पानी

क्या नदियां इंसान हो सकती हैं?

भारत के एक राज्य की अदालत ने न्यूजीलैंड की तर्ज़ पर नदियों को इंसान का वैधानिक दर्जा दिया है। इस फैसले से समस्याएं कम होने के बजाय और बढ़ सकती हैं।
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<p>Durja Puja festival on the banks of the Yamuna, one of the rivers granted status of living human entities by the Uttarakhand court (Photo by Juhi Chaudhary)</p>

Durja Puja festival on the banks of the Yamuna, one of the rivers granted status of living human entities by the Uttarakhand court (Photo by Juhi Chaudhary)

20 मार्च, 2017 को भारतीय प्रांत उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने 5 दिसम्बर, 2016 के एक मामले में उल्लेखनीय टिप्पणी की। दरअसल, इस मामले में राज्य के मोहम्मद सलीम नाम के एक व्यक्ति ने अदालत में अपील की थी कि वो राज्य सरकार को यमुना के किनारे हो रहे अवैध निर्माण रोकने के लिए बाध्य करे। और साथ में केंद्र सरकार को भी निर्देश दे कि वह जल संसाधनों का उचित प्रबन्धन करे।

मोहम्मद सलीम और उत्तराखंड राज्य के बीच इस मामले का निर्णय न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और आलोक सिंह ने सुनाया। इस निर्णय में केंद्र और राज्य के बीच न्यायपालिका की भूमिका भी समाहित रही। जिसमें यह दिखा कि राज्य की न्यायपालिका केंद्र सरकार को भी नदी बचाने के लिए आदेश दे सकती है।

इस फैसले के मुताबिक यह साफ़ है कि भारतीय संविधान की संघीय व्यवस्था में पानी जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर राज्य के पास ऐसे निर्देश जारी करने के पर्याप्त अधिकार प्रदत्त हैं। उच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार न केवल उनको बेदखल करना है, जिन्होंने नदी किनारे भू अतिक्रमण कर रखा है बल्कि केंद्र भी उत्तर प्रदेश और इससे 2000 में अलग हुए उत्तराखंड के अधिकार क्षेत्रों को भी स्पष्ट करे।

आदेश में कहा गया है कि-

केंद्र सरकार को तीन महीने के अंदर सेक्शन 80 एक्ट के तहत गंगा मैनेजमेंट बोर्ड का गठन कर क्रियान्वित करना है, साथ ही उत्तराखंड राज्य को तीन महीने के अंदर अपर यमुना बोर्ड का सदस्य भी बनाना है।

आखिर में कहा गया है कि गंगा और इसके मैदानी कछार में खनन को तुरन्त प्रतिबंधित करें।

इन कड़े निर्देशों से साफ़ है कि नदियों की अनदेखी और बर्बादी पर न्यायालय सख्त है। ये इसलिए भी खास है क्योंकि अदालत ने गंगा और यमुना को किसी व्यक्ति के बराबर अधिकार भी दिए हैं। जिसके कारण में अदालतों का कहना था कि ” यह बेहद असाधारण है कि ये दोनों नदियां अपना अस्तित्व खो रही हैं। इसीलिए गंगा और यमुना को बचाने के लिए कुछ असाधारण प्रयास करने होंगे।

वो असाधारण और विशेष पैमाने जिसके आधार पर अदालत ने फरमाया गंगा और यमुना को बचाने की इस न्यायिक प्रक्रिया में गंगा, यमुना के साथ इनकी सहायक नदियों और सभी प्रकार के बहते हुए प्राकृतिक जल की अविरलता की बात की गई है। साथ ही इन्हें वैधानिक रूप से एक जीवित प्राणी का दर्जा भी दिया गया है। जिसमें उनके अधिकार, कर्तव्य और दायित्वों की बात भी की गई है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48ए और 51ए के सहारे अदालत ने अपने तर्क को मजबूती दी है। जिसमें पहला अनुच्छेद पर्यावरण और वन्यजीव सुरक्षा के लिए राज्य के कर्तव्य और दूसरा अनुच्छेद भरतीय नागरिकों से उनकी क्षमता के अनुरूप मौलिक कर्तव्यों से संबंधित है। अनुच्छेद 48ए पर्यावरण संरक्षण के लिए भारतीय अदालतों द्वारा कई बार प्रयोग किया जाता रहा है।

पवित्र नदियों के लिए पवित्र अधिकार

इस मामले में इन दोनों पवित्र नदियों का हिन्दू धर्म में महत्व, अदालत का एक बड़ा तर्क रहा। भारत में मंदिरों के प्रबंध समितियों द्वारा या महंतों के द्वारा घोषित न्याय को भी वैधता मिल सकती है। क्योंकि इन धार्मिक तत्वों के कुछ धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण भी होते हैं। जैसे बंदरों को धार्मिक आस्था से जोड़ा जाता है और इसका मतलब है कि उनके पास भी अधिकार हैं। नदियों के इस मामले में अदालत ने राज्य प्रतिनिधियों को गंगा-यमुना और इनकी सहायक नदियों की देखभाल किसी इंसान की तरह करने की शक्ति दी है। इन प्रतिनिधियों में नमामि गंगे के निदेशक, उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव और एडवोकेट जनरल शामिल हैं।

कुल मिलाकर यह निर्णय भरतीय विधि सम्मत ही है। लेकिन निर्णय के शब्द न्यूज़ीलैंड में पारित एक कानून की तरह है। इसे संयोग ही कहेंगे कि 20 मार्च के इस फैसले का ताल्लुक न्यूजीलैंड के माओरी जाति के लिए पवित्र व्हंगानुई नदी के संबन्ध में कीवी कानून से है। न्यूज़ीलैंड सरकार ने दुनिया में पहली बार इस नदी को सभी अधिकार, शक्ति, जिम्मेदारी और कर्तव्य देते हुए एक वैध व्यक्ति माना है।

नये फैसले के कठिन प्रश्न

इन समानताओं के बावजूद न्यूज़ीलैंड और भारत के इन प्रकरणों में काफी अंतर है। कीवी विधायिका ने अपने देश के सबसे लंबे विधायी विवाद को खत्म करते हुए प्राथमिक तौर पर संरक्षित क्षेत्र पर शक्ति के वितरण से जुड़े इस समझौते में सब कुछ साफ़ कर दिया है।

जबकि गंगा-यमुना के इस मामले में ऐसा नहीं है जिनका खनन और दूसरे तरीकों से प्रयोग होता है। व्हंगानुई नदी के संरक्षित क्षेत्र’ टे अव तुपुआ’ के बजाय बड़े बांध, खनन परियोजनाएं और सिंचाई के कारण गंगा को दुनिया का सबसे ज्यादा प्रभावित नदी माना जाता है।

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय में एक वकील ने पूछा है कि, ‘अगर कोई किसान अपने खेत में नदी का पानी सिंचाई के लिए प्रयोग करता है तो इसे एक व्यक्ति के प्रति हिंसा माना जाता है तो उसे क्या कहेंगे जब उसी नदी का पानी बाढ़ के रूप में उसका नुकसान करता है।’

उस वकील ने किसी अज्ञात की स्थित पर बोलते हुए कहा कि अदालत ने दैवीय तत्वों को वैधानिक व्यक्ति की तुलना में मुद्दे को अनदेखा किया है। मंदिरों और उनके ट्रस्ट्स के मामले में कई जिम्मेदारियां और अधिकार हैं, लेकिन इस केस में केवल एक अधिकार है। किसी भी धार्मिक ट्रस्ट पर मुकदमा किया जा सकता है और वो भी कर सकते हैं। लेकिन अगर नदियां सूखती हैं, बाढ़ आती है या प्रदूषित होती हैं तो इन पर कौन कार्रवाई करेगा।

भारतीय नदियों के परिवर्तन के लिए इसका क्या महत्त्व है?

भारत में बड़े स्तर पर नदियों को जोड़ना लगभग नामुमकिन है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा बड़े स्तर पर नदियों की दिशा बदलने का प्रयास किया जा रहा है। पूर्व दिशा में स्थित नदियां गंगा और ब्रम्हपुत्र का पानी मध्य और पश्चिमी भारत के सूखे इलाकों में पहुंचाने के लिए सरकार द्वारा रीज़रवायर, डैम और कैनाल बनाये जा रहे हैं। ऐसे में अहम सवाल यह उठता है कि उत्तराखण्ड की नदियों पर अगर सरकार का हस्तक्षेप होता है तो क्या उत्तराखण्ड के एडवोकेट जनरल इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएंगे?

गंगा के साथ विषम समस्या है इसकी सीमाएं। गंगा ना केवल भारत के कई राज्यों में बहती है बल्कि इसका अस्तित्व नेपाल और बांग्लादेश की अन्य नदियों के साथ भी जुड़ा हुआ है। बांग्लादेश की अहम नदी पद्मा का गंगा से सीधा रिश्ता है। ऐसे में उत्तराखण्ड के अधिकारी भारत के अन्य राज्यों और अन्य देशों को किस तरह पेश करेंगे?

यहां मसला मिसाल पेश करने का भी है। भारत की विवादित नदियों में एक नाम कावेरी का भी है। कर्णाटक और तमिलनाडु के बीच इस नदी के पानी को लेकर लंबे समय से विवाद जारी है। राज्य के लोगों के लिए यह नदी भी देश की अन्य नदियों की तरह पूजनीय है। लोगों के लिए इसका बंटवारा नदी के पानी को ख़राब करना और इसकी शांति को भंग करते हुए अस्त-व्यस्त करने जैसा होगा।

ऐसे ही कई सवाल हैं जो पर्यावरण की सुरक्षा से जुड़े हैं और भारतीय न्याय व्यवस्था में सामने आने चाहिए। अनुच्छेद 48ए और 51ए के ऐसे प्रयोग में न्याय व्यवस्था की खीज दिखाई देती है।

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