उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव (महज 302 लोगों की आबादी वाला) ममूरा में रहने वाली 36 साल प्रतिभा देवी कहती हैं, हमारे घर की दीवारें धुएं के कालिख से ढकी हुई हैं और खाना बनाते वक्त मेरी आंखों में जलन होती है।
यूनाइटेड नेशंस इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (यूएनआईडीओ) की ओर से जुलाई, 2014 में जारी एक रिपोर्ट – सभी के लिए टिकाऊ ऊर्जा – के मुताबिक, मुल्क की 1 अरब 30 करोड़ की कुल आबादी में दो-तिहाई से ज्यादा लोग खाना बनाने के लिए कार्बन उत्पन्न करने वाले ईंधन और गोबर से तैयार होने वाले ईंधन का इस्तेमाल करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भोजन बनाने के लिए स्वच्छ ईंधन की कमी से जूझ रही कुल वैश्विक आबादी में आधे से ज्यादा लोग भारत, बांग्लादेश और चीन में हैं। अपने लोगों को खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन न उपलब्ध करा पाने वाले देशों की सूची में भारत शीर्ष पर है।
चिकित्सा विशेषज्ञ कहते हैं कि स्वच्छ ईंधन के स्रोत न होने के चलते लोग इस तरह के सस्ते ईंधन का इस्तेमाल करते हैं जिससे मानव स्वास्थ्य, खासकर घर की महिलाओं और बच्चों के सेहत को गंभीर रूप से नुकसान हो रहा है।
दिल्ली के एक फेफड़ा रोग विशेषज्ञ प्रतीक कामराज बताते हैं कि इस तरह के ठोस ईंधन को जलाने से बहुत उच्च स्तर का आंतरिक वायु प्रदूषण होता है। वह कहते हैं, चूंकि खाना पकाने का काम रोजाना होता है और ज्यादातर लोग ठोस ईंधन का इस्तेमाल करते हैं, इससे निकलने वाले धुएं के कण का स्तर बाह्य वायु प्रदूषण की स्वीकार्य सालाना सीमा से काफी ज्यादा हैं।
महामारी विज्ञान संबंधी अध्ययनों में स्पष्ट तौर पर यह बात सामने आई है कि वायु प्रदूषण का दिल संबंधी बीमारियों व दिल के दौरे से सीधा संबंध है। वैसे सबसे परेशान करने वाली बात यह है कि व्यक्ति अकसर अपने ही घर में होने वाले वायु प्रदूषण का शिकार बनता है।
बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में ग्लोबल एनवायरनमेंट हेल्थ के प्रोफेसर रिक स्मिथ ने 1970 के दशक से लकड़ी, कोयला, उपले जैसे ठोस ईंधन से घर के भीतर भोजन बनाने के प्रभावों का अध्ययन किया है। इन्होंने किसी रसोईघर में इस तरह के ईंधन से होने वाले प्रदूषण को प्रति घंटे 400 सिगरेट जलने से होने वाले प्रदूषण के बराबर बताया है।
इस साल मार्च में जारी हुई द वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन हाउसहोल्ड एयर पॉल्यूशन एंड हेल्थ रिपोर्ट में कहा गया है कि पांच साल से कम आयु वाले बच्चों की होने वाली असामयिक मृत्यु में 50 फीसदी से ज्यादा निमोनिया के कारण होती है। घरों में होने वाले वायु प्रदूषण के कारण उत्पन्न कालिख सांस के जरिये बच्चों के अंदर पहुंच जाता है, यह निमोनिया का सबसे बड़ा कारण है।
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि हर साल 38 लाख से ज्यादा असामयिक मौतें, असंक्रामक रोगों जैसे दिल का दौरा पड़ने, स्कीमिक हर्ट डिजीज, फेफड़ों में दीर्घकालिक अवरोध पैदा करने वाली बीमारियों, फेफड़े के कैंसर के कारण होती हैं। इन बीमारियों की सबसे बड़ी वजह घरों के भीतर होने वाला वायु प्रदूषण है।
यूएनआईडीओ की रिपोर्ट के अनुसार, पर्याप्त और सस्ती ऊर्जा उपलब्ध कराने के मामले में भारत को काफी चुनौतीपूर्ण हालात से जूझना पड़ रहा है। मोटे तौर पर भारत के ग्रामीण इलाकों में तकरीबन 85 फीसदी आबादी खाना पकाने के लिए परंपरागत ईंधन का इस्तेमाल कर रही है। साथ ही तकरीबन 45 फीसदी ग्रामीण आबादी को बिजली नसीब नहीं है।
पर्यावरणविदों का कहना है कि देश के एक बहुत बड़े हिस्से में कार्बन उत्पन्न करने वाले ईंधनों का लगातार इस्तेमाल वास्तव में बेहद चिंता का विषय है। शरित भौमिक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई में नेशनल फेलो हैं। उन्होंने इस विषय पर भारत के गांवों में काफी व्यापक काम किया है। वह बताते हैं, जब संसाधनों का दोहन समावेशी तरीके से नहीं हो रहा है और ऊर्जा रूपांतरण की तकनीकें अपर्याप्त हैं, ऐसे में ये सब पर्यावरण, स्वास्थ्य और राष्ट्र की आर्थिक तरक्की के लिए गंभीर रूप से विपरीत हालात पैदा कर रहे हैं।
भौमिक कहते हैं, ग्रामीण इलाकों में महिलाएं अपना कीमती समय और प्रयास बच्चों की शिक्षा और आय उत्पन्न करने वाली संभावनाओं पर खर्च करने के बजाय ईंधन इकट्ठा करने पर लगाती हैं।
नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवॉयरनमेंट की अरुणा कुमारन कंदाथ ने महाराष्ट्र के गांवों में घर के अंदर होने वाले प्रदूषण पर शोध किया है। उनके अनुसार कुछ बेहद मजूबत मान्यताओं के कारण इस समस्या का समाधान काफी कठिन हो गया है।
वह कहती हैं, ज्यादातर गांववालों का मानना है कि जब गाय का गोबर आसानी से और मुफ्त मिल जाता है तो वे रसोई गैस कनेक्शन और गैस स्टोव खरीदने के लिए पैसे क्यों खर्च करें। इसके अलावा चूंकि खाना पकाना और इसके लिए ईंधन इकट्ठा करना महिलाओं का काम है इसलिए पुरुष इसको लेकर पैसे लगाने में रुचि नहीं दिखाते।
विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारी स्थानीय निकायों और स्वयं सेवी संस्थाओं की सक्रिय भागीदारी के जरिये प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता को कम करके इस समस्या का हल निकाला जा सकता है।
इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट की तरफ से देश के पूर्वी राज्य ओडिशा में की गई एक पहल इस मामले में अच्छा उदाहरण पेश करती है। इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट, स्थानीय महिलाओं की सेहत में सुधार के उद्देश्य से उन्हें बिना धुएं वाले स्टोव के इस्तेमाल योग्य बनाकर प्राकृतिक संसाधनों पर उनकी निर्भरता को कम करने के लिए 2004 से ओडिशा जनजाति सशक्तीकरण एवं जीविका कार्यक्रम को सहयोग दे रही है। यह कार्यक्रम राज्य के सात जिलों में जनजातीय आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा और जीविका संवर्धन के एक बड़ी पहल का हिस्सा है।
इसी तरह, पूर्वोत्तर के राज्य त्रिपुरा में एक अन्य एनजीओ – आदिवासी महिला समिति – बिना धुएं वाले स्टोव के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने के लिए काम कर रहा है। इस एनजीओ के एक कार्यक्रम अधिकारी का कहना है कि जंगलों को काटने की तुलना में यह सस्ता है।
पारिस्थितिकीविद् मीना कपाही ने अपनी रिपोर्ट – आंतरिक वायु प्रदूषण : स्रोत, स्वास्थ्य पर प्रभाव और इसके शमन की रणनीतियां – में लिखा है, घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण उच्च स्तर तक अस्वस्थता और मृत्यु का कारण है। इसके प्रभाव से बचने के लिए आम लोगों और नीति निर्माताओं को तत्काल प्रभाव से हस्तक्षेप करना चाहिए।
कपाही का कहना है, इस तरह के ईंधन के इस्तेमाल से मोतियाबिंद और गर्भ संबंधी प्रतिकूल नतीजों मसलन जन्म के समय बच्चे का वजन कम होने और मृत शिशु का जन्म होने जैसी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं।
कंदाथ कहती हैं कि ऐसे लोग जो कि लंबे समय तक घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण के चपेट में रहे हैं वे आंतरिक वायु प्रदूषण के प्रभावों से काफी ज्यादा संवेदनशील रहते हैं। भौमिक के अनुसार घर के भीतर होने वाले वायु प्रदूषण के चलते फैल रही बीमारियों की रोकथाम और इस समस्या को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए लोगों और नीति-निर्माताओं को शिक्षित और जागरूक करना सबसे अहम कदम साबित हो सकता है।
घर के भीतर के वायु प्रदूषकों द्वारा वास्तविक खतरे संबंधी आंकड़ों को व्यवस्थित तरीके से इकट्ठा किया जाना चाहिए और आंतरिक प्रदूषकों को कम करने के लिए लोगों को जागरूक करने वाले अभियान चलाए जाने चाहिए।
विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि घर के भीतर होने वाले वायु प्रदूषण की समस्या को हल करने से हम संयुक्त राष्ट्र द्वारा लक्ष्यित मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स (एमडीजी) को भी हासिल कर सकते हैं।
दुनिया को ज्यादा सम्पन्न और न्यायसंगत बनाने के उद्देश्य से इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए दुनिया के सभी देशों और सभी प्रमुख विकास संगठनों ने सहमति जताई थी और उसी के आधार पर एक खाका तैयार किया गया था।
घर के भीतर होने वाले प्रदूषण की समस्या को हल करने से हम एमडीजी 4 (शिशु मृत्यु दर में कमी) और एमडीजी 5 (मानसिक स्वास्थ्य में सुधार) के साथ-साथ एमडीजी 3 (लैंगिक समानता को बढ़ाने) संबंधी लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं।
अगर हम खाना पकाने के लिए टिकाऊ और स्वच्छ ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति कर दें तो महिलाओं के समय का इस्तेमाल आय के दूसरे साधनों में हो सकेगा इससे हम घोर गरीबी और भुखमरी को खत्म करने के लक्ष्य (एमडीजी 1) को हासिल कर सकेंगे। आखिरकार, घर के अंदर स्वच्छ ऊर्जा से पर्यावरणीय स्थिरता को सुनिश्चित करने (एमडीजी 7) में मदद मिलेगी। अपनी बात को समाप्त करते हुए भौमिक कहते हैं, ये सबसे बेहतरीन हालात होंगे।