जल संसाधनों पर, 3 अगस्त को जारी, भारतीय संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट पानी के मुद्दों को नदी घाटियों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय संधियों के नजरिये से देखती है। समिति ने मुख्य रूप से बाढ़ पर ध्यान केंद्रित किया, जिसमें राष्ट्रीय महत्व का एक मुद्दा, अक्टूबर के मध्य में बाढ़ से तबाह हुए केरल का भी शामिल रहा, जहां इसकी वजह दर्जनों लोग मारे जा चुके हैं।
फिर भी, समिति ने राजनीतिक सीमाओं से परे दो नदी घाटियों को देखते हुए एक व्यापक परिप्रेक्ष्य पर बात की है। यह पहला है। रिपोर्ट निचले सदन (लोकसभा) और उच्च सदन (राज्यसभा) के संसद सदस्यों के मन में सबसे ऊपर के मुद्दों पर एक दुर्लभ अंतर्दृष्टि प्रदान करती है, लेकिन साथ ही साथ, कई मुद्दों की स्पष्ट चूक भी नजर आती है।
नदी घाटियां जो शामिल हैं और जिन्हें शामिल नहीं किया गया है
बाढ़ पर ध्यान केंद्रित करने वाली जल संसाधनों पर यह विशेष स्थायी समिति 2019-20 में गठित की गई थी, लेकिन निर्धारित अवधि में अपनी रिपोर्ट नहीं दे सकी। जब समिति 2020-21 के लिए पुनर्गठित हुई, तो इसने “जल संसाधन प्रबंधन के क्षेत्र में, अंतर्राष्ट्रीय जल संधियों, चीन, पाकिस्तान और भूटान के साथ संधि/समझौते को विशेष संदर्भ के रूप में, अपने दायरे में जोड़ा। वैसे तो दायरे में जोड़े गए बिंदु अस्पष्ट हैं लेकिन रिपोर्ट का दृष्टिकोण व्यापक है। यह बाढ़ को न केवल एक स्थानीय मुद्दे के रूप में देखता है, बल्कि नदी घाटियों में परिवर्तन से प्रभावित भी मानता है। यह एक सकारात्मक संकेत है; यह बाढ़ की स्थानीय समस्या से निपटने के व्यापक दृष्टिकोण को इंगित करता है, जिसमें नदियां और सीमावर्ती मुद्दे भी शामिल हैं।
बहरहाल, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इसकी शुरुआत कितनी संकीर्ण है। जिस देश के साथ भारत, सबसे अधिक नदियों को साझा करता है, वह बांग्लादेश है और उसका उल्लेख भी नहीं है। भारत अपने डाउनस्ट्रीम पड़ोसी के साथ 54 नदियों को साझा करता है, और सबसे महत्वपूर्ण नदी प्रबंधन संधि – पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि (1960) के बाद – गंगा नदी संधि (1996) है।
जबकि पहले इस पर विस्तार से चर्चा की गई है, जिसमें इससे बाहर निकलने की कोई स्पष्ट बात भी नहीं है, भले ही यह 2026 में समाप्त होने वाला हो। ये सभी 54 नदियां, भारत से बांग्लादेश में बहती हैं। यह एक चूक को दर्शाती है। डाउनस्ट्रीम देश में बाढ़ का सीधा असर भारतीय मतदाताओं पर नहीं पड़ता है।
सबसे अधिक चौंकाने वाली बात नेपाल का बहिष्कार है। यह वास्तव में अजीब है क्योंकि संसदीय स्थायी समिति की बैठकों की मिनट्स ऑफ मीटिंग्स में इस पर चर्चा की जाती है। 17 नवंबर, 2020 की बैठक का विषय ” नेपाल, चीन, पाकिस्तान और भूटान के साथ विशेष संदर्भ वाली संधि/समझौते के साथ, जल संसाधन प्रबंधन/बाढ़ नियंत्रण के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय जल संधियों के साथ, देश में बाढ़ प्रबंधन” रहा।
यह देखते हुए कि बिहार में बाढ़ एक वार्षिक गाथा है, जिसमें जीवन और संपत्ति का भारी नुकसान होता है, और यह राज्य नेपाल के नीचे है, जिसके साथ भारत दशकों से बाढ़ नियंत्रण उपायों पर सहयोग कर रहा है, यह स्पष्ट है कि नेपाल को शामिल किया जाना चाहिए था। यह स्पष्ट नहीं है कि अंतिम रिपोर्ट के शीर्षक में इसे क्यों शामिल नहीं किया गया।
तटबंधों का एक क्षतिग्रस्त इतिहास
जल शक्ति मंत्रालय के संकेतों के अनुसार नेपाल के बहिष्कार के पीछे का कारण बाढ़ और नौकरशाहों द्वारा सुझाए गये समाधान हो सकते हैं।
मंत्रालय बाढ़ के आठ कारणों की पहचान करता है, उनमें से कुछ जलवायु परिवर्तन से बढ़ गए हैं:
- कम अवधि में उच्च तीव्रता की वर्षा
- खराब या अपर्याप्त जल निकासी/चैनल क्षमता
- नदियों में उच्च गाद का भार
- नदी क्षेत्रों का अतिक्रमण
- वनों की कटाई / वाटरशेड गिरावट
- आर्द्रभूमियों की हानि/विनाश
- अनियोजित जलाशय विनियमन
- हिमपात और हिमनद झील का विस्फोट
यह सांसदों को चार मुख्य सिफारिशें करता है: बाढ़ के मैदानों की ज़ोनिंग, जिसमें नदियों के पास बुनियादी ढांचे का निर्माण किया जा सकता है; बांधों और जलाशयों का निर्माण; तटबंध और नदियों को आपस में जोड़ने सहित अंतर्राज्यीय सहयोग।
बाढ़ क्षेत्र की जोनिंग के मामले में राज्य सरकारों, विशेषकर बिहार की विफलता से अधिकारियों की हताशा स्पष्ट है। यह जल शक्ति मंत्रालय के एक सदस्य द्वारा संसदीय स्थायी समिति की एक टिप्पणी द्वारा सबसे स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है: “बाढ़ के मैदानों की ज़ोनिंग एक अवधारणा है जो बाढ़ प्रबंधन के लिए केंद्रीय है। जब भी वास्तव में बाढ़ आती है, तो नुकसान को कम किया जा सकता है, अगर इसे टाला नहीं जा सकता है। यद्यपि इस दृष्टिकोण को आमतौर पर सैद्धांतिक रूप से सभी द्वारा समर्थन किया जाता है, वास्तविक व्यवहार में इस पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है, जिससे बाढ़ से होने वाले नुकसान में वृद्धि होती है।”
मंत्रालय अपनी अन्य तीन सिफारिशों पर ध्यान केंद्रित करता है। यह तटबंधों के दशकों के निर्माण के बावजूद लोगों को बाढ़ से बचाने में तटबंधों की विफलता को पूरी तरह से अनदेखा करता है। बिहार में 3,800 किलोमीटर के तटबंध हैं, और अभी भी बाढ़ से तबाही है। कोसी पर नेपाल के साथ सहयोग का इतिहास, विफलता, सीमा के दोनों ओर आक्रोश और जमीन पर लोगों के लिए स्थायी दुख का है।
अपने श्रेय के लिए, संसदीय स्थायी समिति के सांसदों ने बाढ़ से निपटने के लिए व्यापक दायरे की आवश्यकता पर जोर देते हुए कहा, “समिति का विचार है कि बाढ़ की समस्या से निपटने के लिए एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने का यह सही समय है। मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए जलग्रहण वाले क्षेत्रों में प्राकृतिक वनस्पतियों और मिट्टी के आवरणों को पुनर्जीवित और संरक्षित करने जैसी बहु-आयामी रणनीति शामिल किया जाए, उन कृषि विधियों को प्रोत्साहित किया जाए, जो बाढ़ का सबसे अच्छा उपयोग करते हैं, जैसे भूजल स्तर को रिचार्ज करना और वर्षा जल का बेहतर स्त्राव सुनिश्चित करना।
बड़े बांध के निर्माण जैसी कोई भी महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू करने से पहले, पर्यावरण और पारिस्थितिकी के साथ-साथ नदी के प्रवाह पर प्रभाव का आकलन करने के लिए एक उचित अध्ययन किया जाना चाहिए।
जल संसाधनों पर भारतीय संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट
फिर भी, यह ध्यान देने योग्य है कि स्थायी समिति ने, न तो किसी स्वतंत्र पर्यावरणविद् और न ही पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की राय मांगी। इसने केवल जल शक्ति मंत्रालय, विदेश मंत्रालय और असम और केरल की राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों से लोगों को बुलाया। सांसदों को बताया गया कि केरल में बाढ़ से निपटने की मुख्य समस्या पर्यावरण मंत्रालय द्वारा बांध परियोजनाओं के लिए मंजूरी की धीमी गति है। उन्होंने फिर भी मंत्रालय से किसी को नहीं बुलाया। लेकिन राजनेता स्पष्ट रूप से विस्थापन और पर्यावरण विनाश के कारण हुए विरोध प्रदर्शनों से अवगत हैं। जब अधिकारियों ने अरुणाचल प्रदेश में रन-ऑफ-द-रिवर हाइड्रोइलेक्ट्रिक बांधों के साथ जलाशय बनाने के लिए तर्क दिया और दावा किया कि इससे बाढ़ का प्रबंधन करने में मदद मिलेगी, तो समिति ने पर्यावरण आकलन की आवश्यकता पर जोर देते हुए सावधानी के साथ जवाब दिया।
हो सकता है कि पर्यावरणीय आकलन में सबसे महत्वपूर्ण चूक नाजुक हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र में बांधों के आकलन की कमी है। रिपोर्ट में “फ्लैश फ्लड, क्लाउड बर्स्ट एंड ग्लेशियल आउटबर्स्ट एंड लैंडस्लाइड्स” पर एक सेक्शन है। इसमें फरवरी 2021 में चमोली आपदा का उल्लेख है, जब एक बड़े पैमाने पर चट्टान और बर्फ गिरने से अचानक बाढ़ आ गई थी। इसमें अधिकांश मौतें और क्षति, अधूरी पनबिजली परियोजनाओं में हुई। यह देखते हुए कि इन्हें क्षति को बढ़ाने वाले के रूप में देखा जाता है, उन्हें समाधान के रूप में पेश करना उल्टा लगता है।
जल संसाधन विभाग के प्रतिनिधि का एक चौंकाने वाला बयान है, “आज जिस तरह से पुनर्वास और बाकी लागत (जलविद्युत परियोजनाओं) में वृद्धि हुई है, इससे हर जगह एक बात सामने आती है कि अगर हम 8-10 रुपये पर ऊर्जा उत्पन्न करते हैं, तकनीकी व्यवहार्यता तो है, लेकिन कोई व्यावसायिक व्यवहार्यता नहीं है।”
संसदीय स्थायी समिति ने इस पर चर्चा नहीं की, जो मूलभूत चिंता का विषय है।
यदि जलविद्युत बांध आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं हैं, तो उन्हें क्यों बनाया जा रहा है? और अगर “समाधान” ऐसा पेश किया जा रहा है जिसमें लागत बढ़ रही है (जलाशयों का निर्माण) और निकलने वाला जल (कुछ मात्रा को बफर के रूप में रखते हुए) कम लाभ-केंद्रित है, तो उन्हें क्यों बनाया जाएगा? लागतों का वित्तपोषण कौन करेगा? क्या भारतीय बजट में लंबी अवधि के घाटे में चल रहे उद्यमों को शामिल किए बिना, बाढ़ से निपटने के कम खर्चीले उपाय नहीं हैं?
सीमा पार सहयोग पर स्थायी समिति के विचार
पाकिस्तान और चीन के लिए स्थायी समिति का दृष्टिकोण, महत्वाकांक्षा में एक महत्वपूर्ण भिन्नता को दर्शाता है, जो इस अंतर को दर्शा सकता है कि एक डाउनस्ट्रीम और दूसरा अपस्ट्रीम है, या केवल यह अंतर है कि पाकिस्तान के साथ एक संधि है, और चीन के साथ आंकड़ों को साझा करने पर केवल एक समझौता ज्ञापन है।
समिति की सिफारिशों में से एक यह है कि भारत, जलवायु परिवर्तन और नदी बेसिन प्रबंधन के मुद्दों को शामिल करने के लिए पाकिस्तान के साथ सिंधु जल संधि (आईडब्ल्यूटी) पर फिर से बातचीत करने के लिए बातचीत शुरू करे।
यह सिफारिश, संधि के इतिहास की उपेक्षा करती है, जिसकी अवधारणा पहले पूरे बेसिन के प्रबंधन के लिए की गई थी। राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के कारण दोनों देशों में से प्रत्येक को तीन नदियों का पानी आवंटित करने की अवधारणा को बदल दिया गया था। यहां तक कि यह समझौता विश्व बैंक द्वारा बड़े पैमाने पर वित्तीय सहायता का वादा करने के बाद ही हुआ था।
यह कल्पना करना कठिन है कि दोनों देश कठिन वार्ता में प्रवेश करने के लिए तैयार होंगे, जिसमें अनिवार्य रूप से इस समय अपने सभी घरेलू राजनीतिक स्थितियों के साथ समझौता करना होगा।
आईडब्ल्यूटी पर स्थायी समिति के अपने विचार-विमर्श से पता चलता है कि यह मुश्किल क्यों होगा। अधिकांश चर्चा इस बात पर है कि भारत के उपयोग के लिए आवंटित नदियों के पानी को “पाकिस्तान में बहने की अनुमति” क्यों है। इस प्रकार इसका “कम उपयोग” किया जा रहा है। यह दृष्टिकोण समग्र रूप से एक नदी बेसिन के स्वास्थ्य को देखने के साथ असंगत है।
दूसरी ओर, चीन के मुद्दे को कहीं अधिक अस्थायी रूप से निपटाया जाता है। समिति इस तथ्य पर संतोष व्यक्त करती है कि चीन ब्रह्मपुत्र और सतलुज नदियों के संबंध में हाइड्रोलॉजिकल डाटा साझा कर रहा है, हालांकि यह भुगतान के आधार पर है। वर्ष 2017 में एकमात्र बार ऐसा हुआ है जब इसके द्वारा कोई डाटा प्रदान नहीं किया गया था। समिति ने यह नहीं पूछा कि जिस डाटा के लिए भारत सरकार के अनुरोध किया, क्या वह उपयोगी था।
समिति और इसके विशेषज्ञ दोनों, नदियों को मुख्य रूप से पानी के वाहक के रूप में मानते हैं, न कि जटिल पारिस्थितिक तंत्र के रूप में, जहां पानी का उपयोग विभिन्न बिंदुओं पर विभिन्न तरीकों से होता है।
बेसिन प्रबंधन पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित करने के लिए, प्रश्न और उत्तर दोनों इस तरह से तैयार किये गये हैं कि जिससे लगता है कि नदियों को केवल पानी का पाइपलाइन मान लिया गया है।
नदियों को जोड़ने की ‘विनाशकारी’ योजना को पुनर्जीवित करना
नदी बेसिन दृष्टिकोण और नदियों के एक संकीर्ण तकनीकी दृष्टिकोण के बीच विरोधाभास के बारे में यह शायद कुछ भी प्रदर्शित नहीं करता बल्कि नदियों को जोड़ने की बात को आगे बढ़ाने के लिए यह केवल पानी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने की बात करता है। यह समिति की रिपोर्ट का एक महत्वपूर्ण भाग है।
रिपोर्ट के अनुसार, रिवर इंटरलिंकिंग, केवल एक नदी की जल-वहन क्षमता तक ही सीमित है। यह इस तथ्य की पूरी तरह से अनदेखी करता है कि प्रत्येक नदी में विशिष्ट प्रजातियों का समर्थन करने वाला एक अद्वितीय पारिस्थितिकी तंत्र शामिल है और यह कि एक नदी आसपास के क्षेत्रों की सिंचाई करती है।
संसदीय स्थायी समिति ने महिलाओं की अनदेखी की
बाढ़ पर एक रिपोर्ट में समिति महिलाओं पर उल्लेखनीय रूप से चुप है। देश में महिलाओं की सामाजिक रूप से प्रतिबंधित भूमिकाओं के कारण, वे अक्सर घरों की देखभाल करने वाली होती हैं। यह उनका दायरा है जो सबसे अधिक प्रभावित होता है, और वे विस्थापन के कारण सबसे अधिक जोखिम में होती हैं। बाढ़ की वजह से खुले में शौच और स्वच्छता सुविधाओं तक पहुंच जैसे मुद्दे ज्यादा गंभीरता से सामने आते हैं। ये महिलाओं के जीवन को ज्यादा कठिन बना देते हैं।
एक उदाहरण से ही समझें तो लगभग 40 फीसदी भारतीय महिलाएं अपने जीवनकाल में मूत्र संबंधी संक्रमणों से पीड़ित होती हैं जबकि पुरुषों के मामले में यह आंकड़ा 12 फीसदी है।
समिति में उपस्थित 26 सदस्यों में से एक डॉक्टर हीना विजयकुमार गावित सहित तीन महिलाएं थी (पांच पद रिक्त थे), लेकिन ऐसा लगता है कि इस तरह के सवालों की अनदेखी की गई है। यह जानना उपयोगी होगा कि क्या सांसदों से बात करने वाले नौकरशाहों में कोई महिला थी। लेकिन दक्षिण एशिया में जल प्रबंधन विभागों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 5 फीसदी से कम है, इसलिए इसकी संभावना भी क्षीण लगती है।