देश के प्रमुख उत्तरी राज्यों राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में भू-जलस्तर में बहुत तेजी से गिरावट आ रही है। यह काफी चिंताजनक स्थिति है। नासा और भारतीय वैज्ञानिकों का कहना है कि पांच साल पहले एक नई रिमोट सेंसिंग तकनीक के जरिये की गई मैपिंग से भू-जलस्तर में गिरावट का पता चला था और उसके बाद यह गिरावट लगातार जारी है।
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी की गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर में जलविज्ञानी मैथ्यू रॉडेल कहते हैं, हमने टाइम सीरीज अपडेट की थी। इससे पता चला कि 2009 में जिस रफ्तार से भू-जलस्तर में गिरावट हो रही थी, वह रफ्तार अब भी जारी है।
गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर, समस्या की तीव्रता का पता लगाने के लिए पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र की सेटेलाइट आधारित मापन का इस्तेमाल करता है। रोडेल कहते हैं, इस क्षेत्र के लिए एक या दो वर्ष ऐसे आए जब यहां ठीक-ठाक बारिश हुई लेकिन उसके बाद गिरावट आने लगी। वैसे तो किसी साल कम तो किसी साल ठीक-ठाक बारिश होना प्राकृतिक स्थिति है लेकिन इस दौरान होने वाली बारिश का औसत निकालें तो वह कम है। साथ ही लंबे अवधि वाले भू-जलस्तर में गिरावट की दर स्थिर है।
एक अन्य अध्ययन- यह भी ग्रैविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरीमेंट (जीआरएसीई) के आंकड़ों पर आधारित है- में खुलासा हुआ है कि सबसे सघन सिंचित इलाके मसलन, उत्तर भारत, पूर्वी पाकिस्तान और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में पृथ्वी के किसी अन्य हिस्से की तुलना में भू-जलस्तर में गिरावट की दर शायद सबसे ज्यादा है। हैदराबाद में सीएसआईआर- नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट, यूनिवर्सिटी ऑफ कोलोराडो और बॉउल्डर में नेशनल सेंटर फॉर एटमॉसफेरिक रिसर्च के वैज्ञानिकों ने संकेत दिया है कि भू-जलस्तर में सालाना गिरावट की कुल रफ्तार 54 क्यूबिक किलोमीटर है। यह रॉडेल के परिणामों के अनुरूप है।
रॉडेल के पेपर के साथ ही नेचर में एक स्टोरी प्रकाशित हुई थी जिसके अनुसार, उत्तर पश्चिम भारत में भू- जलस्तर में गिरावट को एक समस्या के रूप में जाना जाता है। लेकिन रॉडेल के आंकड़ों की मानें तो गिरावट की यह दर भारतीय प्राधिकरणों के पूर्वानुमान की तुलना में तकरीबन 20 फीसदी अधिक है।
सीएसआईआर (काउंसिल फॉर साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च)- नेशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के प्रोजेक्ट लीडर वीरेंद्र तिवारी इसकी पुष्टि करते हैं, हमने अब भू-जल स्तर के आंकड़े संकलित किए हैं और वे इसी तरह के ट्रेंड प्रदर्शित करते हैं। वह बताते हैं कि भारत के केंद्रीय भू-जलस्तर बोर्ड ने 2012 में भू-जलस्तर गिरावट को प्रदर्शित करने के लिए एक एटलस जारी किया था।
रॉडेल ने बताया है कि जमीन से पानी की निकासी के लिए बिजली की मुफ्त आपूर्ति इस क्षेत्र में भूजलस्तर में तेजी से आ रही गिरावट की मुख्य वजह है। तिवारी कहते हैं कि सरकार ने इस समस्या को हल करने के लिए कुछ कदम उठाए हैं।
द हिंदू समाचार पत्र के अनुसार, 12वीं पंचवर्षीय योजना में स्पष्ट रूप से ज्यादा समग्र जलदायी स्तर प्रबंधन रणनीति की बात कही गई है। इसमें कृषि और घरेलू इस्तेमाल के लिए दी जाने वाली बिजली को अलग-अलग करने की बात भी शामिल है ताकि बिजली के मुफ्त इस्तेमाल और भू-जलस्तर के अति इस्तेमाल के चक्र को तोड़ा जा सके। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि क्या इन कदमों को लागू भी किया गया है या इनका कोई असर भी पड़ा है।
रॉडेल कहते हैं कि यह हालात आग बुझाने के लिए काम करने जैसा है। हमारे अध्ययन के समय उन राज्यों में 11.4 करोड़ लोग रहते थे और उनमें से काफी लोगों को पानी के लिए जद्दोजहद करना पड़ता था। वहां एक साल में कुओं के 30 फीट तक नीचे जाने की अनेक वाकये भी हैं।
इसके अलावा अगर आप पानी में भूगार्भिक तत्वों की बात करें तो वह स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। साथ ही पीने के लिहाज से उस पानी गुणवत्ता भी काफी खराब है। इस तरह से यह अरक्षणीय है।
तिवारी ने नीति से संबंधित कुछ सुझाव दिए हैं। उनमें जलवायु परिवर्तन के ट्रेंड को देखते हुए हर साल पुनर्जीवित किए जा सकने योग्य जल भंडारणों का मूल्यांकन करना शामिल है। इससे संसाधनों के नियोजन और बड़ी संख्या में छोटे तालाबों के निर्माण में मदद मिलेगी। भारत में पहले बड़ी संख्या में छोटे तालाबों का अस्तित्व हुआ करता था।
जीआरएसीई द्वारा प्रयोग में लाए गए आंकड़े और रॉडेल, तिवारी और उनके सहयोगियों द्वारा इस्तेमाल की गई अनुसंधान तकनीक दुनिया भर में पानी की कमी से जूझ रहे क्षेत्रों में जल संसाधनों के मूल्यांकन का भरोसा दिलाते हैं। भू-जलस्तर में गिरावट से संबंधित अध्ययन मध्य पूर्व और द नॉर्थ चाइना प्लेन से संबंधित हैं।
ग्रेस ने इस काम के लिए दो सेटेलाइट को आपस में मिलाया है जो एक-साथ पृथ्वी की कक्षा से 200 किमी की दूरी पर परिक्रमा करते हैं। ग्रेस, पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में भिन्नता मापकर काम करता है क्योंकि यह दोनों सेटेलाइट की कक्षाओं में बाधा डालता है जिसके कारण समय के साथ दोनों के बीच दूरी बनती है।
इन सेटेलाइट्स के इंटरफेरोमीटर्स, माइक्रोंस के स्तर तक नीचे बेहद शुद्धता के साथ दूरियों को मापने के लिए एक-दूसरे को माइक्रोवेव किरणें भेजते हैं। उनके स्पष्ट स्थान और दोनों के बीच दूरी की रिकॉर्डिंग द्वारा वैज्ञानिक पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के आकार का मापन कर सकते हैं। साथ ही पृथ्वी के नीचे द्रव्यमान में बदलाव के कारण महीने दर महीने बदलाव देखा जा सकता है।
ये बदलाव तीन कारकों में से मुख्य रूप से एक के कारण हैं। तीन कारकों में समुद्री ज्वार और वायुमंडलीय परिसंचरण को अलग से मापा जा सकता है और आंकड़े से घटाया जा सकता है। जबकि तीसरे कारक स्थलीय जल भंडारण में सतह का जल, हिम, बर्फ, मिट्टी की नमी और भू-जल है।
रॉडेल के शोध पत्र में बताया गया है कि पृथ्वी का अवलोकन करने वाले अन्य सेटेलाइट्स की तुलना में इसका स्थानिक और सामयिक रेजुलूशन हालांकि कम है लेकिन ग्रेस की सबसे खास विशेषता है कि यह सभी स्तरों पर संग्रह जल का अनुभव कर लेता है जिसमें भू-जल भी शामिल है।
रडार्स और रेडियोमीटर्स की विपरीत यह केवल वायुमंडलीय मापन और सतह के नजदीक काम करने तक सीमित नहीं है। राजस्थान, पंजाब और हरियाणा में शोधकर्ताओं ने पाया है कि अगस्त 2002 से लेकर अक्टूबर 2008 के बीच कुल 109 क्यूबिक किलोमीटर जल का नुकसान हुआ है। यह मात्रा अमेरिका में मानव निर्मित जलाशय लेक मीड की संग्रह क्षमता का तकरीबन तीन गुना है।
नासा ने एक वेबसाइट तैयार किया है जिसमें ग्रेस के आंकड़ों और शोध के परिणामों की व्याख्या के लिए ग्राफिक्स और वीडियो का सहारा लिया गया है। रॉडेल कहते हैं कि वह एक नये दस्तावेज पर काम कर रहे हैं जो आगे की परिस्थिति को अपडेट करेगा।