इस साल स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राजस्थान के जालोर जिले में नौ वर्षीय दलित बच्चे इंद्र मेघवाल की उसके ही एक शिक्षक, जो कि ‘उच्च जाति’ से ताल्लुक रखते हैं, ने पीटकर हत्या कर दी। इंद्र मेघवाल की हत्या की वजह यह थी कि उसने अपने उच्च जाति के शिक्षक के लिए रखे बर्तन से पानी पी लिया था। इंद्र मेघवाल की हत्या ऐसी कोई अकेली घटना नहीं है।
देश के कई हिस्सों के स्कूलों में पीने के पानी के लिए दलित छात्र-छात्राओं को हिंसा और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। इंद्र मेघवाल की हत्या के बाद ऐसी ही कुछ घटनाओं की व्यापक रिपोर्ट यहां है: 12 फरवरी 2023 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के सीरवासुचंद गांव के एक सोलह वर्षीय दलित लड़के को उसकी बोतल से पानी पीने के लिए उसके प्रिंसिपल ने पीटा था। मार्च 2023 में उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के एक अन्य नौ वर्षीय दलित बच्चे को तालाब से पानी पीने के लिए एक शिक्षक ने पीटा था। जुलाई 2023 में, राजस्थान के नेतराड गांव (बाड़मेर जिले) के एक दलित लड़के के साथ स्कूल के बर्तन से पानी पीने के कारण उसके शिक्षक द्वारा शारीरिक दुर्व्यवहार किया गया था।
सात दशक पहले भारतीय संविधान द्वारा अस्पृश्यता को कानूनी रूप से समाप्त कर दिया गया था। अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 (एससी/एसटी पीओए, 1989) को इंद्र मेघवाल की हत्या जैसे हमलों के खिलाफ अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करने वाला माना जाता है।
इसके बावजूद, डॉ अम्बेडकर के नेतृत्व में 1927 में हुए महाड़ सत्याग्रह के करीब एक शताब्दी बाद भी पीने का पानी हासिल करना आखिर सबसे खराब जातिगत अत्याचार क्यों बना हुआ है?
भारत में सामाजिक और पर्यावरण संबंधी विमर्श ने पानी की चर्चा में जाति को काफ़ी हद तक गायब कर दिया है।
पानी पीने की वजह से जातिगत अत्याचार की खतरनाक घटनाएं लगातार हो रही हैं। उसके बावजूद भारत में सामाजिक और पर्यावरण संबंधी विमर्श ने पानी की चर्चा में जाति को काफी हद तक अदृश्य बना दिया है। जाति एक “गायब कड़ी” बनी हुई है। मुकुल शर्मा जैसे विद्वानों ने दिखाया है कि किस तरह से पर्यावरण संबंधी चर्चा में जाति केंद्रीय नहीं है, यहां तक कि तब भी जब न्याय जाहिर तौर पर पड़ताल का प्राथमिक क्षेत्र हो।
श्रम विभाजन के बजाय प्योरिटी-पलूशन यानी पवित्रता-प्रदूषण या ‘श्रमिकों के विभाजन’ के प्रश्न – भारत की जाति पदानुक्रम की विशेषताएं – भारत में पर्यावरण और जल विमर्श के दायरे से बाहर हैं। इस उपेक्षा का एक प्रमुख कारण यह है कि भारतीय पर्यावरण अध्ययन (पानी सहित) में उच्च जाति के विद्वानों, शोधकर्ताओं और शिक्षाविदों का वर्चस्व है। इनके पास इस बात का बहुत कम या कोई अनुभव नहीं है कि भारत की बहुजन जनता का पानी और पर्यावरण को लेकर अनुभव कैसा है।
इस बहुजन बहिष्कार का यह संकट ही है कि हम बहुत आसानी से कह सकते हैं कि पानी तक पहुंच एक मौलिक मानव अधिकार है, जबकि हम इस बात की उपेक्षा कर सकते हैं कि किस तरह से जाति इस मौलिक अधिकार की वास्तविक प्राप्ति में सबसे महत्वपूर्ण बाधा है।
पानी की पहुंच से जुड़ी चर्चा के इर्द-गिर्द जाति का अदृश्य होने का मतलब साफ है कि भारत में जल संबंधी समस्याएं तकनीकी चर्चा में सिमट कर रह गई हैं। अगर सबसे अच्छे रूप में इस चर्चा होती है तो भी यह भौतिक, जल विज्ञान चक्र तक होती है जिसे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रभावों से स्वतंत्र माना जाता है। हमारी प्राथमिक विद्यालय की पाठ्य पुस्तकों में जल चक्र सूर्य, बादलों, पहाड़ों, नदियों, झीलों और महासागरों की एक सुंदर तस्वीर के साथ-साथ वाष्पीकरण, वाष्पोत्सर्जन, संघनन, वर्षा और कभी-कभी भूजल की प्रक्रिया के साथ जल विज्ञान चक्र का परिचय देता है।
हालांकि, किसी भी भारतीय पाठ्यपुस्तक में जल चक्र के इस परिचय में लोगों को चित्रित नहीं किया गया है। हमारे पास जल संकट है क्योंकि इस ‘प्राचीन’ तस्वीर को मानव अर्थव्यवस्था और समाज द्वारा संशोधित किया गया और इस पर दबाव दिया गया। विभिन्न शहरों और कस्बों में लोग भौतिक जल चक्र में हस्तक्षेप करके ‘लिव-वर्क-प्ले’ वाला जीवन जी रहे हैं।
उदाहरण के लिए, मेरा मौजूदा निवास स्थान, बेंगलुरु, 100 किलोमीटर दूर एक नदी स्रोत से एक वर्ष में लगभग उतना ही नदी जल आयात करता है जितना शहर को वर्षा के रूप में प्राप्त होता है। निकाले गए कुल भूजल को और उस अपशिष्ट को इसमें जोड़ा जाना चाहिए जिसे वापस प्रवाहित किया जाता है। इस तरह से, एक पूरे जल विज्ञान चक्र पर मानवीय प्रभाव, भौतिक चक्र को बौना बना देता है।
पर्यावरण संबंधी भारतीय विमर्श, जल विज्ञान चक्र पर मानव प्रभाव को पर्याप्त रूप से चित्रित करने में सक्षम नहीं है। दरअसल, लोगों को गहरी पदानुक्रमित जाति संरचना से अलग नहीं किया जा सकता है। जबकि यही वास्तव में भारत में मानव-जल संबंधों को नियंत्रित करता है।
जल विमर्श में जाति की बात साफ़-साफ़ करें
हम भारत में पानी से जुड़े न्याय और स्थिरता (‘न्यायसंगतता’) के सवालों के बारे में तब तक गंभीर नहीं हो सकते जब तक हम ‘सी’ यानी कास्ट यानी जाति शब्द का सामना नहीं करते। जाति हमारी जल संबंधी समस्याओं में सबसे आगे है और केंद्र में है। ऐसा करने से हम यह समझना शुरू कर देंगे कि दलित, आदिवासी और हाशिये पर रहने वाले अन्य समूह, जल चक्र के हर बिंदु पर किस तरह से अन्याय सहते हैं।
एक हालिया अध्ययन, ‘कास्ट लाइन्स इन बेंगलुरु‘ में, शोधकर्ता सुमंतो मोंडल ने स्थलाकृति और जाति के बीच संबंध का अध्ययन किया।मोंडल के मानचित्रण से पता चलता है कि बेंगलुरु के अधिकांश काफी ऊंचाई वाले मैदानों पर उच्च जाति के कुलीन समूहों ने कब्जा कर लिया, जबकि बड़ी संख्या में झुग्गी-झोपड़ियों वाली बस्तियों में निम्न जाति समूहों को उनके बिल्कुल आसपास के सबसे निचले इलाकों में बसाया गया।
ऐसी स्थलाकृतिक असमानता दरअसल जल विज्ञान चक्र की रूपरेखा को परिभाषित करती है। निचले इलाकों के निवासी, बाढ़ जैसे प्राकृतिक खतरों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। जिस तरह से पृथ्वी गर्म हो रही है, उस हिसाब से बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं ज्यादा आएंगी और ज्यादा घातक होंगी। शहरों को बाढ़ का सामना करने लायक बनाने वाली बात, तब तक पूरी नहीं हो सकती, जब तक हम यह सवाल भी नहीं पूछते कि भारतीय कस्बों और गांवों में स्थलाकृतिक मानचित्र, जाति पदानुक्रम के हिसाब से क्यों हैं।
हालांकि, यह एक ऐसा प्रश्न है जो भारत में मौजूदा पर्यावरण विद्वानों द्वारा शायद ही कभी पूछा जाता है। ऐसे में बाढ़ के मामले में आधिकारिक नौकरशाही के रुख की बात तो छोड़ ही देनी चाहिए।
दलितों के लिए जाति एक प्रत्यक्ष ‘प्राकृतिक खतरा’ है जो हर जगह उनका पीछा करता है। द् हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार, मई 2023 में, बेंगलुरु के बाहरी इलाके राजनकुंटे में उच्च जाति के लोगों द्वारा दो दलित युवकों की हत्या कर दी गई थी। वजह यह थी कि इन दोनों दलित युवकों ने एक होटल में ऊंची जातियों के लिए आरक्षित पानी के जार से पानी पी लिया था। पानी, जल विज्ञान चक्र के माध्यम से कैसे बहता है, यह बात जाति के ‘प्रवाह’ से अलग करके नहीं देखी जा सकती है।
अम्बेडकर ने प्रसिद्ध तर्क दिया कि पानी ‘स्पृश्यों’ और ‘अछूतों’ के बीच एक सीमा बनाए रखने के लिए केंद्रीय है। भारत में दलितों और आदिवासियों द्वारा झेले जाने वाले हिंसक उत्पीड़न का स्रोत इस सीमा को बनाए रखना और नियंत्रण करना है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के खिलाफ अत्याचार में क्रमशः 1.2 फीसदी और 6.4 फीसदी की वृद्धि हुई है।
इसके अलावा, रिपोर्ट से पता चलता है कि एससी/एसटी के खिलाफ अधिकांश जातिगत अत्याचार, पीने के पानी के स्रोतों तक पहुंच को लेकर होने वाले संघर्षों से संबंधित हैं। ‘भूजल: अदृश्य को दृश्यमान बनाना’ 2022 संयुक्त राष्ट्र विश्व जल दिवस के लिए चुना गया विषय था। इस प्रयास में कई भारतीय पर्यावरण विद्वानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उत्साहपूर्वक भाग लिया। भारत में उच्च जाति का पर्यावरण संबंधी विमर्श हमेशा ‘आपका पानी कहां से आता है और आपका अपशिष्ट जल कहां जाता है’ के सवालों से जुड़ा रहा है।
अफसोस की बात है कि ऊंची जातियों ने कभी भी यह सवाल पूछने की जहमत नहीं उठाई कि ‘पानी कौन लाता है’ या ‘अपशिष्ट जल के बुनियादी ढांचे को कौन संभालता है’। उनकी जन्म-आधारित पहचान, ‘उनकी जाति’ के विशेषाधिकार ने उन्हें दलितों और हाशिए के लोगों के जीवन के अनुभवों से बचा लिया है। भूजल, या भारत में कोई भी पानी, तब तक अदृश्य रहेगा, जब तक कि पानी और स्वच्छता संबंधी चर्चा, जाति के उल्लेख पर शुतुरमुर्ग जैसी प्रतिक्रिया देना बंद नहीं कर देती।
जाति को नज़रअंदाज़ करना कोई विकल्प नहीं है
एक दलित के रूप में, जो जल संसाधनों के प्रबंधन में पेशेवर रूप से लगा हुआ है, जल विज्ञान चक्र पर जाति की छाया को नज़रअंदाज़ करना मेरे लिए कोई विकल्प नहीं है। जल चक्र के साथ निरंतर संघर्ष के कारण मेरा जीवन चक्र बाधित हो गया है।
जब मेरी मां गर्भवती थीं, तब भी उन्हें सिद्धार्थ नगर (महाराष्ट्र के नांदेड़ में एक दलित कॉलोनी) में घर के लिए पानी इकट्ठा करने के लिए संघर्ष करना पड़ता था। मेरे पास सार्वजनिक हैंडपंपों से पानी लाने के लिए अपने पिता की बाइक पर कई चक्कर लगाने की स्थायी यादें हैं। इसका मतलब है कि मुझे अक्सर स्कूल का काम छोड़ना पड़ता था। गर्मियों ने इसे और भी बदतर बना दिया था।
यदि आप नगर निगम के टैंकरों के ऊपर नहीं चढ़ सकते और पानी खींचने के लिए पाइप नहीं डाल सकते, तो परिवार को प्यासा ही रहना पड़ेगा। जैसे-जैसे पानी का स्तर नीचे गिरता गया, बाइक यात्राएं भी अधिक होने लगीं। ऊंची जाति के बच्चों के विपरीत दलित बच्चों के लिए जल संरक्षण का मतलब कुछ और ही था। दरअसल, ऊंची जाति के बच्चे प्रचुर मात्रा में पाइप से पानी ले रहे थे और निजी टैंकर उनके बड़े भंडार को भर रहे थे। मेरे जैसे अदृश्य लोगों के लिए पानी कभी अदृश्य नहीं रहता।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्वतंत्र भारत के हाथ से मैला ढोने वाले लोग सबसे अधिक अदृश्य हैं। जब बाढ़ शहरों में आती है और सीवर सहित शहर के प्रमुख बुनियादी ढांचे को अवरुद्ध कर देती है, तो ये हाथ से मैला ढोने वाले ये ‘अदृश्य’ सफाई कर्मी शहरों को चालू रखने के लिए अपनी जान जोखिम में डालते हैं। वैसे तो उनकी मृत्यु की खबरें दिखाई दे रही हैं, लेकिन उनका अस्तित्व अभी भी उच्च जाति के ‘जल चक्र’ द्वारा अदृश्य है।
जाति के संबंध में भारतीय पर्यावरणविदों और अकादमिक शोधकर्ताओं के बीच अदृश्यता का यह पर्दा, ‘तकनीकी’ और ‘सामाजिक’ अनुशासनात्मक सीमाओं के बीच सबसे महत्वपूर्ण अंतर बना हुआ है। हाल के प्रयासों (उदाहरण के लिए अंबिका अय्यादुरई और उनकी लैब द्वारा) ने ‘मानव-पर्यावरण’ संबंध की पुनर्कल्पना का आह्वान किया है।
पारिस्थितिकी से संबंधित वैश्विक दृष्टिकोण में ब्राह्मणवादी और पुरुष-केंद्रित प्रभुत्व एक बाधा के रूप में काम करता है। यह देश के शैक्षणिक, गैर-शैक्षणिक और नीतिगत मंचों पर पर्यावरण की शैक्षणिक परिभाषा में दलितों और हाशिए के लोगों के दृष्टिकोण को केंद्र में आने से रोकता है। जब तक हम यह नहीं मान लेते कि जाति एक ऐसी गोंद है जो हमारे समाज में भौतिक और सामाजिक स्थितियों को साथ जोड़ता है तब तक उच्च जातियों द्वारा इन विषयों पर काम आगे नहीं बढ़ाया जा पाएगा। इस मुद्दे पर हर शोध नियमित रहेगा।
वास्तव में, मानवीय गरिमा और भारत में हर व्यक्ति के लिए पानी तक पहुंच के समान अधिकार सुनिश्चित करने के लिए जाति और जल चक्र के बीच के संबंधों को समझना होगा। हालांकि, दलितों और अन्य हाशिये पर रहने वाले समूहों के लिए, यह समय-समय पर मिलने वाली राहत भी नहीं है। जब तक हम यह पहचान नहीं करते कि भारतीय जल विज्ञान चक्र, जाति के साथ किस तरह से जुड़ा हुआ है, तब तक भारत के टूटे हुए लोगों (दलितों) के लिए जल चक्र टूटा हुआ रहेगा।
यह लेख पहली बार द् वायर पर प्रकाशित हुआ था और अनुमति के साथ यहां दोबारा प्रकाशित किया गया है।