प्रकृति

फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले बंदरों पर नेपाल में बहस छिड़ी हुई है

फसलों के नुकसान को लेकर किसान चिंतित और आक्रोशित हैं। इस दबाव में सरकारी अधिकारी ऐसे बंदरों को मारने पर विचार कर रहे हैं।
<p>नेपाल के रीसस मैकाक को मक्का और अन्य फसलें बहुत पसंद हैं। इसका मतलब यह हुआ कि इनके इस भोजन के चलते गरीब किसान अपनी बेहद जरूरी कमाई यानी रोजी-रोटी खो रहे हैं। (फोटो: अलामी)</p>

नेपाल के रीसस मैकाक को मक्का और अन्य फसलें बहुत पसंद हैं। इसका मतलब यह हुआ कि इनके इस भोजन के चलते गरीब किसान अपनी बेहद जरूरी कमाई यानी रोजी-रोटी खो रहे हैं। (फोटो: अलामी)

नेपाल में बंदरों ने स्थानीय लोगों और अधिकारियों की रातों की नींद उड़ा रखी है। समाचार पत्रों में ऐसी खबरें प्रकाशित हुई हैं जिसमें बंदरों के झुंड ने गांवों में लोगों के रसोईघरों में धावा बोल दिया। 

इस बीच किसान फसल कटाई के मौसम को लेकर भी डरे हुए हैं। उन्हें डर है कि कहीं उनकी पकी हुई मक्की पर हमला न हो जाए। बंदरों को मक्की बहुत पसंद है। लेकिन किसानों के लिए यह उनकी रोजी-रोटी है। किसानों को इसमें निवेश पर अच्छा रिटर्न मिलता है।

वर्तमान में कई समाधानों पर चर्चा की जा रही है। इनमें किसानों को मुआवजा देना, बंदरों को मारना या बंदरों के आवास को सीमित करने के लिए पेड़ों को काटना शामिल है। 

गुमली से सांसद चंद्र भंडारी ने संसद में यह मुद्दा उठाया है। उन्होंने 2 जून, 2024 को कहा, “किसान संसद को उपहार के रूप में बंदर भेजने की योजना बना रहे हैं, क्योंकि हम उनकी समस्याओं पर ध्यान नहीं दे रहे हैं।”

नेपाल में बंदरों की तीन प्रजातियां हैं; रीसस मैकाक, असमिया मैकाक और हनुमान लंगूर। लेकिन संघर्ष के मामले मुख्य रूप से रीसस मैकाक से संबंधित हैं। यह प्रजाति मनुष्यों के अनुकूल होने के लिए जानी जाती है।

प्राइमेट व्यवहार पर शोध करने वाली सबीना कोइराला ने कहा, “इस तरह से बहस की जा रही है जैसे सभी बंदर राक्षस हैं।” 

उन्होंने रीसस मैकाक द्वारा फसल पर हमला करने के व्यवहार पर शोध किया है। एक पेपर में, जिसमें वह को-ऑथर रही हैं, कहा गया है कि मध्य नेपाल के कावरे जिले के पनौती नगरपालिका के किसानों को बंदरों के हमलों के कारण सालाना 15 डॉलर (उनकी औसत वार्षिक फसल आय का लगभग 5 फीसदी) का नुकसान हो रहा है। 

कोइराला ने कहा, “जो लोग चावल नहीं उगाते हैं, लेकिन केवल मक्का उगाते हैं, उनका कुल नुकसान कुल आय का 10 फीसदी था।” 

नेपाल की सालाना प्रति व्यक्ति आय 2023 में 1,300 डॉलर से थोड़ी ज्यादा है। इसलिए इस तरह के नुकसान को गरीब समुदायों के लिए सहन करना मुश्किल है। 

साथ ही, नेपाल में वर्तमान में बंदरों की आबादी पर ठोस डेटा का अभाव है। इसलिए, यह अनुमान लगाना कठिन है कि समस्या वास्तव में कितनी व्यापक है, भले ही इसके बारे में गरमागरम चर्चा एक व्यापक समस्या की तरफ इशारा करती हो। 

भारत से सबक?

नेपाल की सीमा के दूसरे तरफ, भारतीय हिमालयी राज्य, हिमाचल प्रदेश ने 2006 से 2018 के बीच 160,000 बंदरों की नसबंदी करके इसी तरह की समस्या का समाधान किया। इस साल फरवरी में, नेपाली सांसदों की एक टीम ने वनपालों और पशु चिकित्सकों के साथ इस भारतीय राज्य का दौरा किया ताकि यह समझा जा सके कि क्या यह कारगर रहा है, और यदि हां, तो चुनौतियां क्या रहीं।

नेपाल के वन्यजीव विभाग के प्रवक्ता बेद प्रसाद ढकाल ने कहा, “यह सिर्फ़ एक विकल्प है जिस पर चर्चा की जा रही है, लेकिन नसबंदी बहुत महंगी है क्योंकि बंदरों को पकड़ना और सर्जरी के घाव के ठीक होने तक उन्हें बाड़े में रखना काफी मुश्किल है। मुझे नहीं लगता कि हम इसे वहन कर सकते हैं।”

हिमाचल प्रदेश के वन विभाग की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, रीसस मैकाक की आबादी अब 136,443 है, जो नसबंदी कार्यक्रम शुरू होने के समय 2004 की तुलना में लगभग 33 फीसदी कम है।

हालांकि, इस स्पष्ट सफलता का एक नकारात्मक पहलू भी है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के तहत काम करने वाले भारतीय पशु कल्याण बोर्ड ने इस कार्यक्रम की आलोचना की है, क्योंकि एक टीम ने पाया कि पकड़े गए बंदरों को अक्सर नसबंदी प्रक्रिया के दौरान चोट, भुखमरी, लंबे समय तक कैद में रखने और अन्य दुर्व्यवहारों का सामना करना पड़ता है।

बंदरों को पकड़ना बहुत मुश्किल है, इसलिए बधियाकरण बहुत महंगा है
बेद प्रसाद ढकाल, नेपाल वन्यजीव विभाग के प्रवक्ता

हिमाचल प्रदेश ने भी केंद्र सरकार की अनुमति के बाद 2016 से 2020 तक एक वध कार्यक्रम चलाया, जिसके पास जानवरों को संरक्षित या गैर-संरक्षित के रूप में वर्गीकृत करने का अधिकार है। 2016 में बंदरों को कीट के रूप में वर्गीकृत करने के कदम ने उस समय भारतीय कैबिनेट में वाकयुद्ध छेड़ दिया था। तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने पर्यावरण मंत्री की आलोचना करते हुए कहा कि उनका मंत्रालय “बेगुनाह जानवरों को मारने की अनुमति दे रहा है।”

कितने जानवरों को मारा गया, इसका डेटा सार्वजनिक नहीं किया गया है।

राष्ट्रीय उद्यान और वन्यजीव संरक्षण विभाग के वरिष्ठ नियोजन अधिकारी हरि भद्र आचार्य के अनुसार 2023 में नेपाल भी इसी तरह के कदम पर गंभीरता से विचार कर रहा था। 

उन्होंने डायलॉग अर्थ को बताया कि जंगली सूअर और रीसस मैकाक दोनों को कीटों के रूप में चिह्नित किया जाना था, जिससे उनके वध का रास्ता साफ हो गया था, लेकिन सूअरों को कीटों के रूप में वर्गीकृत किया गया, जबकि बंदरों को नहीं। 

आचार्य ने कहा, “दोनों जानवर मसौदा प्रस्ताव में थे, लेकिन कुछ शीर्ष अधिकारियों को डर था कि धार्मिक मूल्यों के कारण यह परेशानी लाएगा, इसलिए हमें [बंदरों] को सूची से हटाना पड़ा।”

हिंदू समुदाय में कुछ लोग बंदरों को पवित्र मानते हैं, लेकिन इसने अधिकारियों को इनके वध पर विचार करने से नहीं रोका है।

नेपाल के वन्य जीव विभाग के पूर्व महानिदेशक फणींद्र खरेल ने कहा, “वध वन्यजीव प्रबंधन का हिस्सा है और यह अन्य देशों में भी किया गया है। अगर जरूरत पड़ी तो हमें यह करना चाहिए।” 

वनीकरण में विफलता के कारण के बंदरों के हमले 

एक अन्य शोध पत्र, जिसमें कोइराला को-ऑथर रही हैं, के अनुसार, इस बात को मानने के आधार हैं कि नेपाल के सामुदायिक वानिकी कार्यक्रम, मौजूदा रीसस मैकाक-मानव संघर्ष की वजह हो सकते हैं। वानिकी कार्यक्रम ने वनों की कटाई की दर को 1975 में 1.31 फीसदी से घटाकर 2013 में 0.01 फीसदी करने में मदद की, लेकिन इसने मोनोकल्चर लकड़ी के बागानों को भी बढ़ावा दिया।

शोध पत्र में तर्क दिया गया है कि 1930 से 2014 के बीच मूल वनों का 48.6 फीसदी शुद्ध नुकसान हुआ है, जबकि 1.01 वर्ग किमी और 2.02 वर्ग किमी के बीच छोटे वन क्षेत्रों की संख्या 1930 में 6,925 से बढ़कर 2014 में 42,961 हो गई है। वानिकी कार्यक्रम के लिए चुने गए पेड़ों का लकड़ी के रूप में उच्च आर्थिक मूल्य था, लेकिन वे प्राकृतिक जैव विविधता को बहाल नहीं कर पाए। 

यह समझाते हुए कि बंदरों को अब जंगलों के भीतर पर्याप्त भोजन नहीं मिल सकता है, कोइराला का कहना है, “[परिणामस्वरूप], कई खाद्य-प्रदान करने वाली प्रजातियों में कमी आई और नए मोनोकल्चर वनों ने वाणिज्यिक मूल्य पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित किया, जिसने बंदरों को फसल भूमि पर आक्रमण करने के लिए मजबूर किया।” 

ये सामुदायिक वन यानी कम्युनिटी फॉरेस्ट मुख्य रूप से नेपाल की मध्य-पहाड़ियों में हैं, जहां मानव-बंदर संघर्ष बढ़ रहा है। 

लेकिन सामुदायिक वन उपयोगकर्ताओं के संघ के अध्यक्ष ठाकुर भंडारी इस स्पष्टीकरण का विरोध करते हैं। उनका कहना है, “हमारे जंगल विविधतापूर्ण हैं और हमने देश भर में कई फलों [पेड़ों] सहित कई प्रजातियों के पौधे लगाए हैं। सरकार और अन्य एजेंसियां इस संकट को टालने में विफल रहीं और अब वे हम पर उंगली उठा रही हैं।” 

उन्होंने आगे कहा: “यदि आप समस्या का समाधान नहीं कर सकते, तो हमें इससे निपटने का अधिकार दें। हम उनकी आबादी को नियंत्रित करने के लिए चुनिंदा आधार पर उन्हें मारकर कुछ महीनों के भीतर इसका समाधान कर देंगे। समुदाय पीड़ित हैं, लेकिन विशेषज्ञ, नौकरशाह और राजनेता केवल बातें कर रहे हैं।” 

गांवों से पुरुषों के पलायन की वजह से बढ़ी असुरक्षा 

एक और जटिल कारक नेपाल का 1990 के दशक से उच्च प्रवास है। इसमें लोग नौकरियों के लिए विदेश जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन संगठन के 2019 के आंकड़ों से पता चलता है कि विदेश जाने वाले 90 फीसदी से अधिक प्रवासी पुरुष थे और 75 फीसदी से अधिक 15-34 वर्ष की आयु वर्ग के थे। 

कोइराला ने बताया, “बंदर-मानव संघर्ष पहले भी था, लेकिन उन्हें रोकने या खेतों की रखवाली करने के लिए एक मानव बल था।” 

अब खेतों का प्रबंधन करने वाले लोग मुख्य रूप से महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग हैं।

कोइराला का यह भी कहना है कि खेत-आधारित आहार ने बंदरों के व्यवहार को भी बदल दिया है। उन्होंने कहा, “चूंकि वे खेतों में ज्यादा प्रोटीन-आधारित फसलें खाते हैं, जिसके लिए उन्हें ज्यादा ऊर्जा जलाने की जरूरत नहीं होती, इसलिए वे अपनी ऊर्जा प्रजनन में खर्च करते हैं।” इससे बंदरों की आबादी में अनिवार्य रूप से वृद्धि हुई।

नाम न बताने की शर्त पर वन और पर्यावरण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि समस्या का अध्ययन करने और समाधान सुझाने के लिए मंत्रालय में एक समिति बनाई गई है। हालांकि, उन्होंने किसी भी गंभीर कार्रवाई से इनकार किया।

इनका कहना था, “अगर इस समस्या को हल करने का इरादा था, तो यह प्रधानमंत्री और सांसदों के अधीन एक राजनीतिक जनादेश वाली उच्च-स्तरीय समिति होनी चाहिए थी। मंत्रालय द्वारा गठित इस तरह की समिति केवल एक रस्म होगी क्योंकि अन्य मुद्दों पर कई समितियों की कई सिफारिशें धूल खा रही हैं।”

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