बारिश के बदलते पैटर्न पर पूरे दक्षिण एशिया के किसानों की एक ही व्यथा है कि इससे उनकी फसलों को काफी नुकसान पहुंच रहा है। “जब हम बुआई के लिए तैयार थे, तब मानसून में बारिश नहीं हुई। हमें बोरवेल के पानी से अपने खेतों को सींचना पड़ा। फिर जब हम फसल काटने की तैयारी कर रहे थे, तब बारिश शुरू हो गई। पूरी फसल बर्बाद हो गई। ऐसा पिछली गर्मियों में हुआ था और इस बार जाड़ों में भी ठीक यही हुआ। रही-सही कसर ओलावृष्टि ने पूरी कर दी। मैं कुछ भी नहीं बचा पाया।”
हरियाणा में पटौदी के पास अपने 10 एकड़ के खेत में सूरज यादव गर्मियों में धान और सर्दियों में सरसों उगाते हैं। इससे होने वाले मुनाफे का ज्यादातर हिस्सा वह अपने खेत में ही लगाते हैं। मसलन, इन्हीं पैसों से उन्होंने एक ट्रैक्टर और दूध के लिए दो गाय और पांच भैंस खरीदीं। हर साल उन्हें भूजल स्तर नीचा हो जाने की वजह से अपने कुएं की गहराई दो से तीन मीटर बढ़ानी भी पड़ती है। लेकिन अब उनका मन उकता गया है। वह अपने खेत को किसी बिल्डर को बेच कर फ्लैट में रहना चाहते हैं। ”इससे जो पैसा मुझे मिलेगा वह मेरे परिवार के लिए काफी होगा। आखिर क्यों मैं जी-तोड़ मेहनत करते हुए अपनी फसलों को बार-बार बर्बाद होता हुआ देखूं।”
यह महज यादव की कहानी नहीं है। यह कहानी है पूरे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश खासकर उत्तरी गंगा के मैदान के पश्चिमी भाग के किसानों की, जिस क्षेत्र को भारत की रोटी की टोकरी कहा जाता है। दरअसल, यह पूरा क्षेत्र जलसंकट से ग्रस्त है। भूमिगत जल के आधिक्य उपयोग और जलवायु परिवर्तन ने वर्षा को ज्यादा अनिश्चित बना दिया है। मानसून के एक तय पैटर्न के आदी हो चुके किसान जब जून से सितंबर के बीच बारिश और वर्ष के बाकी समय सूखा जैसी परिस्थितियां देखते हैं, तब उन्हें नहीं मालूम होता कि वे क्या करें।
बूंद-बूंद सिंचाई, बहुफसलीय पद्धति और ऑर्गेनिक उत्पादों के जरिये बचाव
इसका अपवाद कुछ वे किसान हैं, जिन्होंने तीन महत्वपूर्ण कदम उठाए। पहला, पानी के न्यूनतम इस्तेमाल के लिए उन्होंने बूंद-बूंद सिंचाई की पद्धति को अपनाया। दूसरा, उन्होंने बहुफसलीय प्रणाली को अपनाया। इसका फायदा यह हुआ कि एक फसल के बर्बाद हो जाने के बावजूद उनके लिए सब कुछ खत्म नहीं हो गया। तीसरा, उन्होंने कार्बनिक खेती को अपनाया, ताकि उनके उत्पादन से होने वाला अतिरेक मुनाफा उन्हें संकट की किसी स्थिति से बचाने के लिए काफी हो।
यादव के खेतों से तकरीबन 70 किमी उत्तर में हरियाणा के सोनीपत जिले में रूप सिंह कार्बनिक सब्जियां और फल उगाते हैं। अपनी सब्जियों और फलों को वह नई दिल्ली के बाजार तक भी पहुंचाते हैं। इतना ही नहीं, हर रविवार को वह अपनी गाड़ी में सब्जियां और फल भरकर राजधानी से सटे गुड़गांव में कार्बनिक किसानों के बाजार तक पहुंचाते हैं।
सिंह कहते हैं, ”मैं इन दुकानों में दूसरे फल व सब्जी विक्रेताओं की तुलना में 30 फीसदी ज्यादा मूल्य पर अपने उत्पाद बेचता हूं। किसानों के बाजार में मैं केवल बीस फीसदी ज्यादा मूल्य पर ही विक्रय करता हूं। महज 90 मिनट में सबकुछ बिक जाता है। कुछ भी नहीं बचता। ”
उनके स्टॉल पर हफ्ते भर के लिए सब्जी व फल खरीदने के लिए उमड़ी महिलाओं और पुरुषों की भारी भीड़ देखकर उनकी बात पर भरोसा होता है। मगर उनके लिए यह सब हमेशा इतना आसान नहीं रहा था। सिंह कहते हैं, ”कार्बनिक यानी ऑर्गेनिक खेती के पंजीकरण की जो प्रक्रिया है, वह बेहद जटिल है। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के मृदा में पहुंचने की पूरी प्रक्रिया में तीन से पांच वर्ष लग जाते हैं। इसके बाद ही सर्टिफिकेट मिल पाता है। पानी खुद में एक बड़ी समस्या है। मेरे आस-पास के जितने भी किसान हैं, वे सिंचाई के लिए अपने पंपों को हमेशा चालू रखते हैं, जिससे भूमिगत जल का स्तर नीचे गिरता जाता है। मैं उन्हें हमेशा बूंद-बूंद सिंचाई के फायदे बताता रहता हूं, लेकिन उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता। ”
मुफ्त बिजली, पानी की बर्बादी और कम होते जलाशय
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत में अपने पांच एकड़ के खेत में पंप से बहते पानी को देखते हुए सुबोध वर्मा कहते हैं, ”आखिर हम क्यों ऐसा करें। हमें यहां दिन में केवल चार से पांच घंटे ही बिजली मिलती है और इसका समय भी तय नहीं है। इसलिए हर किसान अपने पंप को हमेशा चालू रखता है। इससे हमारा जाता भी क्या है।” कई राज्यों में किसानों को मुफ्त बिजली उपलब्ध कराई जाती है। तमाम सरकारों को लगता है कि इस सब्सिडी को खत्म करना राजनीतिक तौर पर आत्महत्या करने जैसा होगा।
शायद इन्हीं कुछ वजहों से सिंधु-गंगा के मैदानों से दुनिया से सबसे ज्यादा भूमिगत जल निकाला जाता है। जलदायी स्तर न सिर्फ तेजी से खत्म हो रहे हैं, बल्कि उनके पानी में उर्वरक, कीटनाशी और पूर्व की ओर बढ़ने पर उसमें आर्सेनिक भी मिलता है, जो कि वहां की चट्टानों में प्राकृतिक तौर पर पाया जाता है।
यह ध्यान रखने की जरूरत है कि केवल सिंचाई कर देना ही काफी नहीं होता। अनियमित नहरों से पानी बाहर बह निकलता है। यह नमकीन पानी खेती के लिए बिल्कुल भी माकूल नहीं होता। आठ महीनों तक सूरज की किरणों के कहर का मतलब है दुनिया में सबसे ज्यादा वाष्पीकरण की दर। इसके बावजूद राज्य सरकारें नहरों को लेकर लड़ती रहती हैं। इस कड़ी में ताजा विवाद उस प्रस्ताव को लेकर है, जो कि पंजाब विधानसभा ने जारी किया है। दरअसल, यह प्रस्ताव सतलज-यमुना लिंक नहर के पूरा होने के विरोध में है, जो कि पिछले छह दशकों से निर्माणाधीन है। यह प्रस्ताव सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की भी अवमानना करता है। पंजाब सरकार का कहना है कि उसके पास हरियाणा को देने के लिए बिल्कुल भी पानी नहीं है। बदले में, हरियाणा सरकार ने भी दिल्ली की जल आपूर्ति रोक लेने की धमकी दी है।
विभिन्न सम्मेलनों में जहां विश्व जल दिवस मनाया जा रहा है, वहीं यह विडंबना ही है कि फिलहाल भारत में तकरीबन सभी राज्य सरकारें पानी को लेकर आपस में लड़ रही हैं। आलम यह है कि भूमिगत जल स्तर इतना नीचे जा चुका है कि विभिन्न जल संयंत्र अपनी क्षमता से काफी कम उत्पादन कर रहे हैं। इसी वजह से विभिन्न ताप संयंत्रों को बंद करना भी पड़ा है, क्योंकि यहां ब्वॉयलर को भरने के लिए पर्याप्त जल ही उपलब्ध नहीं हो पा रहा है।
इस क्षेत्र में भूमिगत जल में कमी रहने का सबसे बड़ा कारण यह है कि दक्षिण एशिया को लगातार दो वर्षों तक कमजोर मानसून का सामना करना पड़ा है। इसकी वजह अल-नीनो प्रभाव है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अल-नीनो का वर्तमान चरण समाप्ति की ओर है और दुनिया के इस हिस्से में हर कोई इस बार अच्छे मानसून की उम्मीद कर रहा है। हालांकि अभी तो इसे आने में कुछ महीने बचे हैं। इस दौरान महाराष्ट्र के सूखा प्रवण लातूर जिले में शासन की ओर से जल संयंत्रों के आस-पास चार या ज्यादा लोगों के एकत्र होने पर रोक लगा दी है, ताकि किसी तरह की हिंसा की आशंका को रोका जा सके।
क्या अंतरराज्यीय जल विवादों के मामले में सहयोग संभव है
इन हालात में अंतरराज्यीय नदियों को लेकर सहयोग पर किसी भी वार्ता को भारतीय नीति नियंता भरोसे के साथ नहीं देखते। जल संसाधन मंत्रालय में एक वरिष्ठ नौकरशाह कहते हैं, ”फिलहाल हम इस पर कुछ नहीं सोच रहे।” मगर विशेषज्ञ बताते हैं कि एक साझी प्राकृतिक जल व्यवस्था को अकेले नहीं संभाला जा सकता। भारत या पाकिस्तान में भूमिगत जल के हद से ज्यादा उपयोग से दोनों ही देशों में जल संकट बढ़ता है। चीन ने ब्रह्मपुत्र नदी पर जो बांध बनाए हैं, उनका असर पानी के प्रवाह पर पड़ता है, और साथ ही, इनका प्रभाव भारत और बांग्लादेश के बीच की नदी परियोजनाओं पर भी पड़ता है। फिर भारत में ऐसे जो भी प्रोजेक्ट हैं, उनका असर बांग्लादेश पर पड़ता है।
गंगा नदी पर जो बांध बने हैं, उनकी वजह से पश्चिम बंगाल में फरक्का में जल के प्रवाह पर असर पड़ता है, जिसकी वजह से ताप संयंत्रों तक को बंद करना पड़ता है। इन्हीं वजहों से भारतीय इंजीनियरों के लिए भारत और बांग्लादेश के बीच नदी समझौतों का पालन और बांग्लादेश को थोड़े समय के लिए पानी की थोड़ी मात्रा भी उपलब्ध कराना मुश्किल हो जाता है। नेपाल में कुछ ऐसे बांध हैं, जिन्हें बेशक भारत ने ही बनवाया है, लेकिन उनकी वजह उत्तर प्रदेश और बिहार में आकर गंगा से मिलने वाली सहायक नदियों के प्रवाह पर असर पड़ता है। इसकी वजह से सूखे और बाढ़ जैसी समस्याएं भी आती रहती हैं। विश्व जल दिवस के मायने ज्यादा बढ़ जाएंगे, अगर इस दिन दक्षिण एशिया की विस्तृत साझी पारिस्थितिकी में संवहनीय जल के उपयोग को लेकर एकीकृत दृष्टिकोण की शुरुआत हो सके।