पानी

हिमाचल प्रदेश के ‘डर्टी हाइड्रो’

जोखिम भरी बांध परियोजनाएं कैसे पूरे हिमालयी क्षेत्र को असुरक्षित बना रही हैं, इसको लेकर हिमधारा से मानशी अशर ने www.thethirdpole.net से चर्चा की। प्रस्तुत है पूरी बातचीत।
हिन्दी
<p>The fragile ecosystem of  Himachal is under threat due to planned dams [image by Himdhara]</p>

The fragile ecosystem of Himachal is under threat due to planned dams [image by Himdhara]

नदियों के संरक्षण के लिए नई दिल्ली में 28 से 30 नवम्बर को आयोजित इंडिया रिवर्स वीक में हिमधारा और इंवायरमेंट एंड रिसर्च संगठन को “भागीरथ प्रयास सम्मान” से सम्मानित किया गया। हिमाचल प्रदेश में प्राकृतिक संसाधनों के स्वामित्व और उसके सही वितरण को लेकर समाज में अनेक मसलों पर प्रभावी चर्चा करने के लिए इस संगठन को इस सम्मान से नवाजा गया। चर्चा का नतीजा रहा कि पहाड़ी समुदाय खासकर कमजोर वर्ग, महिलाएं और वहां रहने वाले मूल निवासियों की पारिस्थितिक अधिकारों को तवज्जो मिली।

राज्य के प्राकृतिक संसाधनों के प्रति उनके अधिकारों की जानकारी देते हुए ऐसे समुदाय को सशक्त बनाने की योजना को संगठन ने और गति दी है। ये अधिकार लम्बे समय से पर्यावरणविद, स्थानीय लोगों और जो लोग बड़े बांध के समर्थन में होते हैं, उनके बीच के उलझन की वजह है।

जूही चौधरी – पहाड़ी इलाकों में बांधों के मुद्दे में आपकी रुचि की क्या वजह रही?

मानषी अशर – इसकी पहली वजह अतीत में मेरा पहाड़ों में रहना और वहां काम करना है। हिमधारा के अधिकतर सदस्य नदियों और पहाड़ों से जज़्बाती तौर पर प्यार करते हैं। हमने महसूस किया कि आज हमारे पारिस्थितिक तंत्र में कई गड़बड़ियां हो रही हैं। इसी आधार पर हमने कुछ करने की सोची। विकास के जो फायदे हम देखते हैं उससे कहीं ज्यादा नुकसान पर्यावरण के विनाश से हो रहा है। इसी विकास का प्रतीक हैं बांध, जिन्हें हम निर्माण, विद्युत उत्पादन और ऊर्जा की खपत का स्त्रोत समझते हैं, वास्तव में यह प्रकृति के लिए विनाशकारी हैं। इस तरह के विकास मॉडल से वास्तविक दुनिया और नदियों को बचाया नहीं जा सकता है।

जूही चौधरी – मैंने सुना है कि हिमधारा ने एनजीटी के ऐतिहासिक निर्णय (जिसमें कहा गया था सतलुज नदी पर कशांग हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजना के लिए स्थानीय निवासियों से पहले एनओसी लेना जरूरी है) पाने में लोकल समुदाय की बहुत मदद की थी।

मानषी अशर – हम सिर्फ एक मददगार की तौर पर साथ थे। कशांग परियोजना से प्रभावित हुए गांवों के संगठन लिप्पा संघर्ष समिति ने इस केस को लड़ा। इस लड़ाई का आधार यही था कि वन अधिकार एक्ट को लेकर कोई अनुपालन नहीं था। एनजीटी से प्राप्त आदेश में कहा गया है कि इस कानून का पालन हो।

जूही चौधरी – क्या यह आदेश भविष्य में एक मिसाल के तौर स्थापित होगा?

मानषी अशर – हिमाचल प्रदेश के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण है क्योंकि राज्य सरकार ने वन अधिकार कानून को लागू नहीं किया था और इसके बगैर ही परियोजनाओं को लागू कर रही थी। अब इस फैसले के बाद कम से कम लोग इस कानून के बारे में और जागरूक होंगे और यह इसलिए भी जरूरी है कि हाल के सभी जंगलों से जुड़े क्लियरेंस स्थानीय समुदाय से बातचीत के बगैर ही किये गए। सीधे तौर पर प्रभावित ये वो लोग हैं जिन्हें इस कानून से जंगल में ईंधन, चारा और अन्य दूसरी जरूरतों के लिए अधिकार प्राप्त हैं।

जूही चौधरी – आने वाले समय में नदियों पर तमाम बांधों के साथ हिमाचल हाइड्रो पावर हब के रूप में स्थापित हुआ है। नदियों को यह कैसे बदल रहा है और क्या यह समस्या है?

मानषी अशर – हमने लोगों से सुना है कि यहां एक समय ऐसा भी था जब सतलुज बिलकुल अविरल बहती थी। लेकिन 50-60 के दशक में भाखड़ा और अन्य बांधों के बनने के बाद पूरी की पूरी नदी सिकुड़ती चली गई। यह और डरावना है कि मुश्किल से बची नदी के ऊपर 142 और परियोजनाओं का विचार चल रहा है, जिससे पूरी नदी सतह के बजाय सुरंगों से निकलेगी।

एक और बड़ी चीज कि क्या होगी जब नदी सुरंग में बहेगी? पहली बात यह कि नदियों की सतह सूखने से पहाड़ों की सुरक्षा के मुद्दे सामने होंगे। यह एक गम्भीर मामला है कि आप नदियों को उन सुरंगों से निकालोगे जो पहाड़ को खोखला करके बनाई गई हों।

जूही चौधरी – तो मैदानों में बने बांधों की तुलना में पहाड़ों पर बने बांधों का प्रभाव अलग कैसे है?

मानषी अशर – मैदानी इलाके में बने बांधों में अधिकतर एक बड़े जलाशय का रूप हैं। यह हमेशा कहा जाता है कि नदी परियोजनाएं स्वच्छ ऊर्जा प्रोजेक्ट्स हैं, लेकिन हम इसे सोशल मीडिया पर ‘डर्टी हाइड्रो’ के तौर पर ब्रांडिंग कर रहे हैं। नदियों को सुरंगों में तब्दील करने से पहाड़ों को बहुत क्षति होगी। आप के पास जलाशय नहीं है, लेकिन आप सुरंग बना रहे हो, जोकि भूमिगत होने के कारण और भी जोखिम भरा है। लोग खोखले पहाड़ के ऊपर रहेंगे और उन्हें दूसरी जगह भी बसाया नहीं जायेगा। भूस्खलन और पहाड़ों के ढलान पर अस्थिरता बढ़ेगी जिससे बसंत रुखा होगा। यह सब अप्रत्यक्ष रूप से काफी बड़े स्तर पर प्रभावित करेगा।

जूही चौधरी – तो यह जल परियोजनायें जितनी प्रतीत होती हैं उनसे कहीं ज्यादा विध्वंसकारी हैं?

मानषी अशर – हाँ, यहां दूसरा पहलू है जो इन बांधों की श्रृंखला के कारण है। इन जल परियोजनाओं में कहा जा रहा है कि नदियों का पानी अपनी वास्तविक सतह पर लौटेगा। लेकिन सोचिये अगर मैं पानी को 10-20 किलोमीटर एक सुरंग से निकालूं जहां मैं पावर हाउस बना रही हूं और फिर नदी बाहर आए वहां फिर से दूसरा बांध हो। मुश्किल से 1 किलोमीटर नदी सतह पर बहे फिर वह सुरंग में चली जाए और आगे भी ऐसे ही बढ़ती जाये। इससे नदी पूरी तरह तबाह हो जायेगी। हम बिना किसी उचित अध्ययन और इसके दुष्प्रभावों का आकलन किये बगैर ही बड़े से बड़े प्रोजेक्ट्स पर जा रहे हैं। नदियों की पारिस्थितिकी पर क्या असर पड़ने जा रहा है? इस पर कोई चर्चा नहीं कर रहा है।

भूकंप के खतरों के लिहाज से भारत के सबसे संवेदनशील क्षेत्र [Image by CC-by-sa PlaneMad/Wikimedia]
भूकंप के खतरों के लिहाज से भारत के सबसे संवेदनशील क्षेत्र [Image by CC-by-sa PlaneMad/Wikimedia]
और हां, उस इलाके में इतने बड़े स्तर पर निर्माण कार्य का असर कितना खतरनाक होगा जो पहले से ही भूस्खलन और भूकम्प के खतरों से घिरा हो?

अगर आप भूकम्प वाले इलाकों का नक्शा देखेंगे तो पाएंगे हम ज़ोन 5 में आते हैं जो सबसे ज्यादा जोखिम भरा है। अगर हम भूस्खलन प्रभावित इलाकों को देखेंगे, खासकर किन्नौर जोकि 4 और 5 ज़ोन में है जो कि उत्तराखण्ड आपदा के वक़्त बाढ़ से प्रभावित हुआ था क्योंकि, यहां हाइड्रोपॉवर के निर्माण के कारण चिंताजनक तरीके से भूस्खलन हुआ था। जब लगातार तीन दिन तक बारिश हुई थी (इस प्रकार की वर्षा किन्नौर के लिए सामान्य नहीं थी) तब यह लगभग सालाना बारिश के बराबर थी। जलवायु परिवर्तन के कारण अचानक बादल फटने लगे थे, लेकिन पहाड़ों की स्थिरता के नुकसान के कारण इसका असर और भी ज्यादा था।