प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भारत के हिमालयीय क्षेत्रों के विकास के लिए अलग से एक मंत्रालय बनाए जाने पर गंभीरता से विचार की जो खबरें आई हैं, वे स्वागत योग्य हैं। आजादी के बाद से लेकर अब तक, केंद्र ने हिमालय की जिस तरह अनदेखी की है, वह अनुचित और दुखद है. हमारे जैसे बहुत से लोग जो हिमालय के विकास के लिए समर्पित एक अलग मंत्रालय की मांग करते रहे हैं, नई सरकार से मिले संकेत उनके लिए खुशखबरी है.
कश्मीर के पीर पंजाल रेंज से लेकर पूर्वोत्तर के अरुणाचल प्रदेश जहां भारत, म्यांमार और चीन का संगम होता है, तक फैला हिमालय निश्चित तौर से भारत के लिए एक वरदान है.
भारत में 2,500 किलोमीटर तक फैले हिमालय में पृथ्वी की कुछ सबसे घनी और दुर्लभ जैव-विविधताएं पाई जाती हैं. दुर्भाग्य से, इन विशाल पर्वतों के बीच बसने वाले लोग प्रायः उपेक्षित ही रहे हैं. लेकिन उन लोगों ने अपनी आवाज उठानी शुरू कर दी हैं और केंद्र को उसे गंभीरता से लेना ही होगा.
कई संस्थाओं और इंडियन माउंटेन इनिशिएटिव (आईएमआई) जैसे एनजीओ ने लगातार यह चिंता जताई है कि पंचवर्षीय योजनाओं की रूपरेखा बनाते समय योजना आयोग पर्वतीय क्षेत्रों की जरूरतों का ध्यान नहीं रखता. 12वीं पंचवर्षीय योजना को जब अंतिम रूप दिया जा रहा था, उस समय सांसदों के दबाव में पहली बार पर्वतों के लिए समर्पित एक वर्किंग ग्रुप का गठन किया गया.
भारतीय हिमालय एक वरदान सरीखा है. यह हमारा जल स्रोत है. यह उन नदियों को जल से भरपूर रखता है जिससे करोड़ो लोगों का अस्तित्व जुड़ा है. आज इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि जल के सबसे बड़े स्रोत हिमालय पर्वतमालाओं पर जमे हिम में कमी आ रही है क्योंकि ग्लेसियरों का आकार लगातार घट रहा है. उपग्रह से मिले चित्रों में साफ नजर आता है कि अंटार्कटिका और आर्कटिक की तरह तिब्बत का परमाफ्रॉस्ट (हिमाच्छादित भूभाग) सिकुड़ रहा है. इसका नतीजा हमारी नदियों में पानी की किल्लत के रूप में सामने आएगा.
हमें अपने ग्लोसियरों के संकुचन को रोकने और उसकी निगरानी के लिए जलवायु परिवर्तन से संबद्ध व्यापक कानूनों की सख्त जरूरत है. इस मंत्रालय को केंद्र और राज्य सरकारों के बीच के कई विवादास्पद मुद्दों को सुलझाने की जिम्मेदारी भी दी जा सकती है. मसलन, क्या हिमालयीय राज्यों को अपने प्रदेश में जैव-विविधता के संरक्षण के लिए किए गए प्रयासों का ईनाम मिलना चाहिए ?
हिमालय की भू-राजनीतिक महत्ता भी कुछ कम नहीं है. पश्चिम से पूर्व तक पाकिस्तान, नेपाल, चीन, भूटान, म्यांमार और बांग्लादेश की अंतरराष्ट्रीय सीमाएं हिमालय से लगी हैं. इसलिए सामरिक और व्यापारिक, दोनों ही लिहाज से इसकी अलग अहमियत है. “पूर्व को प्राथमिकता नीति” या लुक ईस्ट पॉलिसी के तहत इन देशों के साथ व्यापारिक रिश्ते बढ़ाने के लिए अगर थोड़ी सूझबूझ दिखाई जाए तो व्यापार के विकास की अनगिनत राहें खुल सकती हैं.
मेरा प्रदेश सिक्किम इन संभावनाओं का एक शानदार उदाहरण प्रस्तुत करता है. साल 2004 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और चीनी प्रधानमंत्री के बीच हुए एक समझौते के तहत 44 साल के बाद 2006 में नाथू-ला दर्रे को व्यापार के लिए खोला गया. फिलहाल केवल सीमावर्ती इलाके के बीच सिमटा यह व्यापार, व्यापक हो जाए तो सिक्किम की अर्थव्यवस्था में जबरदस्त उछाल आ जाएगा.
हिमालय के क्षेत्रों में पर्यटन सबसे अहम आर्थिक कार्य रहा है. मैदानी इलाकों से बड़ी तादाद में पर्यटक हिमालय की ठंढ़क का आनंद लेने के लिए पहाड़ों में बसे शहरों का रुख करते हैं. अगर मसूरी पर एक नजर डालें तो पता चल जाएगा कि हमारे पर्वतीय शहरों के समक्ष क्या चुनौतियां हैं. शहरीकरण की जो मौजूदा नीतियों हैं, उनपर चलते हुए हम अपने पर्वतीय शहरों के टिकाऊ विकास की कल्पना भी नहीं कर सकते. परिवहन व्यवस्था और कचरा प्रबंधन ऐसी बड़ी समस्याएं बनती जा रही हैं जिनका समाधान तत्काल खोजना होगा.
केंद्र से सख्त कार्रवाई की दरकार
इन समस्याओं का समाधान तब तक नहीं हो सकता जब तक केंद्र कोई समुचित नीतिगत पहल नहीं करता. सड़कों का उदाहरण ले लीजिए. पहाड़ों में सड़क बनाने के लिए कोई आधुनिक तकनीक अमल में नहीं लाई जा सकी है. पर्वतीय क्षेत्रों में आधारभूत निर्माण को सुगम बनाने के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) विशेष शोध अभियान क्यों नहीं चला सकता? बांध निर्माण और जल विद्युत परियोजनाएं विवादास्पद मुद्दे हैं. पूरी संवेदनशीलता और गंभीरता का परिचय देते हुए इनका शीघ्र समाधान निकालने की आवश्यकता है.
अंग्रेजी राज के दौर से ही पहाड़ों में रेल चल रही है. वे दार्जिलिंग, शिमला और कुन्नुर की पहाड़ियों तक रेल ले जाने में सफल रहे. आज भी हमारी तकनीक उसी स्तर पर खड़ी है जहां 1947 में थी. जबकि चीनियों ने ल्हासा को बीजिंग के साथ रेल नेटवर्क के जरिए जोड़ दिया है. सिक्किम 40 साल पहले भारतीय संघ का हिस्सा बना लेकिन आज तक इसे पूरे भारत के साथ रेल नेटवर्क के जरिए नहीं जोड़ा जा सका है. हमें गंभीरता के साथ उठाए ठोस प्रयासों की जरूरत है.
हिमालय में बसने वालों लोगों को सुध बस तभी ली जाती है जब वहां आपदाएं आती हैं. भूकंप या भारी बरसात के कारण चट्टानों का खिसकना और दूसरी आपदाएं आना पहाड़ों में आम बात है. दुख की बात है कि हिमालय को मुख्यधारा की चर्चा में जगह केवल आपदाओं के आने के बाद ही मिलती है. 2011 का सिक्किम का भूकंप और पिछले साल उत्तराखंड में बाढ़ से हुई त्रासदी इसके हालिया उदाहरण हैं.
हिमालय की गोद में बसे सभी राज्यों को विश्वास में लेकर इन समस्याओं का कारगर समाधान ढूंढना, प्रस्तावित मंत्रालय के समक्ष एक बड़ी चुनौती होगी. चूंकि केंद्र की सत्ता के मुखिया मोदी निर्णय लेने वाले व्यक्ति के तौर पर जाने जाते हैं, इसलिए यह संभव होता नजर आ रहा है.
(पी.डी. राय पर्वतीय प्रदेश सिक्किम से सांसद हैं)