नरेंद्र मोदी, भारत के पहले प्रधानमंत्री नहीं हैं जिन्होंने गंगा के वैभव को पुनर्जीवित करने का वादा करते हुए इसकी बदतर हालत की तरफ देश का ध्यान खींचा है। हां, यह अलग बात है कि मोदी की भाषा और मां गंगा के पुनरुद्धार की उनकी प्रतिबद्धता की बात, सीधे तौर पर और मजबूती से उभरकर सामने आ रही है। इसके अलावा यह भी कहा जा रहा है कि साबरमती के मॉडल पर ही देश की अन्य नदियों विशेषकर दिल्ली में यमुना नदी का भी कायाकल्प किया जाएगा।
गंगा एक्शन प्लान (जीएपी) शुरू किया था। इसका उद्देश्य गंगा और इसकी सहायक नदियों की पानी की गुणवत्ता को इस स्तर तक ले जाना था ताकि वह नहाने योग्य हो सके। बाद की सभी सरकारों ने न केवल इस कार्यक्रम को जारी रखा बल्कि इसके दायरे और कार्यक्षेत्र में विस्तार भी किया। पर्यावरण मंत्रालय की सालाना रिपोर्ट के अनुसार दिसंबर, 2012 के आखिर तक देश के 20 राज्यों के 190 कस्बों में 41 नदियों की सफाई के लिए 4,032 करोड़ रुपये (672 मिलियन डॉलर) खर्च किये जा चुके हैं।
विज्ञान व प्रौद्योगिकी और पर्यावरण व वन पर विभाग संबंधी संसद की स्थायी समिति ने अनुदानों मांगों (2012-13) की 224वीं रिपोर्ट 18 मई, 2012 को राज्यसभा में पेश किया जो कि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की ग्यारहवीं और बारहवीं पंचवर्षीय योजना के तहत होने वाले आवंटन से संबंधित थी। इसमें बेहद अफसोस के साथ कहा गया है,
समिति ने इस तथ्य पर गौर किया है कि गंगा की सफाई का अभियान गंगा एक्शन प्लान के तहत छठीं पंचवर्षीय योजना में शुरू हुआ था। इसके बाद गंगा एक्शन प्लान -2 और मंत्रालय की तरफ से अलग-अलग नामों से कुछ अन्य योजनाएं चलाई गईं लेकिन उनके अंतिम नतीजे जगजाहिर हैं। गंगा के पानी की गुणवत्ता में दिनों-दिन गिरावट आती जा रही है।
जीएपी की तरह ही 1993-94 से ही जापान की मदद से यमुना एक्शन प्लांस (वाईएपी) भी चल रहा है। 2011 में वाईएपी के दूसरे चरण के अंत तक, गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदी की सफाई पर तकरीबन 1,500 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं लेकिन इसमें भी कोई खास कामयाबी नहीं मिली है। इस तरह एक बात तो स्पष्ट हो चुकी है कि 1980 के दशक के मध्य से नदी सफाई को लेकर किए गए प्रयास, अपनी नदियों के पुनरुद्धार के मामले में पूरी तरह असफल रहे हैं। यहां तक गंगा एक्शन प्लान शुरू होने के 30 साल बाद सरकारी की अगुवाई में देश में एक भी नदी के कायाकल्प का सफल उदाहरण हमारे सामने नहीं है।
तो क्या हम अब मोदी की अगुवाई वाली नई सरकार से किसी चमत्कार की उम्मीद कर सकते हैं? इस संदर्भ में, नदी मामलों की मंत्री उमा भारती की एक टिप्पणी से कुछ उम्मीद की जा सकती है जिसमें उन्होंने नदियों की सफाई नामक शब्दावली को खारिज करते हुए पुनरुद्धार शब्द इस्तेमाल किया है। कुछ लोग यह भी सवाल उठा सकते हैं कि इससे कितना फर्क पड़ेगा। लेकिन जब पुनर्जीवन और जीर्णोद्धार की बात आ जाए तो इससे काफी फर्क पड़ सकता है।
नदी के कायाकल्प का सबसे सटीक और तेज रास्ता नदी प्रणाली का सुचारु होना है। इसका मतलब ऐसी परिस्थितियों से है जहां एक नदी, उसकी सहायक नदियां और उसकी वितरिका का प्रवाह और सैलाब, स्वतंत्र व स्वाभाविक तरीके से हो। लेकिन तब प्रवाह को बाधित करने वाले मौजूदा कारण जैसे बांध, बैराज और तटबंधों को हटाना होगा जो किसी नदी को एक निश्चित दायरे के भीतर कैद कर लेते हैं। यह हमारी नदियों के लिए एक आदर्श स्थिति है लेकिन तीव्र विकास के पक्षधर इस स्थिति को निरर्थक मानते हैं।
नदी का पुनरुद्धार कैसे किया जाए, इस विषय पर चर्चा के लिए हाल ही में उमा भारती की तरफ से बुलाई गई गंगा मंथन बैठक में पर्यावरणविदों और साधु समाज इन मौजूदा अवरोधों को दूर करने की जरूरत पर जोर दिया। साथ ही यह भी कहा कि गंगा के मुक्त प्रवाह के रास्ते में अब किसी नये तरह के अवरोध मसलन, बांध, बैराज और तटबंधों को न बनाया जाए। पर, बैठक के बाद जारी हुए आधिकारिक वक्तव्य में इस बात का जिक्र नहीं किया गया। इसके अलावा नदी के पुनरुद्धार कार्यक्रम नमामि गंगा के उल्लिखित कार्यक्रमों में भी इसकी गूंज नहीं दिखाई दी। नमामि गंगा कार्यक्रम के लिए इस साल के बजट में काफी ठीक-ठाक धनराशि की व्यवस्था की गई है।
हमें इस बात को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि धनी लेकिन बीमार राष्ट्र के बजाय, स्वस्थ और खुशहाल राष्ट्र हमारे के लिए कहीं बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण और समावेशी है। स्वस्थ राष्ट्र निर्माण के लिए जरूरी है कि हमें सांस लेने के लिए साफ वायु, खाने के लिए पौष्टिक आहार और पीने के लिए स्वच्छ और आरोग्यजनक पानी मिले। यह तभी संभव है जब हमारी वायु स्वच्छ हो, मिट्टी प्रदूषित न हो और नदियों को पुनर्जीवन मिले और उनका कायाकल्प हो जाए।
उपरोक्त प्रक्रिया से हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि नदियां एक प्राकृतिक प्रणाली की तरह हैं। ये पृथ्वी के लिए मानव की नसों और धमनियों की तरह काम करती हैं। जिस तरह एक नष्ट धमनी की वजह से स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्या हो सकती है उसी तरह नष्ट हो चुकी नदी प्रणाली के चलते किसी राष्ट्र या इस पृथ्वी पर गंभीर संकट आ सकता है।
मोदी सरकार गुजरात में साबरमती नदी के पुनरुद्धार को विशेषतौर पर एक सफलता की कहानी के रूप में रेखांकित कर रही है। लेकिन हम ऐसा नहीं मानते। साबरमती के पुनरुद्धार की बात करें तो कुल 350 किमी लंबी नदी में से अहमदाबाद शहर से होकर गुजरने वाली महज 10.5 किमी नदी पर काम हुआ है। यह काम भी नदी के बाढ़ के मैदानों की कीमत पर संभव हो पाया है। इस तरह यह एक मरीचिका से ज्यादा कुछ नहीं है। यहां तक कि साबरमती में मौजूद पानी भी इस नदी का नहीं है बल्कि इसमें नर्मदा का पानी एक नहर के जरिये लाया गया है जो अहमदाबाद के उत्तर से होकर गुजरती है।
स्पष्ट है कि जब साबरमती का ठीक ढंग से कायाकल्प नहीं हुआ है तो कैसे इसे अन्य नदियों के लिए एक रोल मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है? ज्यादा वास्तविक और स्पष्ट तौर पर कहें तो गंगा-यमुना नदी प्रणाली सही अर्थों में तभी पुनर्जीवित होगी जब वास्तविक समस्याओं को समझकर समग्रता से उसे हल किया जाए।
जब मुख्य नदी धाराओं की तरह ही उनकी सहायक नदियों पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाएगा, जब कानून के जरिये उनकी पारिस्थितकीय प्रवाह और बाढ़ के मैदानों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाएगी, जब गंगा-यमुना का पुनरुद्धार, केवल सरकार की तरफ से नदी सफाई अभियान न बने रहकर वास्तव में एक जन आंदोलन बन जाएगा, तभी नदियों को वास्तव में बचाया जा सकेगा।
वैसे नरेंद्र मोदी और उमा भारती की नीतियों और कामकाज के बारे में आकलन करना अभी बहुत जल्दबाजी होगी। यह तो आने वाले वक्त में ही पता चल सकेगा कि मौजूदा समय के अच्छे और ईमानदार इरादों से सही रोडमैप और उसके आधार पर अच्छे व समावेशी नतीजों के साथ सही दिशा हासिल करने में कितनी कामयाबी मिलती है।
(मनोज मिश्र, यमुना जिये अभियान के संयोजक हैं। यमुना जिये अभियान एक स्वयं सेवी संस्था है जो यमुना के पुनर्जीवन और कायाकल्प के लिए प्रयास कर रही है।)