दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन यानी सार्क (SAARC) का पिछला शिखर सम्मेलन नवंबर 2014 में नेपाल की राजधानी काठमांडू में आयोजित हुआ था। यह सार्क का 18वां शिखर सम्मेलन था। नरेंद्र मोदी के भारत के प्रधानमंत्री बनने के बाद सिर्फ़ एक बार ही ये सम्मेलन आयोजित हुआ है। वैसे तो, स्थापित मान्यता यह है कि ये शिखर सम्मेलन हर दो साल में एक बार होना चाहिए लेकिन फिलहाल, ऐसे कोई संकेत नहीं मिल रहे हैं कि आने वाले कुछ दिनों में यह आयोजित होगा।
पाकिस्तान को अगले सार्क शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता करनी है। साल 1985 और 2014 के बीच अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका के प्रमुखों ने इस सम्मेलन की अध्यक्षता की है। साथ ही, इस मंच के माध्यम से स्वास्थ्य और शिक्षा से लेकर पर्यावरण जैसे कई विषयों पर क्षेत्रीय सहयोग पर चर्चा की गई है।
लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों की मौजूदा स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि ऐसा होने के लिए राजनीतिक माहौल में एक बड़े बदलाव की ज़रूरत होगी। एक तरफ़, भारतीय टिप्पणीकारों ने इस मुद्दे को काफ़ी हद तक नज़रअंदाज़ कर दिया है, जबकि दक्षिण एशिया के अन्य देश- जैसे नेपाल, जहां सार्क सचिवालय का मुख्यालय है- इसे एक नुकसान के रूप में मानते हैं।
सार्क की कई उपलब्धियां रही हैं। इनमें फ्री ट्रेड एग्रीमेंट यानी एक मुक्त व्यापार समझौता, डेवलपमेंट फंड यानी एक विकास कोष, फूड बैंक यानी एक खाद्य बैंक और आर्बिट्रेशन काउंसिल यानी एक मध्यस्थता परिषद इत्यादि हैं। इनके अलावा, विभिन्न देशों के बीच आपसी सहयोग और समझौतों के ज़रिये होने वाले कई अन्य प्रयास, इसकी उपलब्धियों में हैं। लेकिन सार्क के परिदृश्य से ओझल होने की वजह से ये उपलब्धियां अब मंद होती जा रही हैं।
लेकिन यह भी सच है कि प्रकृति, किसी भी खालीपन से नफरत करती है। दरअसल, भारत अब बिम्सटेक को बढ़ावा दे रहा है। बिम्सटेक एक क्षेत्रीय बहुपक्षीय संगठन है। बंगाल की खाड़ी के तटवर्ती और समीप वाले क्षेत्रों में स्थित देश इसके सदस्य हैं। बांग्लादेश, भूटान, भारत, म्यांमार, नेपाल, श्रीलंका और थाईलैंड इसके सदस्य हैं। बिम्सटेक, सदस्य देशों के बीच आपस में तकनीकी और आर्थिक सहयोग की दिशा में काम करता है। सार्क के विकल्प में रूप में बढ़ावा दिए जाने वाले बिम्सटेक में पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे प्रमुख देश शामिल नहीं हैं। इस तरह से, भारत ने एक जगह छोड़ दी है जिसे चीन जैसा देश और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) जैसा संगठन तेजी से भरता जा रहा है।
चीन और दक्षिण एशिया के संस्थान
दक्षिण एशिया के क्षेत्रीय संस्थानों में चीन की मौजूदगी कोई नई बात नहीं है। ढाका में 2005 में 13वें सार्क शिखर सम्मेलन के दौरान, जब भारत ने अफ़ग़ानिस्तान को पूर्ण सदस्य के रूप में शामिल करने का प्रस्ताव रखा, तो नेपाल ने चीन को एक पर्यवेक्षक के रूप में शामिल करने का प्रस्ताव दिया। इन दोनों प्रस्तावों की स्वीकृति से क्षेत्र में एक नई वास्तविकता बनी।
चीन की प्रतिक्रिया, हालांकि मौन थी, लेकिन उन्हें संकेत दिया कि वह दक्षिण एशिया की संस्थागत संरचना में भाग लेने के लिए तैयार था। भारत के लिए, इसका मतलब यह था कि उसे अब अपने पड़ोसियों के साथ डील करने के मामले में एक अहम हिस्सा ‘द् चाइना कार्ड’ का होगा। चीन की दक्षिण एशिया में सक्रियता से पहले भारत इस क्षेत्र का सबसे बड़ा देश था।
दरअसल, पाकिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश-म्यांमार के अलावा, कोई भी सार्क देश भारत के अलावा किसी अन्य दक्षिण एशियाई देश के साथ सीमा साझा नहीं करता है। जबकि इनमें से कई देशों के साथ, चीन अपनी सीमा साझा करता है। ऐसे में, यहां एक नई शक्ति के रूप में चीन की उपस्थिति का मतलब यह है कि इस क्षेत्र के आगे बढ़ने की दिशा में, भारत को दक्षिण एशिया के एकीकरण में, अपनी भूमिका को फिर से परिभाषित करना होगा और यह शायद चीन के साथ सहयोग के मामले में हो सकता है।
माना जा रहा है कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार (2004-2014) इस नई वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए तैयार लग रही थी लेकिन मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार- अपनी सरकार के गठन के समय सभी सार्क नेताओं को निमंत्रण देने के बाद- इस दिशा में कुछ भी नहीं सोच रही है। इस बीच, शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन यानी एससीओ ने खुद को लगातार मज़बूत किया है। नेपाल 2016 में एक डायलॉग पार्टनर के तौर पर एससीओ से जुड़ा। भारत और पाकिस्तान के साथ 2017 में एससीओ की पार्टनरशिप हुई। नेपाल जैसे स्टेटस के साथ बांग्लादेश के भी एससीओ से जुड़ने की उम्मीद है। हाल ही में, पाकिस्तान की जलवायु परिवर्तन मंत्री शेरी रहमान ने एससीओ से जलवायु को लेकर अगुवाई करने का आह्वान किया है। यह बेहद महत्वपूर्ण बयान है।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक दिखाई देने वाला प्रभाव पानी पर है। और जिन प्रमुख देशों के साथ भारत अपनी प्रमुख नदियों को साझा करता है, वे हैं पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश। ये सभी अब एससीओ से जुड़े हुए हैं। ये सभी बाउंड्री नदियां वर्तमान में किसी न किसी संकट का सामना कर रही हैं।
सिंधु नदी प्रणाली पर जलविद्युत विकसित करने के लिए भारत के दबाव और पाकिस्तान की चिंताओं ने इस मामले को एक संकट बना दिया है। हालात ऐसे हैं कि सिंधु जल संधि – जिसे दुनिया की सबसे सफल ट्रांस बाउंड्री जल संधियों में से एक माना जाता है – अब खतरे में है।
नेपाल को लेकर भारत की बात करें तो पाएंगे कि महाकाली, कोसी और गंडकी नदी घाटियों के मुद्दों ने दोनों देशों के बीच संबंधों को काफ़ी ख़राब कर दिया है। दोनों देशों के बीच, उनकी आज़ादी के बाद से, अब तक ऐसे हालात कभी नहीं बने थे। अब चूंकि जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ और सूखे की घटनाओं में बढ़ोतरी होती ही जा रही है, ऐसे में दोनों देशों के बीच टकराव बढ़ने की ही आशंका है।
अगर एससीओ जलवायु परिवर्तन के मुद्दों को अपने दायरे में लेता है तो वो विभिन्न सीमाओं के आर-पार पानी के मुद्दों में भी शामिल होगा।
भारत की बांग्लादेश के साथ एक बड़ी जल संधि है, गंगा जल संधि। यह 2026 में समाप्त होने वाली है। ऐसे कोई संकेत अभी तक नहीं मिले हैं कि किस तरह से इसकी समीक्षा होगी। चूंकि इस संधि का कामकाज, पूरे साल, विशिष्ट जल स्तरों पर निर्भर है और जलवायु परिवर्तन के कारण इसके तेज़ी से प्रभावित होने की संभावना है, ऐसे में किसी भी तरह की समीक्षा बेहद चुनौतीपूर्ण होगी।
यह ध्यान देने योग्य है कि जब चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने 2016 में ढाका का दौरा किया तो उन्होंने कहा: “हम एक ही नदियों से पीते हैं।” पिछले 30 वर्षों में किसी चीनी राष्ट्राध्यक्ष की बांग्लादेश की यह पहली यात्रा थी। चार साल बाद, तीस्ता के पानी पर भारत की दुविधा को देखते हुए बांग्लादेश ने नदी बेसिन के पुनर्विकास के लिए चीन की ओर रुख किया।
अगर एससीओ जलवायु परिवर्तन के मुद्दों को अपने दायरे में लेता है तो वो विभिन्न सीमाओं के आर-पार पानी के मुद्दों में भी शामिल होगा।
सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रमुख ट्रांस बाउंड्री नदियां तिब्बती पठार से निकलती हैं, जिससे चीन को अपनी दखल रखने में सहूलियत मिलती है। सार्क के कमजोर होने की स्थिति में न तो बिम्सटेक और न ही कोई अन्य क्षेत्रीय संस्था, इस मुद्दे को गंभीरता के साथ संभालने में सक्षम है। इस तरह से एक पावर वैक्यूम की स्थिति पैदा हो गई है। ऐसे में, दक्षिण एशिया में जल कूटनीति के प्रबंधन को लेकर चीन की भूमिका अनिवार्य रूप से बेहद अहम हो गई है।
यह एक आर्टिकल का एडिटेड वर्ज़न है जिसे सबसे पहले द् वायर ने प्रकाशित किया था।