नेपाल के बुनियादी ढांचे की मजबूती के लिए अमेरिका द्वारा 5000 लाख डॉलर का उपहार, अभूतपूर्व विवाद का कारण बन गया है। 2012 के दौरान, नेपाल ने पहली बार अनुदान के लिए आवेदन किया। 2017 में इस पर हस्ताक्षर किए गए। हाल ही में 27 फरवरी, 2022 को इसका सत्यापन हुआ। इस अनुदान के मुद्दे पर नेपाल में भारी मतभेद की स्थिति पैदा हो गई है।
सबसे नई अमेरिकी विकास एजेंसी, मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (एमसीसी) से मिलने वाली सहायता को लेकर उपजी चिंताओं के कारण फरवरी में सड़कों पर दंगे भड़क उठे। गठबंधन सरकार के दो दलों द्वारा इस विरोध-प्रदर्शन का समर्थन किया गया। दोनों पक्षों की तरफ से राजनीतिक बयानबाजी करके माहौल को गर्माया गया। विरोध-प्रदर्शन पर काबू पाने के लिए आंसू गैस गोले छोड़ने और पानी की बौछार करने जैसे तरीकों का उपयोग किया गया। इस विवाद ने नेपाल की मौजूदा पांच-पक्षीय गठबंधन सरकार की स्थिरता को भी खतरे में डाल दिया है।
हाल की घटनाओं ने, छोटे देशों के फंस जाने की कीमत पर अमेरिका और चीन के बीच चल रही नई प्रतिद्वंद्विता को भी उजागर कर दिया है।
एमसीसी अनुदान के दो प्रमुख घटक हैं:
काठमांडू में लाप्सीफेडी से रतमाटे तक, दमौली के रास्ते बुटवल तक 315 किलोमीटर की 400 किलोवोल्ट (केवी) बिजली पारेषण लाइन के लिए 4000 लाख डॉलर। सड़क निर्माण परियोजना के लिए 520 लाख डॉलर।
मूल्यांकन, निगरानी और अन्य प्रशासनिक खर्चों के लिए 490 लाख डॉलर आवंटित किए गए हैं।
नेपाल विद्युत प्राधिकरण, पड़ोसी देश भारत में बुटवल से गोरखपुर तक 135 किलोमीटर 400 केवी लाइन का निर्माण कर रहा है, जहां नेपाल बिजली बेचने की उम्मीद कर रहा है।
विकासशील देशों को सहायता देने का एक संक्षिप्त इतिहास
इस संदर्भ को समझने के लिए, सबसे पहले हमें थोड़ा पीछे जाना होगा और दुनिया में विदेशी सहायता की बदलती प्रकृति पर विचार करना होगा, जहां द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की वैश्विक व्यवस्था में अब पूरी तरह से अमेरिका हावी नहीं है।
1960 के दशक के मध्य में शीत युद्ध के चरम पर, जब अमेरिका के पास दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद का 60 फीसदी रहा, तब अमेरिका ने काठमांडू में ट्रांसमिशन लाइनें बनाईं, जो आज भी संचालित होती हैं और भारतीय, चीनी और रूसी-निर्मित जलविद्युत संयंत्रों से राजधानी में बिजली ले जाती हैं। आज, क्रय शक्ति समता के मामले में, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में अमेरिका की हिस्सेदारी 16 फीसदी है। चीन का सबसे बड़ा हिस्सा 19 फीसदी है (भारत 7 फीसदी के साथ तीसरे स्थान पर है)।
एक अन्य पहलू पर भी विचार किया जाना चाहिए वह है विकास प्राथमिकताओं में बदलाव।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद सहायता, एक संस्था और एक प्रमुख उद्योग के रूप में विकसित हुई। इसमें प्रथम विश्व (अमेरिका के नेतृत्व वाले औद्योगिक देश), तीसरी दुनिया (आज के संदर्भ में ग्लोबल साउथ) को दूसरी दुनिया (कम्युनिस्ट ब्लॉक) का हिस्सा नहीं बनने देना चाहता था। इसे ब्रेटन वुड्स 1 के नाम से जाना जाता था, जिसका नाम न्यू हैम्पशायर गांव के नाम पर रखा गया था, जहां विजयी सहयोगी युद्ध के बाद के आर्थिक व्यवस्था के ढांचे को निर्धारित करने के लिए मिले थे। वर्ष 1971 में एक बड़ा बदलाव आया (जिसे ब्रेटन वुड्स 2 के नाम से जाना जाता है) जब अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अपने मूलभूत स्वर्ण मानक को खत्म कर दिया और अमेरिकी डॉलर को, व्यापार के लिए अंतरराष्ट्रीय रिजर्व करेंसी का नींव बना दिया।
1991 में सोवियत संघ के पतन और शीत युद्ध की समाप्ति के साथ, तीसरी दुनिया की सरकारों के सहायता देने का मूल कारण भी ध्वस्त हो गया। इस तरह से सहायता का यह युग समाप्त हो गया।
इसके बाद सहायता, अपने राष्ट्रीय प्राप्तकर्ता गैर सरकारी संगठनों के माध्यम से, अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठनों के नेतृत्व में (पश्चिमी) बाजार के नेतृत्व वाले आर्थिक विकास और सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देने में बदल गयी।
यह टिकने वाला नहीं था। विकसित देशों में वित्तीय और सामाजिक संकट, पूर्वी एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के उदय, मध्य पूर्व में धार्मिक उग्रवाद और रूस के सैन्य कायाकल्प की स्थितियों को दुनिया को ब्रेटन वुड्स 3 कहा जा रहा है, जहां तेल, सोना और अन्य दुर्लभ खनिज, डॉलर के बजाय व्यापार मूल्य के प्राथमिक वाहक के रूप में वापस आ रहे हैं।
एमसीसी का जन्म
एमसीसी को इस वैश्विक पृष्ठभूमि के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। अमेरिका के राजनीति और विदेश नीति से जुड़े हलकों की तरफ से अक्सर यूएसएआईडी और विश्व बैंक जैसे बहुपक्षीय संस्थानों के प्रभावी न होने की आलोचना की जाती रही है। भले ही उनके भीतर अमेरिकी हितों को प्रमुखता मिलती रही है। खासकर, शीत युद्ध की समाप्ति के बाद इनमें अमेरिकी हितों की प्रमुखता रही है।
लेकिन सितंबर 2001 के हमलों के बाद ही अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने यूएसएआईडी और अन्य ब्रेटन वुड्स 1 संगठनों को दरकिनार करते हुए एमसीसी को एक नई सहायता एजेंसी के रूप में औपचारिक रूप दिया। अमेरिकी डिफेंस और स्टेट डिपार्टमेंट्स के दस्तावेजों के साथ-साथ व्हाइट हाउस का दौरा करने वाले अधिकारियों और खुद वाशिंगटन डीसी में मौजूद अधिकारियों ने यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट किया है कि एमसीसी चीन, रूस और ईरान को अलग-थलग करने के उद्देश्य से एक इंडो-पैसिफिक रणनीति का हल्का हथियार है।
एमसीसी समझौते से पैदा हुए जोखिमों से बेखबर नेपाल
अनुदान के लिए 2012 में औपचारिक रूप से आवेदन करने के बाद से अमेरिकी एमसीसी प्रतिनिधिमंडलों के साथ कई समझौता ज्ञापनों और समझौतों पर हस्ताक्षर किए गये। इसके बावजूद, सहायता को लेकर आदी हो चुके नेपाल के वित्त मंत्रालय और सरकार की अगुवाई करने वाले नेताओं ने सहायता के शस्त्रीकरण की गंभीरता से जांच करने की जहमत नहीं उठाई। राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध नजर आने वाले इसके कई प्रावधानों के खिलाफ नागरिकों के विरोध-प्रदर्शनों के बाद ही ये जागे।
इनमें कुछ ऐसे प्रावधान हैं जिनके तहत यह समझौता नेपाली कानून से ऊपर है। इनमें नेपाली कानूनों के तहत एमसीसी अधिकारियों को अभियोजन से छूट देने की बात है। इसमें अमेरिकी नीतियों के खिलाफ नहीं जाने की बात है (यह एक व्यापक वाक्यांश है जिसकी कई तरह से व्याख्या की जा सकती है)। इसमें आर्थिक उदारवाद जैसे अमेरिकी मूल्यों को अपनाने की बात है जबकि नेपाल का संविधान देश को “समाजवाद-उन्मुख” के रूप में परिभाषित करता है। अपने वाणिज्य और उद्योग के लिए इसके उपयोग की जगह, भारत के एक मोनोप्सी बाजार में नेपाली जलविद्युत के निर्यात की बात भी इसमें है।
नेपाल के स्थापित ट्रांसमिशन लाइन बिल्डिंग एथॉरिटी- द् नेपाल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी (एनईए) को दरकिनार करके अमेरिकी के नियंत्रण वाली एक नई संस्था का गठन किया गया।
अर्थशास्त्र में, एक मोनोप्सनी तब होती है जब एक खरीदार बाजार को नियंत्रित करता है, और संभावित रूप से कीमतों और शर्तों को अपनी सुविधा के लिए हेरफेर करने में सक्षम होता है। नेपाल केवल भारत को बिजली बेचता है और कीमतों व शर्तों को निर्धारित करने के लिए सीमित बातचीत की शक्तियां रखता है।
इन सबमें शायद सबसे महत्वपूर्ण बात उच्च लागत थी। 2011 के बाद से, नेपाल की एनईए, विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित परियोजना के हिस्से के रूप में एनपीआर 380 लाख / किमी पर 400 केवी ट्रांसमिशन लाइन का निर्माण कर रही है। एमसीसी 1600 लाख/किमी एनपीआर पर ट्रांसमिशन लाइनें बनाने की योजना बना रही है, जो उस लागत से चार गुना अधिक है। एक अंतर पहाड़ी इलाके का है, लेकिन लागत का अंतर बहुत ज्यादा है।
इसके अलावा, नेपाल को खुद 1300 लाख डॉलर का योगदान करना है, उसी पैसे से परियोजना को चलाना है और एमसीसी द्वारा निर्धारित सुशासन के 20 “स्कोर शीट” मानदंडों के पारित होने के बाद ही किश्तों के माध्यम से इसकी प्रतिपूर्ति होगी। आलोचकों का कहना है कि यदि ट्रांसमिशन लाइनें नेपाल की बाजार दर पर बनाई जाती हैं, तो नेपाल के 1300 लाख डॉलर का योगदान, एमसीसी अनुदान की आवश्यकता के बिना ही पर्याप्त से अधिक होगा।
लोकतंत्र को कमजोर करना
पिछले साल, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन ने सुझाव दिया था कि “लोकतांत्रिक देशों” के पास चीन की बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव की प्रतिक्रिया में एक बुनियादी ढांचा परियोजना होनी चाहिए। लेकिन एमसीसी ने नेपाल में लोकतंत्र को कमतर किया है। यह छोटा देश अमेरिका और चीन के बीच एक शातिर रस्साकशी के बीच फंस गया है। फरवरी 2022 में, वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारियों ने चेतावनी दी कि अगर एमसीसी अनुदान को नेपाली संसद द्वारा अनुमोदित नहीं किया जाता है, तो अमेरिका, नेपाल के साथ अपने संबंधों की समीक्षा करने के लिए मजबूर होगा। यह एक तरह से चीन का उपहास करने जैसा कदम था। इस डील को इतने कम परीक्षण के साथ आगे बढ़ाया गया कि सितंबर 2017 में वित्त मंत्री द्वारा समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के बाद ही वित्त मंत्रालय ने कानून, न्याय और संसदीय मामलों के मंत्रालय से यह पूछने की जहमत उठाई कि समझौते के कानूनी निहितार्थ क्या हैं।
(वित्त मंत्री को तब अमेरिका में राजदूत के रूप में तैनात किया गया – इसे एक इनाम के रूप में देखा गया – कुछ महीने बाद जब नेपाली सरकार गिर गई तब उनको वापस बुलाया गया।)
कानून मंत्रालय ने जनवरी 2019 में जवाब दिया कि एमसीसी के ऐसे प्रावधान नेपाल के कानूनों और संविधान से ऊपर हो जाएंगे, ऐसे में इसे संसद द्वारा पारित होने की आवश्यकता है जबकि इससे पहले कभी भी सहायता से जुड़े किसी प्रोजेक्ट के मामले में ऐसी जरूरत महसूस नहीं की गई थी।
जब सरकार ने संसद में समझौते को पेश करने की कोशिश की, तो स्पीकर ने सहयोग नहीं किया। यौन उत्पीड़न के आरोपों के बाद उसी वर्ष बाद में उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया था। (बाद में उन्हें बरी कर दिया गया)
इसके बाद, नेपाल एक और संकट में घिर गया। यह पिछले 15 वर्षों की श्रृंखला में से एक था। इसके एमसीसी के लिए दूरगामी परिणाम थे।
सत्तारूढ़ दल, जिसे संसद में लगभग दो-तिहाई बहुमत था, मार्च 2021 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से विभाजित हो गया। इसमें दो पूर्व कम्युनिस्ट पार्टियों के विलय को रद्द कर दिया गया था। उनके इस विलय के पीछे व्यापक रूप से चीन की कोशिशों को माना जाता था। (चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने इस विलय किए गए राजनीतिक प्रशिक्षण आयोजित किया था)। जब प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने संसद को भंग करने का आदेश दिया और नए चुनावों का आह्वान किया, तो अदालत ने आदेश दिया कि विपक्षी नेपाली कांग्रेस के उनके प्रतिद्वंद्वी शेर बहादुर देउबा को “अगले दिन शाम 5 बजे तक प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाए” और पांच दिन बाद संसद बहाल की जाए।
अमेरिका का राजनयिक दबाव, चीन का उपहास और नेपाल की संप्रभुता को नजरंदाज करने जैसी प्रतीत होती असाधारण धाराएं, जवाबदेही और पारदर्शिता के लिए स्पष्ट समस्याएं पेश करती हैं।
शासन में इस बदलाव ने एमसीसी को आगे बढ़ाने के प्रयासों को निरंतर गति दी। देउबा ने सबसे बड़े गुट के रूप में माओवादियों के साथ पांच दलों का गठबंधन बनाया।
इसके न्यूनतम साझा कार्यक्रम में एमसीसी को अपने एजेंडे के रूप में पारित करने का उल्लेख नहीं था और माओवादी सहयोगी आधिकारिक तौर पर इसे पेश करने का विरोध कर रहे थे। लेकिन इसे संसद में बिना किसी सार्थक बहस के 27 फरवरी, 2022 को पारित कर दिया गया। एकमात्र परिवर्तन एकतरफा “व्याख्यात्मक घोषणा” को लेकर था, जो कि संधि की धाराओं को फिर से परिभाषित करता है, यह कुछ ऐसा है जिसकी कोई अंतरराष्ट्रीय कानूनी वैधता नहीं है और जिसके लिए अमेरिका ने अपनी आधिकारिक सहमति नहीं दी है।
नेपाल में एमसीसी के लिए आगे एक जटिल रास्ता
नेपाल में एमसीसी की कहानी ने जो व्यापक सामाजिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण पैदा किया है, उसे देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि क्या इसने अपने किसी उद्देश्य को हासिल किया है, या वे उद्देश्य क्या थे। परियोजना का अर्थशास्त्र बहुत कम समझ में आता है।
अमेरिका का राजनयिक दबाव, चीन का उपहास और नेपाल की संप्रभुता को नजरंदाज करने जैसी प्रतीत होती असाधारण धाराएं, जवाबदेही और पारदर्शिता के लिए स्पष्ट समस्याएं पेश करती हैं। सबसे अधिक समस्या इस बात को लेकर है कि जिस अपारदर्शी तरीके से इसे धक्का देकर आगे बढ़ाया गया है वह लोकतंत्र का मजाक बनाता है। हाल के वर्षों में नेपाल के लिए यह सबसे बड़ी सहायता परियोजना भारी विवाद का कारण बन गई है। यह जैसे-जैसे यह आगे बढ़ रही है, और कार्यान्वयन, वित्तपोषण और जवाबदेही के कई मुद्दे अधिक स्पष्ट हो रहे हैं, इसको लेकर अधिक विवाद पैदा होने की आशंका है। यह नेपाल में अमेरिकी इंडो-पैसिफिक रणनीति के लिए एक अशुभ शुरुआत है। और यह खुद नेपाल के लिए भी भारी दिक्कतों का कारण है।