पानी

विश्लेषण: जलविद्युत समझौते करते समय भारत और नेपाल पर्यावरण संबंधी मुद्दों की अनदेखी कर रहे हैं

अपने इस लेख में रमेश भूसाल का कहना है कि भारत के साथ आर्थिक संबंध बनाने के लिए नेपाल अपनी इकोलॉजी से जुड़े हितों के साथ समझौता और अपनी घरेलू प्राथमिकताओं को नज़रअंदाज़ कर रहा है।
<p>नेपाल की महत्वाकांक्षा, अपने जलविद्युत क्षमता के और अधिक दोहन की है। पश्चिमी नेपाल के लामजंग में, ऊपरी मार्स्यांगड़ी स्थित एक हाइड्रोइलेक्ट्रिक स्टेशन जैसी जगहें पहले से ही इसका प्रमाण हैं। (फोटो: बिश्नू बिदरी / अलामी)</p>

नेपाल की महत्वाकांक्षा, अपने जलविद्युत क्षमता के और अधिक दोहन की है। पश्चिमी नेपाल के लामजंग में, ऊपरी मार्स्यांगड़ी स्थित एक हाइड्रोइलेक्ट्रिक स्टेशन जैसी जगहें पहले से ही इसका प्रमाण हैं। (फोटो: बिश्नू बिदरी / अलामी)

इस जून में मॉनसून की बारिश ने नेपाल के पहाड़ी क्षेत्रों में कहर बरपाया लेकिन दक्षिणी निचले इलाके में पानी की गंभीर कमी से जूझ रहे थे। भारतीय सीमा से लगे क्षेत्रों में पड़े सूखे के कारण परसा ज़िले के कई हिस्सों में ट्यूबवेल सूख गए। विशेषज्ञों का कहना है कि यह सीमा पार जल संकट भारत और नेपाल के राजनीतिक एजेंडे से गायब है।

हिमालय की सबसे दक्षिणी तलहटी (जिसे नेपाल में चुरिया रेंज और भारत में शिवालिक के रूप में जाना जाता है) मिट्टी के कटाव, जंगलों की कटाई और तेज़ी से जनसंख्या वृद्धि के कारण गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं का सामना करती है। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन के कारण, बारिश के बदलते पैटर्न के कारण कई क्षेत्रों में गंभीर जल संकट पैदा हो गया है।

जुलाई के अंत में, पत्रकार चन्द्रकिशोर, भारत के बिहार राज्य के सीमावर्ती शहर बीरगंज में इस संकट पर अपनी तकलीफ व्यक्त करते हुए कह रहे थे : “मैंने चुरिया-शिवालिक रेंज के क्षरण का मुद्दा लगातार उठाया है, जिसके परिणामस्वरूप दक्षिणी मैदानी इलाकों में जल संकट पैदा हो गया है। इस चर्चा को सामने न ला पाना हमारी सामूहिक विफलता है और यह मुद्दा हमारे द्विपक्षीय संबंधों में से गायब है।”

द् थर्ड पोल से बात करते हुए चन्द्रकिशोर ने इस पर अपनी निराशा व्यक्त की कि ये महत्वपूर्ण मुद्दे, भारत या नेपाल में कभी भी राष्ट्रीय एजेंडे में नहीं रहे हैं- दोनों देशों की आपसी बातचीत में तो बिल्कुल भी नहीं : “काठमांडू थोड़ा सुनता भी है, लेकिन काम नहीं करता है, क्योंकि नेपाली नेतृत्व सत्ता में कैसे बने रहना है, इस पर भारत के साथ व्यस्त रहता है।” इसके अलावा, बिहार में अभी एक ऐसी पार्टी का शासन है, जो भारत में सत्तारूढ़ केंद्र सरकार के विरोधी धड़े में है। चन्द्रकिशोर के मुताबिक, “बिहार की आवाज़ दिल्ली तक कम ही पहुंचती है।”

चन्द्रकिशोर की हताशा, नेपाली सरकार द्वारा घरेलू समस्याओं को प्राथमिकता देने में व्यापक विफलता को दर्शाती है अगर वे भारत के साथ आर्थिक संबंधों को जटिल बनाते हैं या खतरे में डालते हैं। यह विफलता जल चक्र बदलने और इकोलॉजी के विनाश से लेकर अपर्याप्त बिजली ग्रिड तक है।

जलवायु परिवर्तन पर आधिकारिक चुप्पी

भारत और नेपाल हिमालय से बहने वाली कई नदियों को साझा करते हैं, जिनमें से प्रत्येक नदी लाखों लोगों के जीवन और आजीविका का केंद्र है। और प्रत्येक नदी जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति संवेदनशील है। विशेष रूप से, गंगा नदी का बेसिन का क्षेत्र (एशिया का सर्वाधिक आबादी वाला क्षेत्र) मुख्य रूप से भारत और नेपाल में स्थित है और जल-प्रबंधन के विभिन्न मुद्दों से ग्रस्त है, जिसमें खराब नदी संरक्षण, जल संसाधनों पर अनुसंधान की कमी और अपर्याप्त भूजल पुनर्भरण (रिचार्ज) शामिल हैं।

इन कारकों के बावजूद, भारत और नेपाल के बीच उच्च स्तरीय अंतर-सरकारी चर्चाओं में आमतौर पर जलवायु परिवर्तन को अनदेखा किया जाता है। साल 2014 में, प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी की पहली नेपाल यात्रा के मौके पर दोनों देशों ने संयुक्त रूप से 35-सूत्री प्रेस विज्ञप्ति जारी की, जिसमें जलवायु परिवर्तन का उल्लेख नहीं था। दोनों देशों के बीच हुई ऐसी 14 यात्राओं के दौरान जलवायु परिवर्तन पर कभी भी आधिकारिक तौर पर चर्चा नहीं हुई।

भारत के लिए जलवायु परिवर्तन एक विदेशी एजेंडा है और नेपाल के लिए यह बात करना अच्छा बनने के लिए ज़रूरी है
नेपाल के पूर्व जल संसाधन मंत्री दीपक ग्यावली 

अपनी साझा नदियों की विभिन्न कमज़ोरियों के बारे में बात करने के बजाय भारत और नेपाल इन बैठकों का उपयोग जलविद्युत की क्षमता का पता लगाने के लिए करते हैं। यह देखते हुए कि जलविद्युत (हाइड्रो) नेपाल की स्थापित बिजली क्षमता के लगभग 96% का प्रतिनिधित्व करता है, इस पर कोई हैरानी नहीं होती। जून में नेपाली प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल की भारत यात्रा के दौरान एक दीर्घकालिक ऊर्जा व्यापार समझौते को अंतिम रूप दिया गया : मोदी ने एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में पुष्टि की कि “भारत अगले दशक में 10,000 मेगावाट बिजली का आयात करेगा।” पानी से संबंधित इकलौता पॉइंट जिस पर संक्षिप्त चर्चा की गई, वह बाढ़ नियंत्रण था।

इस बीच, जून में रेलवे से लेकर पेट्रोलियम पाइपलाइन तक कई सीमा पार परियोजनाओं का उद्घाटन किया गया। इनमें दक्षिण एशिया की पहली अंतरराष्ट्रीय पेट्रोलियम पाइपलाइन, मोतिहारी-अमलेखगंज के दूसरे चरण का निर्माण भी शामिल है।

नेपाल के पूर्व जल संसाधन मंत्री दीपक ग्यावली ने द् थर्ड पोल को बताया : “भारत के लिए जलवायु परिवर्तन एक विदेशी एजेंडा है और नेपाल के लिए, यह बात करना अच्छा बनने के लिए ज़रूरी है, खासकर पश्चिमी देशों के साथ।”

बिजली वितरण की समस्या

भले ही नेपाल, भारत के लिए जल विद्युत आपूर्ति पर ज़ोर देता है, लेकिन उसके अपने कुछ लोगों को अभी तक पर्याप्त बिजली आपूर्ति नहीं होती है। मध्य नेपाल में काठमांडू घाटी के दक्षिणी इलाके भैसेपति में एक चाय के दुकानदार (जो गुमनाम रहना चाहते थे) ने द् थर्ड पोल से बात की: “बिजली के चूल्हे पर भरोसा करना कठिन है। मुझे समझ नहीं आता कि बार-बार क्यों बिजली कटौती हो रही है।”

यह जुलाई के अंत की बात है, जब मॉनसून की बारिश पूरे ज़ोरों पर थी, और नदियां उफ़ान पर थीं, जो कि जल विद्युत उत्पादन के लिए अच्छी स्थितियां हैं। द् थर्ड पोल से बात करते हुए नेपाल विद्युत प्राधिकरण (एनईए) के प्रवक्ता सुरेश बहादुर भट्टराई ने बताया कि नेपाल में वर्तमान स्थापित जलविद्युत क्षमता और उत्पादन क्रमशः लगभग 2,800 मेगावाट (मेगावाट) और 2,100 मेगावाट है, जबकि चरम मांग लगभग 1,800 मेगावाट है। यानी, ऐसे में बिजली उपलब्ध होनी चाहिए। लेकिन नेपाल में वितरण की समस्याएं हैं।

 Koshi River Barrage
भारत-नेपाल समझौतों में, सीमा पार नदी मुद्दों, जैसे 1958 में बने कोसी नदी बैराज को न तो पर्यावरण और न ही जलवायु परिवर्तन के मुद्दों को शामिल किया गया है (फोटो: अलामी)

द् थर्ड पोल ने नेपाल विद्युत प्राधिकरण के पूर्व प्रबंध निदेशक मुकेश काफले से बात की तो उन्होंने बताया, “ऊर्जा उत्पादन पर बहुत अधिक ध्यान दिया गया है, लेकिन ट्रांसमिशन लाइनों का निर्माण और वितरण प्रणाली में सुधार उस तरह से नहीं हुआ है। परिणामस्वरूप, कई पनबिजली परियोजनाएं उत्पन्न ऊर्जा को ग्रिड तक भेजने में सक्षम नहीं हैं और बढ़ती मांग के साथ, स्थानीय वितरण प्रणालियां लोड को संभालने में सक्षम नहीं हैं।” इससे बार-बार बिजली कटौती होती है।

पश्चिमी लामजंग ज़िले में नेपाली जलविद्युत परियोजना के डेवलपर होने के नाते गणेश कार्की इस समस्या से वाकिफ हैं: “हमारे पास दोर्डी नदी में सुपर दोर्डी नामक 54 मेगावाट की एक परियोजना है (जो मार्स्यांगड़ी की एक सहायक नदी है) लेकिन अभी हम केवल 10 मेगावाट बिजली दे पा रहे हैं। यदि हमारे पास ट्रांसमिशन लाइन होती, तो यह पूरी क्षमता से चल सकती थी।

भट्टराई इस आकलन से सहमत हैं: “हमारे वितरण नेटवर्क में कई स्थानों पर मांग को पूरा करने के लिए बिजली ले जाने की क्षमता नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप बार-बार ट्रिपिंग होती है।” भट्टाराई आवश्यक ट्रांसमिशन लाइनें बिछाने के लिए भूमि और जंगलों को साफ़ करने में ज़्यादा समय लगने को दोषी मानते हैं; प्रभावित ग्रामीण रुकावटें पैदा कर सकते हैं और राजनीतिक सहयोग की कमी है। उन्होंने आगे कहा, ”अगर चीज़ें ऐसी ही रहीं, तो भविष्य में और भी बदतर स्थिति होगी।”

भारत के लिए ऊर्जा

नेपाली जलविद्युत डेवलपर इसलिए भारत को ऊर्जा बेचने की संभावना से उत्साहित हैं। कार्की कहते हैं, ”घरेलू मांग को तुरंत बढ़ाना आसान नहीं है, इसलिए हमारे पास भारत ही एकमात्र बाज़ार है।”

28 जून 2023 तक नेपाल के विद्युत विकास विभाग के पास 1 मेगावाट या उससे अधिक क्षमता वाली जलविद्युत परियोजनाओं के लिए 241 निर्माण लाइसेंस जारी किए गए थे, जो कुल मिलाकर 8,820 मेगावाट से अधिक का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके अलावा, 8,680 मेगावाट से अधिक निर्माण वाली जलविद्युत परियोजनाएं मंजूरी की प्रतीक्षा में हैं।

इस बीच, जल संसाधन, ऊर्जा और सिंचाई मंत्रालय ने द् थर्ड पोल को बताया कि वह 10-वर्षीय राष्ट्रीय जलविद्युत योजना पर काम कर रहा है। मंत्रालय अभी ब्योरा साझा करने को तैयार नहीं है।

मौजूदा पागलपन महंगा पड़ेगा। 
नेपाल नदी संरक्षण ट्रस्ट के अध्यक्ष मेघ एले 

लेकिन हर कोई भारत को बिजली बेचने को लेकर उतना उत्साहित नहीं है, जितना कि नेपाल के निजी डेवलपर्स। ग्यावली का मानना है कि नेपाली जलविद्युत में ऐसी दिलचस्पी बाज़ार की ताकतों द्वारा नहीं, बल्कि नेपाल पर रणनीतिक नियंत्रण स्थापित करने की भारत सरकार की इच्छा से प्रेरित है।

भारत केवल नेपाली जलविद्युत का आयात करता है, जो भारतीय निवेश के परिणामस्वरूप हुआ है और इसने नेपाल के प्रमुख जलविद्युत निवेशक चीन की जगह ले ली है। भारत अब 4,000 मेगावाट की परियोजनाओं के निर्माण का वित्तपोषण कर रहा है और जून में दहल और मोदी द्वारा अतिरिक्त 1,100 मेगावाट की परियोजनाओं पर हस्ताक्षर किए गए थे।

बिजली बनाम इकोलॉजी

नदी संरक्षणवादी भारत के लिए जलविद्युत विकसित करने की घरेलू लागत को लेकर भी चिंतित हैं।

नेपाल नदी संरक्षण ट्रस्ट के अध्यक्ष मेघ एले द् थर्ड पोल को बताते हैं: “कल्पना कीजिए कि यदि आप सिर्फ़ बिजली के बारे में सोचेंगे, तो इन नदियों का क्या होगा। पिछले दो दशकों में हमने कर्णाली को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख नदी प्रणालियों पर बांध बना दिया है। हमें बिजली की आवश्यकता को कम न करते हुए पारिस्थितिकी और पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में भी सोचना चाहिए। मौजूदा पागलपन महंगा पड़ेगा।”

एले की भावनाओं को ग्यावली भी दोहराते हैं: “हमें कम परियोजनाएं विकसित करनी चाहिए और इसका उपयोग घरेलू उद्देश्यों के लिए करना चाहिए।”

कई अध्ययनों ने चेतावनी दी है कि नेपाल के बांधों ने पहले ही जलीय जैव विविधता को प्रभावित किया है। 2018 में एशियाई विकास बैंक के एक अध्ययन में कहा गया है: “नदियों पर बांध बनाने से गंभीर और अपरिवर्तनीय प्रभावों के साथ भारी पर्यावरणीय लागत आई है, जिसमें कई मछली प्रजातियों की आबादी में तेजी से गिरावट भी शामिल है।”

जलवायु परिवर्तन से पहले की नीतियां

त्रिभुवन विश्वविद्यालय के आपदा अध्ययन केंद्र के निदेशक बसंत राज अधिकारी ने द् थर्ड पोल को बताया कि नेपाली जलविद्युत में भारत का बढ़ता निवेश जलवायु परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए पर्याप्त है: “यह भारत के अपने निवेश को प्रभावित करने वाला है। पूर्वी नेपाल की पहाड़ियों में जून में हुई अत्यधिक बारिश से कई जलविद्युत परियोजनाएं बह गईं।”

इंस्टीट्यूट फॉर सोशल एंड एनवायरनमेंटल ट्रांज़िशन के सलाहकार अजय दीक्षित कहते हैं, “यह मूल रूप से समस्या के पैमाने को कम करके आंकना है।” 

अप्रैल में संस्थान ने चुरिया रेंज से निकलने वाली सीमा पार नदियों पर एक रिपोर्ट जारी की। यह रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि इन नदियों को नियंत्रित करने वाले विभिन्न नेपाल-भारत समझौते 100 साल पुराने हैं: “संधि के प्रावधान स्थायी जल प्रबंधन, भागीदारी को बढ़ावा, या उभरते जोखिमों की पहचान को कवर नहीं करते हैं।”

नेपाल की नदियों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के संबंध में भारी मात्रा में जानकारी उपलब्ध है। काठमांडू में इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट द्वारा जून, 2023 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, “हिमनदों के तेजी से पिघलने के कारण [हिन्दू कुश हिमालय] में पानी की उपलब्धता सदी के मध्य में चरम पर होने की उम्मीद है, जिसके बाद इसमें गिरावट का अनुमान है।”

दुर्भाग्य से, ऐसा लगता है कि नीति निर्माताओं के बीच इन पर्यावरणीय अनुमानों पर बहुत कम विचार किया जा रहा है।