वायु प्रदूषण पर विश्व बैंक की एक नई रिपोर्ट जारी होने के मौके पर पिछले दिनों नेपाल की राजधानी काठमांडू में एक बैठक हुई। इस अवसर पर, आईसीआईएमओडी के डायरेक्टर जनरल, पेमा ग्यामत्सो ने कहा कि इस कमरे में बैठे वे लोग हाथ उठाएं, जिन्होंने काठमांडू के रास्ते में माउंट एवरेस्ट की चोटी को वाकई में देखा हो।
अफ़सोस की बात यह है कि एक भी व्यक्ति ने हाथ नहीं उठाया। दरअसल, ऐसा ही अनुमान भी था। इस सबके ज़रिये ग्यामत्सो, नेपाल के वायु प्रदूषण की ओर इशारा कर रहे थे। नेपाल में वायु प्रदूषण की स्थिति, दुनिया में सबसे ज़्यादा खराब है। वायु प्रदूषण के हालात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी वजह से दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत चोटी अक्सर दिखाई ही नहीं देती।
दक्षिण एशिया, वायु प्रदूषण का एक वैश्विक हॉटस्पॉट है। दुनिया के 40 सबसे प्रदूषित शहरों में से 37 यहां हैं। यहां की 60 फीसदी आबादी भारी प्रदूषित इलाकों में रहती है। इन इलाकों में पीएम 2.5 नामक खतरनाक धूल कण यानी डस्ट पार्टिकल्स, सांसों से जुड़ी अनेक जानलेवा बीमारियों का बहुत बड़ा कारण है। वायु प्रदूषण के कारण इस क्षेत्र में हर साल 20 लाख से ज्यादा लोग अकाल मृत्यु का शिकार बनते हैं। यहां पीएम 2.5 का स्तर डब्ल्यूएचओ की वायु गुणवत्ता मानक से काफी अधिक है।
पीएम 2.5 डस्ट पार्टिकल्स, कस्बों, शहरों, राज्यों और यहां तक कि राष्ट्रीय सीमाओं को पार करते हुए सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय राज्य पंजाब में लगभग 30 फीसदी वायु प्रदूषण, पड़ोसी देश पाकिस्तान से आता है। वहीं, बांग्लादेश के सबसे बड़े शहरों के कुल प्रदूषण में 30 फीसदी हिस्सेदारी भारत में उत्पन्न होने वाले प्रदूषण की है। यह उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर चलने वाली हवाओं की वजह से है। इस वजह से, पार्टिकुलेट्स के स्रोत को ट्रैक करना और दक्षिण एशिया में मौजूदा चलन में शहर-दर-शहर वाले दृष्टिकोण के जरिए वायु गुणवत्ता का प्रबंधन कठिन हो जाता है।
स्वच्छ वायु के लिए प्रयास: दक्षिण एशिया में वायु प्रदूषण और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर विश्व बैंक का नया अध्ययन है। यह दक्षिण एशिया के लिए अभिशाप बन चुकी इस समस्या और इसके लिए जरूरी समाधानों पर बात करता है।
इस अध्ययन में पाया गया है कि चूंकि वायु प्रदूषण की यात्रा लंबी दूरी वाली होती है और ये बड़े एयरशेड्स में फंस जाते हैं, ऐसे में प्रांतों, राज्यों और क्षेत्रीय स्तर पर सहयोग के माध्यम से ही दक्षिण एशिया में वायु प्रदूषण को मात देने की उम्मीद की जा सकती है। विश्व बैंक, एक एयरशेड को एक ऐसे भौगोलिक क्षेत्र के रूप में परिभाषित करता है जहां प्रदूषक फंस जाते हैं, जिससे सभी के लिए समान वायु गुणवत्ता पैदा होती है।
वायु प्रदूषण पर क्षेत्रीय सहयोग: इसमें दक्षिण एशिया के लिए क्या है?
वायु प्रदूषण को कम करने के लिए, विश्व बैंक के नये अध्ययन में व्यापक स्तर पर टेक्नोलॉजिकल सलूशंस मतलब तकनीक के माध्यम से किए जाने वाले समाधानों पर ज़ोर दिया गया है। इन समाधानों की प्रभावशीलता का अनुकरण करने के लिए एक रीजनल एटमॉस्फेरिक मॉडल यानी क्षेत्रीय वायुमंडलीय मॉडल का उपयोग किया गया है। इसमें इंटर-रीजनल लिंकेज यानी अंतर-क्षेत्रीय संबंध को शामिल किया गया है जो हमें एक साथ काम करने के फायदों के विश्लेषण की अनुमति देता है।
यह समझना महत्वपूर्ण है कि हाल के वर्षों में, दक्षिण एशिया की विभिन्न सरकारों ने वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए कई तरह की नीतियां अपनाई हैं। हालांकि, हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि ये प्रयास जरूरत के हिसाब से काफी कम हैं। हवा की गुणवत्ता को बेहतर करने के लिहाज से दक्षिण एशिया में मौजूदा समय में किए जा रहे सभी उपाय अगर पूरी तरह से जमीन पर लागू हो जाएं तब भी 2018 और 2030 के बीच पीएम 2.5 में केवल 4 फीसदी की गिरावट आएगी। ऐसे में, दक्षिण एशिया के बड़े हिस्से जहरीली हवा से पीड़ित रहेंगे और हम विश्व स्वास्थ्य संगठन के बेहद कम महत्वाकांक्षी अंतरिम लक्ष्य I यानी पीएम 2.5 के लिए 35 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर (μg/m³) को प्राप्त करने से भी चूक जाएंगे।
ज़ाहिर है कि हवा को साफ करने के लिए और अधिक कदम उठाए जाने की ज़रूरत है। लेकिन परेशानी यह है कि भले ही प्रत्येक शहर, क्षेत्र या देश अपनी महत्वाकांक्षा बढ़ा लें, वे अकेले इस दिशा में काम करके प्रदूषण के स्तर को सुरक्षित सीमा के भीतर लाने में सफल नहीं हो सकते हैं।
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी दिल्ली, 2030 तक तकनीकी रूप से व्यवहार्य, वायु प्रदूषण नियंत्रण के सभी उपायों को पूरी तरह से लागू कर देता है, तो भी यह शहर, डब्ल्यूएचओ के अंतरिम लक्ष्य I को हासिल नहीं कर पाएगा, अगर पड़ोसी राज्य और पड़ोसी देश अपनी वर्तमान नीतियों का पालन जारी रखते हैं।
ऐसा इसलिए है क्योंकि दिल्ली के वायु प्रदूषण में पड़ोसी राज्यों और सीमावर्ती देशों की भागीदारी 50 फीसदी से अधिक है। दरअसल, पड़ोसी राज्यों और सीमावर्ती देशों से वायु प्रदूषण का एक बड़ा प्रवाह दिल्ली में आता है।
ऐसे में मिलजुल कर काम करना बेहद जरूरी है। यह किफायती भी होगा। यदि पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र के वायु प्रदूषण को कम करने के लिए तकनीकी रूप से व्यवहार्य सभी समाधानों को लागू किया जाता है तो 2030 तक एवरेज एक्सपोजर घटकर 17 μg/m³ हो जाएगा। लेकिन इसके लिए भारी लागत आएगी जो 215 अरब रुपये प्रति μg/m³ होगी।
वहीं, अगर पूरे समन्वय व सहयोग के साथ काम हो और प्रदूषण के लिहाज से हॉटस्पॉट्स में विभिन्न सरकारें, एक कॉमन पलूशन रिडक्शन स्ट्रेटजी के तहत काम करें तो यह किफायती साबित होगा। इस स्थिति में दक्षिण एशिया में केवल 2300 करोड़ रुपए प्रति μg/m³ की लागत से पीएम 2.5 के एवरेज एक्सपोजर को 30 μg/m³ तक कम किया जा सकता है।
ऐसे में, इस तरह की नीति अपनानी होगी जो शहरी केंद्रों से बाहर किफायती उपायों पर अधिक ध्यान केंद्रित करें। शहरी केंद्रों से बाहर के उदाहरण में हम सिंधु-गंगा मैदान के कुछ हिस्सों को ले सकते हैं जहां वायु प्रदूषण में 30 फीसदी हिस्सेदारी घरेलू जैव ईंधन के जलने से है।
इसलिए, खाना पकाने के लिए स्वच्छ ईंधन को बढ़ावा देने वाले बिजनेस मॉडल के माध्यम से घरों में मौजूद वायु प्रदूषण के स्रोतों को कम किया जा सकता है। बिहार में इस तरह का एक पायलट प्रोजेक्ट सफल रहा है। पूरे वातावरण की वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए इस तरह के प्रयास सर्वोच्च प्राथमिकताओं में से एक होने चाहिए।
इसके अलावा, सेकेंडरी पार्टिकुलेट मैटर के स्रोतों पर विशेष तौर पर ध्यान देने की जरूरत हैं जिनमें कृषि और वाहन उत्सर्जन शामिल हैं।
वायु प्रदूषण को कम करने के लिए जब सहयोग और समन्वय वाले उपाय होंगे तो उसके लिए कुछ समय और धन दोनों की आवश्यकता होगी। इसके आर्थिक लाभ, लागत की तुलना में बहुत अधिक हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है, अगर पूरे समन्वय के साथ इस दिशा में काम हो तो हर साल 750,000 से अधिक लोगों की जान बचाई जा सकेगी। इन 750,000 से अधिक लोगों का जीवन बचाने में प्रति व्यक्ति के हिसाब से लागत केवल 6,28516 रुपए होगी। इसके अलावा, वायु प्रदूषण के कम होने से अन्य तरह के प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ होंगे जिनमें स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चों में कमी और कार्यस्थल पर उत्पादकता का बढ़ना भी शामिल है।
दक्षिण एशिया में सांस लेना कैसे हो सकता है आसान
स्थानीय और राष्ट्रीय प्रशासनिक सीमाओं के बीच समन्वय और सहयोग से निम्नलिखित प्रयास किए जा सकते हैं:
- बेहतर आंकड़ों के साथ शुरुआत की जाए। दक्षिण एशियाई देश, विश्वसनीय वैज्ञानिक आंकड़े जुटाने के लिए पूरे एयरशेड में महत्वपूर्ण बिंदुओं पर मॉनिटर स्थापित करने के लिए सहयोग कर सकते हैं। साथ ही, इसके विश्लेषण के लिए संस्थागत क्षमता निर्माण की दिशा में मिलकर काम कर सकते हैं। ऐसा एशिया के देशों, यूरोप, चीन और अमेरिका सहित दुनिया के अन्य हिस्सों में किया गया है।
- एक बार निगरानी प्रणालियां स्थापित हो जाने के बाद, देश के भीतर और देश के बाहर के उत्सर्जन को ट्रैक करने के लिए ज्वाइंट एयरशेड टार्गेट्स तय किए जा सकते हैं। साथ ही, किफायती उपायों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। इनमें दक्षिण एशिया में वायु प्रदूषण के प्रमुख स्रोतों से निपटने के लिए अनुभवों को साझा करना शामिल हो सकता है। इन स्रोतों में घरों में जलाए जाने वाले जैव ईंधन, ईंट भट्ठे, तंदूर वाली भट्ठी, कृषि अवशेषों को जलाना, नगर निगम के कचरे को खुले में जलाना इत्यादि शामिल हैं। साथ ही, सेकेंडरी पार्टिकुलेट मैटर के स्रोतों जैसे उर्वरक, वाहन उत्सर्जन, बड़े उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषकों के ढेर इत्यादि को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए।
- एक बार ट्रैकिंग का अच्छा तंत्र विकसित हो जाने और ज्वाइंट टार्गेट्स पर अच्छे से काम शुरू हो जाने के बाद दक्षिण एशिया में, वायु गुणवत्ता को अर्थव्यवस्था में मुख्यधारा में लाने के प्रयास शुरू हो सकते हैं। इसमें इमिशन ट्रेडिंग यानी उत्सर्जन व्यापार शुरू हो सकता है जिससे स्वच्छ और हरित प्रौद्योगिकियों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाया जा सके। गुजरात के सूरत में एक इन्नोवेटिव लोकल इमिशंस ट्रेडिंग स्कीम यानी स्थानीय तौर पर एक अभिनव उत्सर्जन व्यापार योजना के माध्यम से पार्टिकुलेट मैटर के उत्सर्जन में 24 फीसदी की कमी लाई गई। इससे काफी ज्यादा बेहतर नतीजे हासिल किये जा सकते हैं अगर ऐसी योजनाओं को एक एयरशेड में फैला कर काम किया जाए।
हम हर तीन सेकेंड में एक सांस लेते हैं यानी प्रतिदिन लगभग 38,000 सांसें। स्वच्छ हवा हमारे स्वास्थ्य के लिए सबसे आवश्यक है। वायु प्रदूषण से निपटने का मतलब है आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर दुनिया देना। ऐसा करना अनिवार्य है। अब जबकि पूरे दक्षिण एशिया में लोग स्वच्छ हवा की मांग कर रहे हैं ऐसे में उनके लीडर्स को बेहतर परिणाम देने के लिए मिलकर काम करने की आवश्यकता होगी।
यह कार्य विश्व बैंक, आईसीआईएमओडी और द् थर्ड पोल के बीच एक सहयोगी संपादकीय सीरीज़ का हिस्सा है। यह “रीजनल कोऑपरेशन फॉर क्लाइमेट रिजिल्यन्स इन साउथ एशिया” पर जलवायु विशेषज्ञों और रीजनल वॉइसेस को एक मंच पर लाता है। लेखक द्वारा व्यक्त किए गए विचार और मत उनके अपने हैं। इस सीरीज़ को यूनाइटेड किंगडम के फॉरेन, कॉमनवेल्थ एंड डेवलपमेंट ऑफिस द्वारा प्रोग्राम फॉर एशिया रिजिल्यन्स टू क्लाइमेट चेंज – विश्व बैंक द्वारा प्रशासित एक ट्रस्ट फंड- के माध्यम से फंड किया गया है।