एक तरफ, दुनिया भर के प्रतिनिधि कॉप26 बातचीत में संलग्न हैं, दूसरी तरफ, दक्षिण एशिया, वायु प्रदूषण की मोटी चादर से ढका हुआ है। कुछ अन्य उदाहरण, वैश्विक महत्वाकांक्षाओं और स्थानीय चुनौतियों के बीच की दूरी को इतना स्पष्ट रूप से दिखाते हैं, जिससे पता चलता है कि पर्यावरणीय मुद्दों पर क्षेत्रीय सहयोग की कमी के कारण प्रगति की संभावना कम हो रही है।
नई दिल्ली में, रोशनी के त्योहार दीवाली पर आतिशबाजी से होने वाले वार्षिक अतिरिक्त प्रदूषण ने प्रदूषण को खतरनाक ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया। वैसे तो, भारत की राजधानी सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करती है लेकिन यह समस्या व्यापक है।
उत्तर पश्चिमी पाकिस्तान से लेकर उत्तर भारत के रास्ते बांग्लादेश तक का एक विशाल भू-आबद्ध क्षेत्र, अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण इस समस्या से पीड़ित है। साल के ज्यादातर वक्त, गर्म हवाएं उठती हैं और मैदानी इलाकों से प्रदूषण आता है। लेकिन सर्दियों में, हिमालय की ऊंची, ठंडी पर्वतमालाओं से घिरे निचले इलाकों में पृथ्वी की सतह के पास हवा जल्दी ठंडी हो जाती है। इन स्थितियों को शीतकालीन उत्क्रमण कहा जाता है, जो जमीन के पास ठंडी हवा को फंसा देती हैं, जहां यह स्थिर हो जाती है। इस तरह, उद्योग, निर्माण और परिवहन से निकले प्रदूषक फैल नहीं पाते और पूरे क्षेत्र में हवा जहरीली हो जाती है।
स्थानीय अधिकारियों ने इस संकट को लेकर ताबड़तोड़ कदम उठाएं हैं। पाकिस्तान के शहरों में कचरे और पत्तियों को जलाने पर प्रतिबंध लगाने के साथ ईंट भट्टों को बंद करने के प्रयास किये जा रहे हैं। देश के सभी बड़े शहरों में हवा की गुणवत्ता अस्वस्थ करने वाली है। इन शहरों में, खासकर झेलम और सतलुज नदियों के बीच के क्षेत्र में, जिसमें लाहौर, मुल्तान, फैसलाबाद, रावलपिंडी और गुजरांवाला, शामिल हैं।
भारत में हाल के वर्षों में, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र ने एक ‘ग्रेडेड रेस्पांस एक्शन प्लान’ अपनाया है, जो तब शुरू होता है जब हवा की गुणवत्ता एक निश्चित सीमा से नीचे चली जाती है। काठमांडू और नई दिल्ली के साथ-साथ उनसे सटे शहरों में तो पिछले कुछ वर्षों में स्वास्थ्य आपात स्थिति घोषित कर दी जाती है। स्कूलों और संस्थानों को बंद कर दिया जाता है। अलर्ट जारी कर दिया जाता है।
दक्षिण एशिया की जहरीली हवा के निपटने के लिए टुकड़ों में हो रहे प्रयास
दक्षिण एशिया में गंभीर वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के अधिकांश प्रयास टुकड़ों में किए गए हैं। कोई समन्वित प्रयास नहीं हुए हैं। यह समस्या व्यापक है। पृथ्वी के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक में, प्रांतीय और राष्ट्रीय सीमाओं से परे, कई शहर और असंख्य लोग इससे प्रभावित हैं।
विशेषज्ञों ने बताया कि समस्या बहुत बड़ी है और इससे निपटने के लिए अब तक किए जा रहे उपाय बहुत स्थानीय हैं, इससे लोगों में वायु प्रदूषण से होने वाला खतरा बढ़ता जा रहा है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउनटेन डेवलपमेंट में वायुमंडलीय वैज्ञानिक रह चुके और नेपाल में योजना आयोग के सलाहकार अर्निको पांडे कहते हैं, “वायु गुणवत्ता को स्वास्थ्य के लिहाज से नुकसानदेय सीमा से नीचे रखने के लिए विस्तृत समझ की आवश्यकता है। यह जानना जरूरी है कि प्रदूषक, सीमाओं के पार कब और कैसे बहते हैं और कब और कैसे क्षेत्रीय रूप से समन्वित अस्थायी उत्सर्जन में कमी करते हैं।”
पांडे कहते हैं, “इसके लिए रीजनल मॉडलिंग की आवश्यकता है। सीमाओं से परे इस क्षेत्र में वायु प्रदूषण के प्रभाव को कम करने के लिए घरेलू उत्सर्जन में कमी की इच्छाशक्ति और पूरे क्षेत्र के आंकड़ों के उपलब्धता की जरूरत है।”
हमें एक व्यापक क्षेत्रीय योजना की आवश्यकता हैअनुमिता रॉयचौधरी, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट
पाकिस्तान में वायु गुणवत्ता विशेषज्ञ डावर बट कहते हैं, “क्षेत्र में उत्सर्जन को कम करने के व्यापक लक्ष्य को एक समन्वित दृष्टिकोण का पालन करना चाहिए।” बट कहते हैं कि देशों के भीतर, राज्य या प्रांतीय स्तर पर अनेक नीतिगत आयाम हैं, जिससे – उनकी विकसित प्रकृति के कारण – टुकड़ों में या प्रासंगिक हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है। इनमें औद्योगिक संपत्ति नियम, थर्मल पावर उत्सर्जन मानक, पेट्रोलियम गुणवत्ता मानक, वाहन इंजन विनिर्देश इत्यादि शामिल हैं।
बट कहते हैं, शुरुआत में कम से कम, “बहुपक्षीय स्तर पर एक गैर-बाध्यकारी, विश्वास-आधारित सहयोग की आवश्यकता है, जो क्षेत्रीय लक्ष्यों पर सहमत हो, और संघीय सरकारें तब मध्य से लंबी अवधि की कार्य योजनाओं को डिजाइन करने में प्रांतों का नेतृत्व करने की दिशा में काम करें, जो उन्हें आगे लागू करें।
नई दिल्ली स्थित एडवोकेसी ग्रुप सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की कार्यकारी निदेशक अनुमिता रॉयचौधरी कहती हैं कि सेटेलाइट इमेज और उभरते वैज्ञानिक साक्ष्य, भारत और दक्षिण एशिया के आसमान में फैले प्रदूषण को दिखाते हैं।
एक भौगोलिक क्षेत्र, जो हवा के एक सामान्य प्रवाह को साझा करता है, जो इसके भीतर बड़े पैमाने पर फैलता है।
रॉयचौधरी कहती हैं कि भारत को वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए एक नियामक क्षेत्रीय ढांचे की जरूरत है, ताकि राज्यों में प्रदूषकों के क्षेत्रीय प्रवाह के ट्रांसबाउंड्री और अपविंड व डाउनविंड प्रभावों को नियंत्रित किया जा सके। वह कहती हैं, “जब पूरा क्षेत्र धुंध की चादर में ढका होता है, तो न केवल बड़े शहर बल्कि छोटे शहरी केंद्र भी प्रभावित होते हैं। इससे पता चलता है कि पूरे क्षेत्र में बड़े पैमाने पर सफाई की जरूरत है।”
दक्षिण एशिया में वायु प्रदूषण एक बड़ी समस्या
पांडे कहते हैं, वर्ष के इस समय में, दक्षिण एशिया में, वायु प्रदूषण की प्रकृति अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग तरह की होती है। उदाहरण के लिए, काठमांडू की वायु गुणवत्ता “बाहरी स्रोतों से अत्यधिक प्रभावित होती है, जैसे कि खेतों में फसल अवशेषों को जलाना, जो दृश्यता को 2-3 किमी तक कम कर सकता है। जबकि अगर इन दिनों में केवल स्थानीय स्रोत मौजूद रहें तो पहाड़ चमकदार और स्पष्ट नजर आएंगे। नवंबर 2020 में प्रकाशित विश्व बैंक के एक आकलन ने दक्षिण एशिया में उच्च पीएम 2.5 सांद्रता वाले कई महत्वपूर्ण एयरशेड की पहचान की। इनमें पश्चिम-मध्य इंडो-गैगनेटिक प्लेन शामिल है जो पाकिस्तान में फैला हुआ है और मध्य-पूर्व इंडो-गैगनेटिक प्लेन शामिल है जो नेपाल और बांग्लादेश तक फैला हुआ है।
पीएम 2.5 का मतलब 2.5 माइक्रोन से कम से है। इस प्रकार के प्रदूषण को सबसे खतरनाक माना जाता है क्योंकि इन कणों की सूक्ष्मता का मतलब है कि वे आसानी से शरीर और रक्त में प्रवेश कर सकते हैं। जलने वाले पदार्थ से बड़ी मात्रा में पीएम 2.5 बनता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि विशेष रूप से जब हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में फसल अवशेष जलाने की मौसमी समस्या की बात आती है तो नीतिगत स्तर पर, पारंपरिक कानूनी दृष्टिकोण, राज्य, शहर या नगरपालिका क्षेत्रों की सीमाओं के भीतर ही सीमित रहते हैं, जो कि पर्याप्त नहीं हैं। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की भी यही स्थिति है। ये स्थितियां प्रदूषण में भारी वृद्धि करती हैं।
बट कहते हैं पाकिस्तान के पोथोहर (उत्तरी पंजाब) पठारी क्षेत्र में पराली के लिए एक बाजार है। इसी तरह, पराली का उपयोग कुटीर उद्योग के साथ-साथ जैव ईंधन निर्माण में भी किया जा सकता है। यदि हम पराली के मूल्य के लिए सही मूल्य निर्धारण कर सकते हैं, तो यह अपने स्वयं के समाशोधन के साथ भुगतान के लिए भी पर्याप्त हो सकता है। भारत में, दिल्ली के आसपास ग्रामीण क्षेत्रों में, बायोकेमिकल्स को जलाने पर प्रतिबंध है। पंजाब और हरियाणा में जैव ईंधन के रूप में जमा हुए पराली के लिए एक बाजार उभर रहा है। हालांकि, प्रभावित राज्यों के बीच समन्वय की कमी ने प्रयासों को बाधित किया है।
एयरशेड प्रबंधन के विज्ञान को भी विकसित करने की आवश्यकता है। रॉयचौधरी कहती हैं कि हवा के ऊपर और नीचे की गति और क्षेत्र में प्रदूषण के बाद के प्रभाव को समझने के लिए इसे और विकसित करना होगा। तभी हम “वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए एक क्षेत्रीय ढांचा बनाने” की उम्मीद कर सकते हैं।
पांडे कहते हैं कि आईसीआईएमओडी [द् इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट] और सार्क [दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन] जैसे क्षेत्रीय संस्थानों को मजबूत करने और उन्हें विज्ञान की आवाज बनने के लिए सशक्त बनाने की आवश्यकता है।
करने की तुलना में ऐसा कहना आसान है। वायु प्रदूषण संकट से निपटने के लिए सीमा पार क्षेत्रीय सहयोग की वास्तविक संभावनाएं क्या हैं? अगर विशेषज्ञों की माने तो बहुत अच्छा नहीं है।
राजनीतिक बाधाएं
बट कहते हैं, “दक्षिण एशिया क्षेत्र, अभी भी राजनीतिक संकटों से जूझ रहा है, जो सांस्कृतिक से लेकर नीति सहयोग तक हर चीज को प्रभावित करता है। क्षेत्रीय रूप से हम आगे नहीं बढ़ रहे हैं क्योंकि अनुसरण करने का कोई उदाहरण नहीं हैं। कुछ नीतिगत हस्तक्षेप, विशिष्ट जरूरतों को समझे बिना अपनाए गए हैं और इसलिए काफी हद तक असफल या अप्रभावी रहे हैं।”
इस विषय पर पांडे की प्रतिक्रिया और भी तीखी है। वह कहते हैं कि इस क्षेत्र के नेता राजनीतिक कट्टरता में फंस गए हैं। लोगों को जागरूक होकर ऐसे नेताओं को चुनने की जरूरत है जो छोटे भू-राजनीतिक खेल खेलने की जगह दीर्घकालिक भलाई से जुड़े मुद्दों जैसे जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण पर ध्यान केंद्रित कर सकें।
रॉयचौधरी का कहना है कि सीमा से परे वायु प्रदूषण जैसे हालात से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, कनवेंशन ऑन लॉन्ग-रेंज ट्रांसबाउंड्री एयर पलूशन जैसी अंतर-सरकारी संधियां और समझौते अस्तित्व में हैं।
वायु प्रदूषण अब केवल एक राजनीतिक मुद्दा नहीं है, बल्कि एक मानवाधिकार मुद्दा भी हैडावर बट, वायु गुणवत्ता विशेषज्ञ
वह कहती हैं कि देशों के भीतर भी, विकसित देशों में, कई अलग-अलग राज्यों के अधिकार क्षेत्र, क्षेत्रीय वायु गुणवत्ता आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बाध्य हैं। यूरोप में, सदस्य राज्य 1979 में अपनाई गई कनवेंशन ऑन लॉन्ग-रेंज ट्रांसबाउंड्री एयर पलूशन के तहत अंतर्राष्ट्रीय वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए मिलकर काम करते हैं। ये अंतरराष्ट्रीय समझौते हैं जो गैर-बाध्यकारी, सक्षम और लचीले तंत्र पर आधारित हैं। दक्षिण एशियाई देश, अपने प्रयासों से सबक ले सकते हैं।
रॉयचौधरी का कहना है कि दक्षिण एशिया में वायु प्रदूषण संकट की भयावहता को देखते हुए, पारस्परिक रूप से सहमत कार्य योजनाओं के आधार पर क्षेत्रीय सहयोग और दायित्वों के ढांचे का समय आ गया है, जिसमें पर्याप्त संसाधन समर्थन के साथ लक्ष्य शामिल हैं। हमें एक व्यापक क्षेत्रीय योजना की आवश्यकता है।
एयरशेड दृष्टिकोण
बट कहते हैं कि इतना स्पष्ट है कि इन देशों में नीति निर्माताओं को एक एयरशेड दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। इन देशों में शोधकर्ताओं और नागरिक समाज द्वारा सक्रियता और पैरवी के वर्षों के बाद, नीति निर्माताओं के बीच एक सीमित समझ मौजूद है। लेकिन उत्सर्जन-नियंत्रण नीतियों के कथित आर्थिक प्रभाव के कारण वायु प्रदूषण को एक महत्वपूर्ण विषय नहीं माना जाता है। इसलिए इसको राजनीतिक पूंजी खर्च करने लायक नहीं माना जाता।
वह कहते हैं कि केवल जागरूकता से इस समस्या का हल नहीं निकल सकता। इसके लिए सहयोगात्मक सुधारों के ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें तकनीकी समझ के साथ राजनीतिक लागत प्रबंधन के तरीके भी हों।
बट कहते हैं कि पंजाब से दिल्ली तक के क्षेत्र पर इसका सबसे अधिक प्रभाव है। यह क्षेत्र पृथ्वी पर सबसे अधिक आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है। इसलिए, यह अब केवल एक राजनीतिक नहीं, बल्कि एक मानवाधिकार का मुद्दा भी है।
रॉयचौधरी का कहना है कि बढ़ते वायु प्रदूषण और सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट को देखते हुए निश्चित रूप से क्षेत्रीय प्रदूषण को कम करने के लिए एक मजबूत क्षेत्रीय ढांचे की जरूरत है। द् स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2020 [रिपोर्ट] से पता चलता है कि दक्षिण एशिया, दुनिया में सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में से एक है।