भारत में हिमालय के पूर्वोत्तर भाग में स्थित जैव विविधता से भरपूर राज्य मणिपुर ‘देश के पावरहाउस’ का पर्याय बन गया है. बड़े-बड़े बांधों के आने से, नदियों की सीमित करने से पर्यावरण, अर्थव्यवस्था और लोगों की जिन्दगी से जुड़ी तमाम क्षेत्रीय आशंकाएं बढ़ गई हैं. इससे बुरा क्या होगा कि ये सारे बांध स्थानीय लोगों के अधिकारों को भी नज़रंदाज़ करके बनाये गये हैं.
‘सिटीजन कंसर्न फॉर डैम्स एंड डेवलपमेंट’ यानी सीसीडीडी मुख्यधारा की मीडिया में मुश्किल से जगह बना पाने वाले भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के स्थानीय समुदाय की आवाज़ लगातार उठा कर उनके लिए काम कर रहा है.
28 से 30 नवम्बर को नई दिल्ली में आयोजित इंडिया रिवर्स वीक में मणिपुर के लोगों को लोकटक, तिपाईमुख और मपिथी जैसे हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजनाओं के संबंध में अपने विशिष्ट प्रयासों से उन्हें संवेदनशील बनाने तथा पर्यावरण और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध लड़ाई में सशक्त करने के लिए सीसीडीडी को भागीरथ प्रयास सम्मान से सम्मानित किया गया.
जूही चौधरी : पुरस्कार समारोह में आपने तिपाईमुख बांध के खिलाफ सीसीडीडी के सफल अभियान का जिक्र किया था. क्या आप उस बारे में हमें और ज्यादा बतायेंगे?
डोमिनिक ह्यूमी काशुंग : 1500 मेगावाट की परियोजना तिपाईमुख 1980 के दशक में पहली अधिकृत योजना थी (बांग्लादेश बॉर्डर से केवल 100 किलोमीटर की दूरी पर). यह बांध बड़े पैमाने पर जंगली जमीन और अन्य जीव-जन्तुओं को तबाह कर सकता था. इसी आधार पर हमने लोगों में जागरूकता फ़ैलाने के साथ उन्हें आंदोलन के लिए एकजुट करना शुरू कर दिया. इसी से सरकार पर दबाव बना और बांध को क्लीयरेंस नहीं मिला और इसका निर्माण रुक गया.
जूही चौधरी : लेकिन अभी आगे और बड़े बांध बनने हैं, उसके लिए क्या जमीनी तैयारी है?
डोमिनिक ह्यूमी काशुंग : मैं एक बात कहना चाहूंगा कि अभी तक के सभी बांध पूरी तरह से फेल हैं, जिनका कोई मतलब नहीं है. नहरों और सिंचाई के लिए भी पानी नहीं है. आपके सवाल पर लौटूं तो मैं आपको बताना चाहूंगा कि लोग आज अगर यह सब झेल रहे हैं तो इसका कारण विशाल मापिथेल बांध है. 7 मेगावाट उर्जा पैदा करना, इम्फाल को पानी सप्लाई करना और सिंचाई सुविधाएं उपलब्ध कराना लक्ष्य है. लेकिन 10 जनवरी 2015 से मापिथेल बांध ने नदी के प्रवाह (उखरुल जिले की थौबल नदी) को रोक दिया है. जिससे छह गांव बुरी तरह प्रभावित होकर अभी जलमग्न हैं. विद्यालय और सड़क भी पानी के अंदर हैं. और सरकार लोगों की दुर्दशा को कोई तवज्जो नहीं दे रही है.
इस बांध के लिए शुरुआती सर्वेक्षण 1970 के दशक में शुरू हुआ था. हमें विरोध किया लेकिन उन्होंने इसे दबा दिया. इसका निर्माण कार्य पिछले 34 सालों से चल रहा है. और यह निर्माण बिना किसी वन या पर्यावरण क्लीयरेंस के हो रहा है. इसीलिए हमने 2013 में एनजीटी के समक्ष इस मामले को उठाया. लेकिन केवल उन्हीं गांवों को इस नुकसान का मुआवजा मिला जो पूरी तरह से जलमग्न थे. ऐसे प्रभावित गांव जिनकी पूरी फसल डूब गई लेकिन घर नहीं, उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला.
जूही चौधरी : इस स्थिति ने लोगों की जिंदगी और उनकी आय को किस हद तक प्रभावित किया?
डोमिनिक ह्यूमी काशुंग : सबसे गम्भीर समस्या यही है कि इस बांध से पहले हमारे पास अच्छी खासी धान की फसल थी. इस फसल से हम 100 से 200 टन तक चावल पूरे साल के लिए पैदा कर सकते थे. इसी फसल से हमारे बच्चों का भी भला होता. पिछले दो साल से धान की खेती डूबने और चावल ना होने की वजह से बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं.
जूही चौधरी : लेकिन क्या वो अक्सर ये नहीं कहते कि इस तरह की परियोजनाओं से स्थानीय आर्थिक और बुनियादी ढांचे का विकास होगा?
डोमिनिक ह्यूमी काशुंग : ये सब झूठे वादे है। वास्तविक सच्चाई यही है कि अनाज की कमी है। सभी फसलें साल 2015 से बाढ़ की मार झेल रही हैं। यातायात प्रणाली भी तहस-नहस हो चुकी है। सभी सड़कें जलमग्न हो चुकी हैं और हम सब कट चुके हैं। हमारे पास प्रति 6 ग्रामीण के ऊपर दो नाव हैं जिसका इस्तेमाल कर हम आने-जाने और सामान ढोने के लिए करते हैं।
आय का कोई साधन नहीं होने के कारण हमने पेड़ों को काटकर उसे बेचना शुरू कर दिया। जिसके कारण वन तेज़ी से ख़त्म होते जा रहे है। पूर्व में नदी हमारे आय का साधन थी। नदी से निकले रेत, पत्थर और मछलियों को बेचने के साथ-साथ हम नदी के किनारे खेती का काम भी किया करते थे। लेकिन अब हमारे आय के तमाम साधन नष्ट हो चुके हैं। आर्थिक रूप से हम गरीब हो चुके हैं।
इन सब के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव भी है। हमारे गांव में कोई भी पूजास्थल नहीं है और हमारे यहां मुख्य रूप से दो पर्व मनाये जाते हैं। जिनमें एक फसल की बुवाई तो दूसरा बुवाई के बाद हर्षोल्लास से मनाये जाने कि परंपरा है। लेकिन अब हम इन दोनों में से एक भी पर्व नहीं मना सकते, क्योंकि अब फसल ही नहीं है। (हंसते हुए) जब फसल ही नहीं है तो आप पर्व कैसे मनाओगे? गांव में ऐसे कई बच्चे हैं जिन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी। बच्चों के परिवार उनकी पढ़ाई का खर्च उठा पाने में सक्षम नहीं थे, जिससे उनका रुझान ड्रग्स और शराब की और बढ़ा है।
जूही चौधरी : जब आपने सरकारी अधिकारियों से बात करने की कोशिश की, तब उनकी क्या प्रतिक्रिया रही?
डोमिनिक ह्यूमी काशुंग : हमने याचिका दायर की लेकिन उन्होंने आंखों पर पट्टी बांध ली। हमने उनसे कई दफे बात करने की कोशिश की। हमने इसे लेकर विरोध प्रदर्शन भी किया। इसी दौरान एक महिला आंसू गैस का शिकार होकर मानसिक रूप से बीमार हो गयी। उन्होंने बांध के करीब मिलिट्री का पहरा लगा दिया, जिससे जनप्रदर्शन थम सके।
जूही चौधरी : तिपाइमुख के मामले स्थानीय निवासियों के प्रदर्शन को देखते हुए निर्माण कार्य रोक दिया गया था। वहीं मापिथेल की बात करें तो प्रदर्शन के बावजूद निर्माण कार्य जारी है। इन दोनों मामलों में क्या अंतर है?
डोमिनिक ह्यूमी काशुंग : तिपाइमुख कि बात करें तो पाएंगे कि वहां के लोग जागरूक थे। बांध के निर्माण के बाद पड़ने वाले प्रभावों और परिणामों से वो भली-भांति अवगत थे। जबकि मापिथेल बांध के मामले में लोगों ने लापरवाही बरतते हुए 1993 में मुआवज़ा स्वीकार कर लिया। तिपाइमुख में जब हमने आंदोलन शुरू किया था उस दौरान निर्माण कार्य शुरुआती दौर में था। लोगों ने समय रहते समाज, संस्कृति, ज़मीन और जंगल पर बांध के कारण पड़ने वाले दुष्प्रभावों को समझा और जाना। हमने गांव-गांव जाकर लोगों को बांध के प्रभावों से अवगत कराया, फलस्वरूप इस मामले ने तूल पकड़ते हुए एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया। जिसके बाद अधिकारियों को लोगों के विरोध को स्वीकारते हुए निर्माण कार्य रोकना पड़ा।
जूही चौधरी : आप इस अभियान से पिछले 10 साल से जुड़े हैं। ऐसे क्या कारण रहे जिसने आपको इतने लंबे समय तक इस तरह बांधे रखा?
डोमिनिक ह्यूमी काशुंग : मैं समाज के लिए कुछ करना चाहता था। इसलिए मेरा रुझान इस सामाजिक मुद्दे में बढ़ने लगा। इसके साथ ही मुझे एहसास हुआ कि लोगों को शिक्षित करना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि समाज में रह रहा एक बड़ा जनसमूह कई मामलों में अनजान है। मुझे महसूस हुआ की लोगों को जागरूक करना मेरा कर्तव्य है।
जूही चौधरी : क्या युवा भी इस अभियान से इसी तरह जुड़े हैं?
डोमिनिक ह्यूमी काशुंग : आज के युवा आधुनिक और पढ़े-लिखे हैं और इस अभियान में बेहद दिलचस्पी रखते हैं। इसके बाद किसान हैं जो ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं होने के बावजूद ज़मीन से भावनात्मक जुड़ाव रखते हैं। ऐसे में किसान भी इस अभियान का बड़े और मूल हिस्सा हैं।
जूही चौधरी : इतने सालों में आपने नदियों के बदलावों को, बांध निर्माण के कारण उनके बदलते रास्तों और जलवायु पर पड़ते प्रभावों को देखा है। आज जब हम नदियों को केवल पानी का स्रोत भर मानते हैं। नदियों को लेकर आपकी क्या राय है? नदी को किस तरह देखना चाहिए?
डोमिनिक ह्यूमी काशुंग : जैसा कि हमने पहले भी इस विषय पर चर्चा की है। मैं चाहता हूं कि नदियां प्राकृतिक रूप से बहती जाएं क्योंकि प्राकृतिक जलमार्गों में लाये गैर-बदलावों का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव जलवायु पर पड़ा है। इस बांध के निर्माण के पहले मेरे गांव का तापमान सामान्य हुआ करता था, लेकिन बांध के बनने के बाद से ही सर्दियों में अधिक सर्दियां और गर्मियों में अधिक गर्मी की समस्या होने लगी है। इसके अलावा गांव में डायरिया, चर्मरोग जैसी बीमारियों का प्रकोप काफी बढ़ गया है। सांपों का निकलना भी आम बात है, क्योंकि उनके स्थानों में भी बदलाव आये हैं। मैं नदियों और वनों का संरक्षण चाहता हूं। मपिथल बांध के निर्माण से 595 वन प्रभावित हुए हैं। यह बहुत बड़ी मात्रा है। सरकार ने स्थानीय निवासियों को इस बात से अनजान रखा कि इस बांध निर्माण से 44 गांव प्रभावित होंगे। यह एक असक्षम बांध होगा। बांध के बड़े और बुरे प्रभावों से अनजान लोगों को बिना बताये नदी के पानी को रोक दिया गया।
जूही चौधरी : चूंकि यह रोज़ लड़ी जाने वाली जंग की तरह होगी तो ऐसे अभियान को जारी रखने में किस तरह कि चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?
डोमिनिक ह्यूमी काशुंग : यक़ीनन बहुत मुश्किल। सरकार के पास मशीन, पैसा, पॉवर, फ़ोर्स यह सब कुछ है। इसलिए उनसे लड़ना चुनौतियों से भरा है। दूसरी तरफ सभी संसाधन होने के कारण उसके खिलाफ होना, मुश्किल भरा है। हमें ज़ज़्बे और धैर्य की ज़रूरत है। कई बार हमें सरकार के अलावा गांव के भीतर भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है और यह हमें हतोत्साहित कर देता है। जल्दी या देर से केवल न्यायालय ही है जो हमें न्याय दिला सकता है