दोपहर के भोजन के लिए पैक किया हुआ खाना मिलता है, जो पास में एक चैरिटी करने वाले एक संस्थान द्वारा वितरित किया जाता है। उनके पास जो भी खाद्य सामग्री है, उससे वह अपने रात का भोजन खुद बनाते हैं।
पुंछ जिले के एक गांव में उसकी पत्नी और चार बच्चे उनको मिलने वाले धन पर निर्भर हैं, लेकिन खलील के पास अब घर भेजने के लिए पैसे नहीं हैं। वह कहते हैं, “अभी तो, मेरा बड़ा भाई उनकी देखभाल करने में सक्षम है। लेकिन मुझे नहीं पता कि आगे क्या होगा, मैं घर वापस चला जाऊंगा और उन लोगों के पास रहूंगा ”
खलील इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि अगर वह अपने गांव जाने में कामयाब हो जाते हैं तो जीविका का कुछ न कुछ साधन उनको अवश्य मिल जाएगा। कम से कम, वह सरकार द्वारा वितरित किए जा रहे सब्सिडी वाले भोजन को तो अवश्य प्राप्त कर लेंगे। वह बताते हैं, “चूंकि हमारे गांव की महिलाएं वास्तव में अपने घरों से बाहर नहीं निकलती हैं, इसलिए वे इन सेवाओं को प्राप्त करने में कतराती हैं। उदाहरण के लिए, मेरी पत्नी, मैसेजिंग सेवा का उपयोग करके एक एसएमएस या अपनी आईडी (पहचान) कार्ड नंबर नहीं भेज सकती हैं, इसलिए वह सरकारी मदद प्राप्त नहीं कर पाएंगी।” खलील के नियोक्ता ने किसी मदद की कोई पेशकश नहीं की है, लेकिन उसको कोई शिकायत नहीं है। वह कहते हैं, “अगर हम केवल गिने-चुने लोग होते तो मुझे पूरा यकीन है कि वह हमें सहयोग करते। लेकिन हम बहुत सारे हैं, इसलिए उनसे उम्मीद करना अनुचित होगा। ”
नेपाल में बाहर से आने वाली कमाई ढह गई है
ओम थापा मागर 18 मार्च को राष्ट्रीय तालाबंदी की घोषणा के एक सप्ताह पहले यूएई से नेपाल के मकवानपुर जिले में अपने घर लौटे थे। उन्होंने फोन पर thethirdpole.net को बताया, “मैं एक खाद्य आपूर्ति सेवा के लिए काम करता था और दो महीने के लिए घर आया था, लेकिन यह नहीं जानता कि क्या मुझे अपना काम फिर से शुरू करने की अनुमति होगी। मेरे नियोक्ता ने कहा है, ‘चलो देखते हैं कि आगे क्या होता है’, ।
उसने तुरंत पूछा, “क्या आपको लगता है कि काठमांडू में मेरे जैसे लोगों के लिए कोई अवसर होगा?” पांच के परिवार के एकमात्र कमाऊ सदस्य के रूप में उसको भविष्य अंधकारमय दिखता है।
मध्य पूर्व, दक्षिण कोरिया और भारत जैसे कई देशों से सैकड़ों प्रवासी श्रमिक अपने घरों को लौट आए हैं। हजारों प्रवासी श्रमिक फंसे हुए हैं क्योंकि सरकार ने श्रम परमिट जारी करना बंद कर दिया है। पिछले एक दशक में, नेपाल ने मध्य पूर्व और मलेशिया के साथ-साथ अन्य देशों में काम करने के लिए 35 लाख प्रवासी श्रमिकों को श्रम परमिट जारी किए हैं। कोविड -19 से पहले के वक्त में औसतन रोजाना 2,000 लोग काम के लिए देश से बाहर गए जो अपने परिवारों का भरण-पोषण करेंगे। नेपाल की 1,300 बिलियन नेपाली रुपये की वार्षिक अर्थव्यवस्था में प्रेषण का योगदान एक तिहाई का है। 2018 में, देश को 879 बिलियन नेपाल रुपये (7.14 बिलियन अमेरिकी डॉलर) प्रेषण के जरिये प्राप्त हुआ, जिसमें 15 फीसदी अकेले भारत से थी।
प्रेषण के योगदान की वजह से नेपाल में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या में काफी गिरावट आई है। नेपाल में 1990 में 42 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे थे जो 2015 में घटकर 24 फीसदी रह गये। अब तक की मीडिया रिपोर्टों का कहना है कि अगर अगले कुछ महीनों तक विभिन्न देशों में लॉकडाउन जारी रहता है तो यह प्रतिशत बढ़ने की संभावना है। देश के एसडीजी प्लान के तहत 2015 में, नेपाल ने 2030 तक गरीबी रेखा से नीचे के लोगों की संख्या को 5% तक कम करने का लक्ष्य रखा। कोविड -19 के कारण हुए आर्थिक कहर से इसमें बाधा आने की आशंका है।
2018 में, द एशिया फाउंडेशन द्वारा तैयार किए गए प्रवासी श्रमिकों की स्थिति रिपोर्ट में कहा गया है, “नेपाल जैसे देश में, विदेशी कमाई पर महत्वपूर्ण रूप से निर्भर, प्रेषण में एक छोटी सी गिरावट देश के आर्थिक स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है।” नेपाल सरकार अभी तक अपनी किसी ऐसी योजना के साथ सामने नहीं आई है कि वह इस महामारी की वजह से होने वाले आर्थिक पतन को कैसे नियंत्रित करेगी।
नेपाल में निर्माण क्षेत्र में लगे करीब 10 लाख और परिवहन व रेस्टोरेंट्स के क्षेत्र में करीब 20 लाख श्रमिक बेरोजगार हो गये हैं। इनमें से ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर हैं। नेपाल की घरेलू अर्थव्यवस्था का लगभग 60 फीसदी हिस्सा पर्यटन और परिवहन जैसे सेवा क्षेत्रों पर निर्भर है। कुछ विशेषज्ञों को उम्मीद की किरण नजर आ रही है। नेपाल के राष्ट्रीय योजना आयोग के पूर्व वाइस चेयरमैन गोविंद राज पोखरैल कहते हैं, “औसतन, 753 स्थानीय प्रशासनिक एजेंसियों में से प्रत्येक में तकरीबन 3,000 युवा शहरों या विदेश से लौटे हैं। उन्हें खेती के लिए ब्याज मुक्त ऋण प्रदान किया जाना चाहिए, जो उन्हें अपने घर रहने के लिए प्रोत्साहित करेगा। कृषि में कुछ नवाचार लाने और युवाओं को समर्थन देने का सही समय है। “
लेकिन पूरे दक्षिण एशिया में लगभग सभी प्रवासी मजदूरों के लिए यह आजीविका का तत्काल नुकसान है, जो एक तबाही है।