प्रकृति

अवैध शिकार और तस्करी पर संयुक्त डेटाबेस की कमी हिम तेंदुए के संरक्षण में बन रही बाधा

बिखरे हुए आंकड़े हिम तेंदुओं को अवैध व्यापार से बचाने के प्रयासों को जटिल बना रहे हैं। उत्तर भारत में उत्तराखंड इसका एक उदाहरण है
<p>एकीकृत अवैध शिकार और तस्करी के आंकड़ों की कमी हिम तेंदुए की रक्षा के प्रयासों में बाधा बन रही है (फोटो: नोबुओ मात्सुमुरा / अलामी)</p>

एकीकृत अवैध शिकार और तस्करी के आंकड़ों की कमी हिम तेंदुए की रक्षा के प्रयासों में बाधा बन रही है (फोटो: नोबुओ मात्सुमुरा / अलामी)

ऊंचे पहाड़ों के बीच अपने ख़ास रंग-रूप के चलते हिम तेंदुए को चिन्हित कर पाना बेहद मुश्किल होता है। इसीलिए ये हिमालयी जीव “माउंटेन घोस्ट” भी कहे जाते हैं। ये समुद्र तल की ऊंचाई से तकरीबन 3000 मीटर ऊपर दुर्गम-बर्फ़ीले और मानव रहित पर्वत श्रृंखलाओं के बीच रहते हैं।

उच्च हिमालयी क्षेत्र में रहने वाले इस खूबसूरत-शर्मीले जीव की एक झलक पाना जितना मुश्किल है, उतना ही कठिन है इनसे जुड़ा डाटा हासिल करना।

हिमालयी क्षेत्रों में हिम तेंदुए के संरक्षण के लिए ग्लोबल स्नो लैपर्ड इकोसिस्टम प्रोटेक्शन प्रोग्राम जैसी परियोजना चल रही है। जिसका उद्देश्य हिम तेंदुओं की मौजूदगी वाले देशों में सरकारों के साथ अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों, समुदाय और निजी क्षेत्रों को संरक्षण के प्रयास से जोड़ना है। इसके बावजूद, हिम तेंदुए से संबंधित अपराध और अवैध शिकार के आंकड़ों को एक जगह इकट्ठा नहीं किया गया है। जबकि भारत में हिम तेंदुओं को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 की अनुसूची-1 के तहत रखा गया है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने इसे vulnerable category में रखा है। यानी, इस श्रेणी के प्रजातियों को विलुप्त होने का खतरा है, जब तक कि इसके अस्तित्व और प्रजनन को खतरे मे डालने वाली परिस्थितियों में सुधार न हो।

उच्च सुरक्षा

हिमालयी क्षेत्र के बर्फीले इलाके में रहने वाले हिम तेंदुए के लिए कोई सरहद या सीमा नहीं है। लेकिन हमारी अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं होने के चलते उत्तराखंड में सेना, सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी), इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (आईटीबीपी) की तैनाती है।

ट्रैफिक इंडिया रिपोर्ट, वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडिया और देहरादून पुलिस से मिली जानकारी, लोकल मीडिया रिपोर्ट्स से मिली सूचनाएं वर्ष 2000 से 2012 के बीच उत्तराखंड में हिम तेंदुओं के कम से कम 10 आपराधिक केस और खाल बरामदगी के मामलों की पुष्टि करती हैं। जबकि उत्तराखंड वन विभाग ने आरटीआई एप्लीकेशन के जवाब में मात्र एक खाल बरामदगी की सूचना साझा की है।

मार्च 2012 में पिथौरागढ़ में एसएसबी ने हिम तेंदुए की खाल बरामद की थी। जबकि दिसंबर 2012 में देहरदून में स्पेशल टास्क फोर्स ने खाल बरामद की थी। कार्रवाई करने वाली एजेंसियां अलग-अलग है। तो इनका डाटा भी अलग-अलग बिखरा हुआ है।

उत्तराखंड में उत्तरकाशी के गंगोत्री नेशनल पार्क, नेलांग घाटी, चमोली के नंदा देवी बायोस्फेयर रिजर्व, पिथौरागढ़ के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हिम तेंदुए की मौजूदगी है। देहरादून में वाइल्ड लाइफ़ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के वैज्ञानिक डॉ एस. सत्या कुमार के मुताबिक उत्तराखंड में 85 हिम तेंदुए की मौजूदगी का अनुमान है। जबकि भारत में इनकी संख्या 450-500 तक हो सकती है। शर्मीले हिमालयी जीव की गणना का कार्य देश में जारी है। जो मार्च 2022 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है।

वन्यजीव व्यापार मार्ग

उत्तराखंड बाघ, तेंदुए, हाथी, कस्तूरी मृग समेत वन्यजीवों के शिकार के लिहाज से बेहद संवेदनशील राज्यों की श्रेणी में आता है। उत्तराखंड वन विभाग ने ट्रैफिक इंडिया के साथ मिलकर राज्य में वन्यजीव अपराध के लिहाज से संवेदनशील हॉटस्पॉट, सोर्स विलेज, लोकल-नेशनल-इंटरनेशनल ट्रांजिट रूट चिन्हित किया है।

snow leopard trafficking routes Uttarakhand India

उत्तरकाशी के गंगोत्री नेशनल पार्क से लगे गांवों को सोर्स विलेज (जहां से शिकार होता हो) चिन्हित किया गया है। जबकि पिथौरागढ़ के लिपुलेख के नज़दीक बसे गांव सोर्स विलेज दिखाए गए हैं। ये दोनों ही क्षेत्र हिम तेंदुए के हैबिटेट के नज़दीक हैं। सर्दियों के मौसम में हिम तेंदुए यहां 2600 मीटर तक की ऊंचाई तक देखे जा चुके हैं।

ट्रैफिक रिपोर्ट में पिथौरागढ़ से लगे चंपावत, ऊधमसिंहनगर, बागेश्वर और उत्तरकाशी से लगे चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी और टिहरी को कलेक्शन साइट चिन्हित किए गए हैं। यहां से देहरादून, हरिद्वार के साथ उत्तर प्रदेश राज्य के बरेली और मुरादाबाद स्थानीय ट्रांजिट प्वाइंट के तौर पर चिन्हित किए गए हैं। इन लोकल ट्रांजिट प्वाइंट से तकरीबन 200 किलोमीटर दूर स्थित दिल्ली नेशनल ट्रांजिट प्वाइंट है।

पिथौरागढ़ का धारचुला, चंपावत और उधमसिंहनगर के साथ उत्तर प्रदेश के बरेली से नेपाल को लगती अंतर्राष्ट्रीय सीमा इंटरनेशनल वाइल्ड लाइफ़ ट्रेड रूट के लिहाज से संवेदनशील हैं।

नेपाल के साथ उत्तराखंड करीब 275 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करता है। जिस पर आवाजाही के 8 औपचारिक रास्ते हैं। लेकिन दोनों देशों के बीच काली नदी सरहद बनाती है। जिसकी कोई पहरेदारी नहीं है।

पिथौरागढ़ पुलिस में एसओ चंदन सिंह बताते हैं कि काली नदी को लोग कहीं से भी टायर-ट्यूब के ज़रिये तैरकर पार कर लेते हैं। इतनी लंबी खुली सीमा की चौकसी संभव नहीं है। ट्रैफिक इंडिया के हेड साकेत बडोला कहते हैं “हिम तेंदुए की टारगेटेड पोचिंग नहीं होती। क्योंकि वो आसानी से नहीं मिलता। लेकिन ऑपरट्यूनिटी किलिंग या व्यापार हो सकता है। सामान्य तेंदुए का शिकार करने वाले को हिम तेंदुए की मौजूदगी का पता लग जाए या उसका शव मिल जाए तो उसकी खाल निकालकर बेचने की कोशिश की। ऐसा पहले हो चुका है”।

गांवों की निगरानी

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बगोरी गांव, जहां हिम तेंदुओं ने पशुओं पर हमला किया है (फोटो: वर्षा सिंह)

उत्तरकाशी का बगोरी गांव मुख्य रूप से भोटिया जनजाति के पशुपालकों का गांव है। यहां के भेड़ पालक गर्मियों के समय अपने पशुओं के साथ चीन सीमा से लगे नेलांग घाटी तक जाते हैं। वर्ष 1962 से पहले नेलांग में भारत-तिब्बत बाज़ार स्थापित करने में बगोरी के ग्रामीणों का भी योगदान रहा।

इसी गांव के पशुपालक राजेंद्र सिंह नेगी वर्ष 1972 से अपने पशु लेकर चीन सीमा के पास नेलंग-जादुंग तक जाते हैं। जून से अगस्त तक नेलांग के आसपास रहने के बाद सितंबर में वे अपनी तकरीबन 400 भेड़-बकरियों को लेकर बगोरी गांव वापस लौटे।

राजेंद्र सिंह बताते हैं “हिम तेंदुए ने कुछ समय पहले गांव के कुछ पशुओं पर हमला किया था। पशुओं पर हमले से ही हमें उसकी मौजूदगी का पता चलता है। उसको देख पाना मुश्किल होता है। उसके शिकार के लिए कोई वहां नहीं जा सकता। जगह-जगह सेना की चेकपोस्ट है। बिना अनुमति लिए नेलंग-जादुंग नहीं जाया जा सकता”। हर्षिल गांव से थोड़ा नीचे सुखी गांव के किसान मोहन सिंह बताते हैं “सर्दियों के समय गांव के उपर के बुग्यालों में हमें हिम तेंदुए की मौजूदगी का एहसास होता है”। लेकिन शिकार पर वो कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। ये जरूर कहते हैं “जंगल पर लोगों की निर्भरता कम करनी है तो उनके रोजगार का बंदोबस्त करना होगा”।

कैमरा ट्रैप

बगोरी से सटे हर्षिल गांव के वन पंचायत सरपंच माधवेंद्र सिंह रावत अनौपचारिक बातचीत में बताते हैं कि गंगोत्री नेशनल पार्क से सटे कुछ गांवों में कैमरा ट्रैप लगाने की कोशिश की गई तो ग्रामीणों ने इससे इंकार कर दिया। ग्रामीणों को अगर कहीं कैमरे दिख जाते हैं तो वे उसे उखाड़कर फेंक देते हैं।

वाइल्ड लाइफ़ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडिया के प्रोग्राम मैनेजर टीटो जोसेफ़ के मुताबिक “उच्च हिमालयी क्षेत्र के गांवों में कैमरा ट्रैप लगाने में दो मुश्किलें हैं। पहली मानव-वन्यजीवस संघर्ष और दूसरी शिकार से जुड़ी हुई”।

“पशुओं पर हमले की स्थिति में ग्रामीणों द्वारा हिम तेंदुए को ज़हर देने के केस हमने देखे हैं। शिकार के मामले में बाहर के शिकारी स्थानीय लोगों से संपर्क करते हैं। बिना स्थानीय व्यक्ति की मदद के कोई बाहरी यहां शिकार नहीं कर सकता”। जोसेफ़ बताते हैं।

“हमने पाया है कि बाहर से आने वाले शिकारी स्थानीय ग्रामीणों से कहते हैं कि अगर इस जानवर को पकड़ सको या उसका शव मिले तो तुम हमें उसकी खाल और नाखून देना, बदले में पैसा मिलेगा। संभव है कि इन वजहों से भी ज्यादातर गांव के लोग कैमरा ट्रैप नहीं लगाने देना चाहते। न ही वे शिकार के बारे में बात करना चाहते हैं। इस पर जानकारी जुटाने के लिए लोकल इंटेलिजेंस डेवलप करना बेहद जरूरी है”।

टीटो जोसेफ़ कहते हैं “वन्यजीवों से जुड़े अवैध व्यापार की पूरी तस्वीर देखें तो बाघ, तेंदुए या हिम तेंदुए के खाल, हड्डी, नाखून और अन्य अंगों की मांग देश के बाहर बनी हुई है। वन्यजीवों का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अवैध व्यापार और बाज़ार मौजूद है। इसलिए हम ऐसा नहीं कह सकते कि हिम तेंदुआ या अन्य वन्यजीव का शिकार नहीं हो रहा है। लेकिन हमारे पास इसका डाटा उपलब्ध नहीं है”। ट्रैफिक इंडिया के साकेत बडोला भी यही बात दोहराते हैं।

सज़ा

टीटो जोसेफ़ कहते हैं “वन्यजीव अपराध के साथ सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि सज़ा बहुत कम मामलों में होती है”।

वाइल्ड लाइफ़ कंजर्वेशन एक्ट के तहत अधिकतम 3 से 7 साल की सजा और 10 हज़ार रुपये तक जुर्माने का प्रावधान है। उत्तराखंड में वर्ष 2000 से अब तक दर्ज मामलों में से सिर्फ एक 2012 के धारचुला केस में ही अभियुक्तों को सजा हुई। लेकिन उच्च अदालत से उन्हें ज़मानत मिल गई।

24 मार्च 2012 को पिथौरागढ़ के धारचुला से हिम तेंदुए की खाल समेत 2 व्यक्ति गिरफ़्तार किए गए। 31 वर्ष के सुखराज दानू और 25 वर्षीय मनोज अगाड़ी को सीमा सुरक्षा बल ने खाल के साथ गिरफ़्तार किया था। पिथौरगाढ़ के डीडीहाट ट्रायल कोर्ट ने दोनों को दोषी पाया था। डीडीहाट अदालत से दोनों को 3 साल की कैद और 10 हज़ार रुपये ज़ुर्माना लगाया गया। हालांकि दोनों ने बाद में पिथौरागढ़ सेशन कोर्ट में अपील की। जहां से उन्हें रिहा कर दिया गया। टीटो जोसेफ़ इस केस के बारे में जानकारी देते हैं।

सेंट्रल डाटाबेस

ऐश्वर्य माहेश्वरी कहते हैं “हमारे पास हिम तेंदुए से जुड़े अपराध के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है। सबसे महत्वपूर्ण अंतर ये है कि ​​हिम तेंदुए के अवैध व्यापार का कोई केंद्रीय डेटाबेस नहीं है”। वह ट्रैफिक इंडिया के साथ लीड रिसर्चर के तौर काम कर चुके हैं। उन्होंने वर्ष 2003 से 2014 के बीच हिम तेंदुए के खाल और अन्य अंगों के अवैध व्यापार पर अध्ययन रिपोर्ट तैयार की थी। जिसे ग्लोबल स्नो लैपर्ड फोरम में पेश किया था। इस समय वह उत्तर प्रदेश में बांदा यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर एंड टेक्नॉलजी में अस्टिटेंट प्रोफेसर के पद पर कम कार्य कर रहे हैं।

माहेश्वरी ने मध्य और दक्षिण एशिया में हिम तेंदुओं की मौजूदगी वाले 12 में से 11 देशों (कज़ाकिस्तान को छोड़कर) में हिम तेंदुए से जुड़े अवैध व्यापार का अध्ययन किया और वर्ष 2003 से 2014 के बीच 439 हिम तेंदुए के अवैध व्यापार को रिपोर्ट किया। जिसका मतलब था कि इस दौरान हिम तेंदुओं की 8.4% से 10.9% आबादी अवैध शिकार के चलते घट गई। इस रिपोर्ट में हिम तेंदुओं की कुल मध्य संख्या 5,240 और न्यूनतम संख्या 4,000 मानी गई। रिपोर्ट में भारत में हिम तेंदुए के शिकार के 7 मामले दर्शाए गए।

माहेश्वरी कहते हैं, “मध्य और दक्षिणी एशिया में हिम तेंदुए की मौजूदगी वाले देश सीआईटीईएस (CITES) के तहत इसकी सुरक्षा के लिए एकजुट हैं।” CITES, वन्यजीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण के लिए की गई एक वैश्विक संधि है। इसमें 180 से अधिक हस्ताक्षरकर्ता देश हैं। ये विलुप्त हो रही प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रतिबंधित करता है। वह कहते हैं “CITES कॉन्फ्रेंस 12.5 (वर्ष 2002 में) के तहत, सभी देशों को हिम तेंदुए से जुड़े अपराध या अवैध व्यापार की सूचना सीआईटीईएस को देना अनिवार्य है। ताकि एक केंद्रीय डेटाबेस बनाए रखा जा सके। इससे हमें हिम तेंदुओं की मौजूदा स्थिति और उससे जुड़े ट्रेंड्स को समझने में मदद मिलेगी”।

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