उर्जा

नेपाल की कुछ बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं में चीन की जगह ले रही हैं भारतीय कंपनियां 

नेपाल से बिजली ख़रीदने वाला भारत अपने नियमों के अंतर्गत चीन की कंपनियों द्वारा नेपाल में उत्पादित बिजली नहीं ख़रीद रहा। इसकी वजह से नेपाल के ऊर्जा बुनियादी ढांचे में निवेश का परिदृश्य बदल रहा है।
<p>पूर्वी नेपाल के पांचार जिले में स्थित 25 मेगावाट की क्षमता वाला काबेली बी 1 जलविद्युत स्टेशन। यहां से 2019 में बिजली पैदा होना शुरू हुआ। विशेषज्ञों का कहना है कि चूंकि नेपाल एनर्जी सरप्लस की स्थिति में है, इसलिए उसको एक खरीदार की आवश्यकता होती है और यही स्थिति, उस निर्णय को भी तय करने लगा है कि देश में ऊर्जा आधारभूत ढांचे का विकास कौन करेगा। (फोटो: मार्क बोचर / अलामी)</p>

पूर्वी नेपाल के पांचार जिले में स्थित 25 मेगावाट की क्षमता वाला काबेली बी 1 जलविद्युत स्टेशन। यहां से 2019 में बिजली पैदा होना शुरू हुआ। विशेषज्ञों का कहना है कि चूंकि नेपाल एनर्जी सरप्लस की स्थिति में है, इसलिए उसको एक खरीदार की आवश्यकता होती है और यही स्थिति, उस निर्णय को भी तय करने लगा है कि देश में ऊर्जा आधारभूत ढांचे का विकास कौन करेगा। (फोटो: मार्क बोचर / अलामी)

बीते कुछ वर्षों में नेपाल ने हजारों करोड़ों रुपयों की जलविद्युत परियोजनाओं को चीनी डेवलपर्स से भारतीय कंपनियों को देना शुरू कर दिया है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह किसी आर्थिक या इकोलॉजिकल कारणों की वजह से नहीं हो रहा। ये दो ऐसे क्षेत्र हैं जिसको लेकर नेपाल की महत्वाकांक्षी जल विद्युत परियोजनाओं की आलोचना होती रही है। यह बदलाव इसलिए हो रहा है क्योंकि भारत, जो नेपाल द्वारा बेची जाने वाली बिजली का प्रमुख खरीदार है, उसने चीन द्वारा बनाए गए प्लांट से उत्पादित बिजली को खरीदने से इनकार दिया है।

पश्चिमी नेपाल में 750 मेगावाट क्षमता वाली वेस्ट सेती जलविद्युत परियोजना की कहानी बताती है कि कैसे जियो पॉलिटिक्स इस बदलाव को आगे बढ़ा रही है। 2012 में, नेपाल ने परियोजना को विकसित करने के लिए चाइना थ्री गॉर्जेस कॉरपोरेशन के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किया था, जो 99 बिलियन रुपयों की अनुमानित लागत से देश में सबसे बड़ी योजना में से एक थी। इसके बाद एक अरब डॉलर की संयुक्त उद्यम कंपनी स्थापित करने के लिए 2017 का सौदा किया गया। हालांकि, 2018 में, चीनी कंपनी ने उम्मीद से कम रिटर्न और भौगोलिक व अन्य चुनौतियों का हवाला देते हुए कदम पीछे खींच लिए

10,000 मेगावाट

नेपाल विद्युत प्राधिकरण को 2030 तक 10,000 मेगावाट जलविद्युत क्षमता हासिल कर लेने की उम्मीद है। साल 2021 तक यह 2,190 मेगावाट है।

देश में घरेलू और विदेशी निवेश को बढ़ावा देने और इसके लिए जरूरी सुविधाएं मुहैया कराने के लिए जवाबदेह सरकारी एजेंसी, इन्वेस्टमेंट बोर्ड नेपाल (आईबीएन) के अनुसार, चीनी कंपनी ने 750 मेगावाट से 600 मेगावाट तक परियोजना को कम करने के लिए कहा था। चीनी कंपनी ने यह तर्क दिया कि ज्यादा बड़ी मात्रा वाली परियोजना आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं थी। आईबीएन द्वारा अन्य सरकारी एजेंसियों के लिए तैयार की गई एक रिपोर्ट में कहा गया, “नेपाल की सरकार ने शर्तों पर सहमति जताई और परियोजना शुरू करने के उद्देश्य से प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए दस्तावेज मांगे, लेकिन कंपनी ने आवश्यक दस्तावेज जमा नहीं किए।”

हालांकि नेपाल के प्रधानमंत्री और आईबीएन के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा ने इसका एक अलग कारण दिया था। मई 2022 में स्थानीय चुनावों के लिए प्रचार करते हुए देउबा ने मीडिया से कहा, “चीनी कंपनियों द्वारा बनाए गए वेस्ट सेती जलविद्युत परियोजना से भारत बिजली नहीं खरीदेगा, इसलिए मैं इसे भारत को देने जा रहा हूं।”

यह जश्न मनाने का समय नहीं है, बल्कि यह देखने का समय है कि समझौता कितना खराब हुआ है, क्योंकि यह दो देशों के बीच जल संसाधनों के बंटवारे की बात नहीं करता है।
दीपक ग्यावली, नेपाल के पूर्व जल संसाधन मंत्री

एक महीने बाद, आईबीएन ने अगस्त में हस्ताक्षरित एक समझौते के साथ, भारत की सरकारी स्वामित्व वाली नेशनल हाइड्रो पावर कंपनी (एनएचपीसी) को वेस्ट सेती परियोजना देने का फैसला किया। एक प्रेस रिलीज़ में, देउबा ने कहा: “हम बिजली बेचकर भारत के साथ व्यापार घाटे को कम करने में सक्षम होंगे और इससे दोनों देशों के बीच बेहतर सहयोग और जल संसाधनों के आपसी बंटवारे को बढ़ावा मिलेगा।”

वेस्ट सेती की एक अन्य निचली नदी की परियोजना, सेती नदी-6, को इस समझौते में शामिल किया गया था। दोनों परियोजनाओं की कुल लागत अब 197.5 बिलियन रुपयें आंकी गई है, हालांकि जिस समय यह लेख प्रकाशित हो रहा है, उस समय तक, आईबीएन ने परियोजनाओं के विवरण के साथ दस्तावेज, अपनी वेबसाइट पर अपलोड नहीं किए हैं।

‘जियो पॉलिटिकल गेम्स’ से जलविद्युत विकास को नुकसान

समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए अगस्त में आयोजित एक समारोह के दौरान, एनएचपीसी के अध्यक्ष एके सिंह ने कहा: “यह हमारा इतिहास है कि जब हम किसी परियोजना में प्रवेश करते हैं, तो हम उसे पूरा करते हैं। हम समझते हैं कि वेस्ट सेती को विकास के अग्रदूत के रूप में लिया गया है। हम कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।”

इन उठापटक को देखने का हर किसी का अपना नजरिया है। भारत सरकार द्वारा वित्त पोषित एक थिंक टैंक इंस्टीट्यूट ऑफ चाइनीज स्टडीज़ की तरफ से अगस्त में आयोजित एक वेबिनार दौरान नेपाल में भारत के पूर्व राजदूत रंजीत राय ने कहा, “नेपाल में एक मजबूत भावना है कि भारत वादा करता है लेकिन अपने वादों पर कायम नहीं है और हमें इससे जल्दी निपटने की जरूरत है।”

इस साल, नेपाल में भारतीय कंपनियों द्वारा बनाई जा रही 900 मेगावाट की अपर करनाली और अरुण III परियोजनाओं के साथ समस्याओं की खबरें आई हैं। इससे इनकी समय सीमा बढ़ा दी गई है। पुनर्वास को लेकर स्थानीय विरोध प्रदर्शन हुए हैं।

नेपाल के पूर्व जल संसाधन मंत्री दीपक ग्यावली ने द् थर्ड पोल को बताया कि वेस्ट सेती सौदा नेपाल के लिए एक नुकसान है। वह कहते हैं, “एक समझौते पर हस्ताक्षर करने से परियोजना का विकास सुनिश्चित नहीं होता है, क्योंकि यह वर्षों से चल रहा है। यह जश्न मनाने का समय नहीं है, बल्कि यह देखने का है कि समझौता कितनी बुरी तरह से किया गया क्योंकि यह दो देशों के बीच जल संसाधनों के बंटवारे की बात नहीं करता है।” ग्यावली का कहना है कि इस परियोजना से सर्दियों के मौसम में पानी का प्रवाह भारत की तरफ बढ़ जाएगा और इससे उनको अपनी जमीन की सिंचाई में मदद मिलेगी लेकिन इसके लेकिन बदले में नेपाल को कुछ भी नहीं मिलने वाला है।

हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि हाल के वर्षों में नेपाल की जलविद्युत में अधिक जियोपॉलिटिकल खेल खेले जा रहे हैं और यह परियोजनाओं के विकास में बाधा उत्पन्न करेगा।
द्वारिका नाथ ढुंगेल, नेपाल के ऊर्जा, जल संसाधन और सिंचाई मंत्रालय के पूर्व सचिव

नेपाल के सबसे बड़े नियोजित जलविद्युत संयंत्र, 1,200 मेगावाट की क्षमता वाले बूढ़ी गंडकी परियोजना की कहानी और भी जटिल है। यहां से इस साल बिजली का उत्पादन शुरू होना था, लेकिन अभी तक निर्माण कार्य भी शुरू नहीं हुआ है। 2017 में, पद छोड़ने से कुछ दिन पहले, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) की कैबिनेट और प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ने बिना किसी बोली प्रक्रिया के चाइना गेझौबा ग्रुप कॉरपोरेशन को यह परियोजना देने का फैसला किया था। उस वर्ष बाद में, आने वाली नेपाली कांग्रेस पार्टी की अगुवाई वाली शेर बहादुर देउबा सरकार ने अनियमितताओं और इसको लेकर पारदर्शिता की कमी का हवाला देते हुए इस अनुबंध को रद्द कर दिया।

इसके बाद मामला न्यायालय में गया। फिर, फरवरी 2018 में, नेपाल में एक और सरकार सत्ता में आई, जिसमें केपी ओली, प्रधानमंत्री के रूप में कम्युनिस्ट पार्टियों के गठबंधन का नेतृत्व कर रहे थे। इस सरकार ने सितंबर 2018 में चाइना गेझौबा ग्रुप कॉरपोरेशन को यह परियोजना वापस कर दी। जुलाई 2021 में, शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री के रूप में लौटे; 7 अप्रैल 2022 को उनकी सरकार ने बूढ़ी गंडकी परियोजना के लिए चीनी कंपनी के लाइसेंस को रद्द करने का फैसला किया। यह फैसला, बिजली और ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग का विस्तार करने के लिए नेपाल और भारत के बीच अप्रैल में एक प्रतिबद्धता घोषणा के बाद लिया गया था।

नेपाल के ऊर्जा, जल संसाधन और सिंचाई मंत्रालय के पूर्व सचिव द्वारिका नाथ ढुंगेल कहते हैं, “हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि हाल के वर्षों में नेपाल की जलविद्युत में और अधिक जियोपॉलिटिकल खेल, खेले जा रहे हैं और यह आखिरकार परियोजनाओं के विकास में बाधा उत्पन्न करेगा।”

नेपाल के जलविद्युत से चीनी कंपनियों को बाहर करते हैं भारतीय नियम

जैसे नेपाल में सरकारें बदलीं, भारत ने बिजली की खरीद संबंधी अपने नियमों में बदलाव किया।

2016 में, भारत ने एक निर्यात-आयात दिशा-निर्देश पेश किया, जिसमें कहा गया था कि वह उन कंपनियों से बिजली खरीदेगा, जो या तो पूरी तरह से भारतीय स्वामित्व वाली हैं या कम से कम 51 फीसदी भारतीय कंपनियों के स्वामित्व में हैं। नेपाल द्वारा शिकायतों और पैरवी के बाद, भारत ने 2018 में दिशा-निर्देश में संशोधन किया और 51 फीसदी प्रावधान को हटा दिया, लेकिन फिर भी इसमें एक कैविएट (आपत्ति सूचना) है।

प्रक्रिया दस्तावेज में लिखा है: “भारतीय संस्थाएं, बिजली का आयात कर सकती हैं, बशर्ते कि उत्पादन करने वाली कंपनी का स्वामित्व, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी प्राकृतिक/कानूनी व्यक्तित्व (यों) के पास न हो, जिसका प्रभावी नियंत्रण या धन का स्रोत या लाभकारी मालिक का निवास, किसी तीसरे देश में न हो या उनका नागरिक न हो, जिसके साथ भारत भूमि सीमा साझा करता है और उस तीसरे देश का भारत के साथ बिजली क्षेत्र में सहयोग पर कोई द्विपक्षीय समझौता नहीं है।”

हालांकि इसमें चीन का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन वास्तव में यह चीन को बाहर करता है। इंडिपेंडेंट पावर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन ऑफ नेपाल (आईपीपीएएन) के वाइस-प्रेसिडेंट गणेश कार्की कहते हैं, “हमने भारतीय अधिकारियों से सुना है कि वे चीन की निवेश वाली कंपनियों से बिजली नहीं खरीदेंगे। इसके अलावा, वे बिजली उत्पादन के लिए चीनी उपकरणों का उपयोग करने वाली कंपनियों से भी बिजली नहीं खरीदेंगे।”

भारत केवल उन्हीं परियोजनाओं से बिजली खरीदता है जिनमें चीनी निवेश नहीं है, लेकिन फिर भी यह बिना व्यापार से तो बेहतर है।
ऊर्जा, जल संसाधन और सिंचाई मंत्रालय के अधिकारी

ऊर्जा, जल संसाधन और सिंचाई मंत्रालय के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “भारत केवल उन परियोजनाओं से बिजली खरीदता है जिनमें चीनी निवेश नहीं है, लेकिन फिर भी यह बिना व्यापार से तो बेहतर है।”

नेपाल में भारत के पूर्व राजदूत राय का कहना है, “मुझे ऐसी स्थिति नहीं दिखती जहां भारत, नेपाल की जलविद्युत में चीनी निवेश को प्रोत्साहित कर सके क्योंकि भारत के पास नेपाल में जलविद्युत परियोजनाओं को विकसित करने के लिए पर्याप्त क्षमता और संसाधन हैं। हालांकि यह अभी विकसित हो रहा है। हमने कहा था कि यह पहले भारत और नेपाल के बीच था लेकिन अब भारत ने बहुपक्षीय निवेश के लिए लचीला रुख अपनाया है, लेकिन चीन नहीं।”

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि चीन को अभी और अधिक दरकिनार किया जा सकता है। खासकर जलविद्युत विकास के क्षेत्र में। नेपाल के ऊर्जा, जल संसाधन और सिंचाई मंत्रालय के पूर्व जल संसाधन सचिव अनूप कुमार उपाध्याय का कहना है, “यह भारत का दोहरा मापदंड है क्योंकि वह [चीन] से अपने क्षेत्र में निवेश का स्वागत कर रहा है, लेकिन अपने पड़ोस में [चीनी] निवेश को हतोत्साहित कर रहा है।” उन्होंने कहा: “इतने बड़े युद्ध के मैदान में इतने कमजोर हथियार से लड़ने से [भारत] को कुछ भी हासिल करने में मदद नहीं मिलेगी।”

अन्य लोग इस बात पर जोर देते हैं कि यह केवल निवेश के बारे में नहीं है, बल्कि भारत के लिए एक सामरिक मसला है।

पूर्व जल संसाधन मंत्री ग्यावली का कहना है, “चीन, नेपाल के जल संसाधनों को विकास के नज़रिए से देखता है और यह उनके लिए पैसा कमाने वाला व्यवसाय है। लेकिन भारत के लिए, यह एक सामरिक संसाधन है और सुरक्षा का मुद्दा है, इसलिए पानी उनके लिए कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।”

वह आगे यह भी कहते हैं, “दुख की बात है कि नेपाल के पास अपना कोई दृष्टिकोण नहीं है। न तो विकास का और न ही सुरक्षा का। यह सब कहीं खो गया है और यह और भी बड़ी समस्या है।” इसके अलावा, विकास और सुरक्षा, एकमात्र दृष्टिकोण हैं, जिनके माध्यम से जल विद्युत को देखा जाता है, अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों जैसे पारिस्थितिकीय प्रभाव या क्या ये परियोजनाएं आर्थिक रूप से वाकई में लाभकारी हैं, को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

नेपाल की बिजली-निर्यात योजना

ये मुद्दे हाल ही में अपेक्षाकृत और अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। भारत ने नवंबर 2021 में ही नेपाल की बिजली के लिए अपना बाजार खोला है। नेपाल के ऊर्जा, जल संसाधन और सिंचाई मंत्रालय के अनुसार, भारत ने दो जल विद्युत परियोजनाओं – 24 मेगावाट वाली त्रिशूली और 15 मेगावाट वाली देवीघाट- द्वारा उत्पादित 39 मेगावाट बिजली खरीदने के लिए सहमति व्यक्त की थी। ये दोनों भारत द्वारा विकसित किए गए हैं। जून 2022 में, इस मात्रा को बढ़ाकर 364 मेगावाट कर दिया गया।

नेपाल विद्युत प्राधिकरण के अनुसार, नेपाल ने 2021 में अपने राष्ट्रीय ग्रिड में 710 मेगावाट जलविद्युत को जोड़ा, जिससे देश को पहली बार ऊर्जा अधिशेष मिला और इससे स्थापित जलविद्युत क्षमता बढ़कर 2,190 मेगावाट हो गई। यह अभी भी 2026 तक 10,000 मेगावाट की स्थापित क्षमता तक पहुंचने के सरकार के घोषित लक्ष्य से बहुत दूर है। नेपाल विद्युत प्राधिकरण को अब उम्मीद है कि निजी कंपनियों के साथ 4,839 मेगावाट के बिजली खरीद समझौतों और 4,341 मेगावाट के खुद के उत्पादन से 2030 तक यह लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा।

नेपाल के पास अपना कोई दृष्टिकोण नहीं है – न तो विकास दृष्टिकोण और न ही सुरक्षा दृष्टिकोण। यह कहीं खो गया है।
दीपक ग्यावली, नेपाल के पूर्व जल संसाधन मंत्री

जून में एक प्रेस रिलीज़ में, नेपाल विद्युत प्राधिकरण के प्रबंध निदेशक, कुलमान घिसिंग ने कहा, “जून में बेची गई बिजली की मात्रा और इससे होने वाली कमाई [107.1 करोड़ रुपए ] बताती है कि भारत के साथ बिजली का व्यापार सुचारू रूप से आगे बढ़ रहा है।” उन्होंने भारत के माध्यम से अपने पड़ोसियों तक बिजली पहुंचाने की महत्वाकांक्षा भी व्यक्त की: “भारत के अलावा, हम जल्द ही बांग्लादेश को कम से कम 100 मेगावाट बिजली बेचेंगे और यह काम प्रगति पर है। यह अगले एक साल में होगा।”

यह तब तक संभव है, जब तक वह बिजली, चीनी-निर्मित परियोजनाओं, या चीनी उपकरणों का उपयोग करने वालों से नहीं आती है।

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