‘‘अतिथि देवो भवः’’ – अतिथि भगवान के बराबर समान होता है – यह प्राचीन हिंदू मंत्र और भारत के पर्यटन मंत्रालय की टैगलाइन है, लेकिन लद्दाख में यह पहाड़ के नाजुक वातावरण के लिए विनाशकारी साबित हो रहा है। जहां एक तरफ पूरे विश्व और देशभर से आए पर्यटक इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को बनाए रखने के लिए जरूरी निवेश करते हैं, वहीं दूसरी तरफ वे लद्दाख के प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव भी डाल रहे हैं, खासकर भूजल में।
‘लैडं ऑफ हाई पासेस’ नाम से प्रसिद्ध लद्दाख अपनी प्राकृतिक सुंदरता और अनोखी संस्कृति के लिए विश्व प्रसिद्ध है। पिछले कई सहस्त्राब्दी से लद्दाख के मठ बौद्ध तीर्थयात्रियों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहे हैं, लेकिन इसके बीहड़ और सूने इलाकों के कारण यहां सदियों से पर्यटकों की संख्या सीमित ही रही है। 70 के दशक के बाद जब इस क्षेत्र को घरेलू और विदेशी पर्यटकों के लिए खोल दिया गया था, तब से यहां के हालातों में धीरे-धीरे सुधार आया है। हालांकि, पिछले 15 सालों में पर्यटकों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है और लेह, लद्दाख के सबसे बड़े शहर के रूप में उभरा है।
2010 में आई बाढ़ के बाद पर्यटन विभाग द्वारा चलाए गए अभियान के अन्तर्गत पर्यटकों की संख्या 1974 में 527 से बढ़कर 2016 में 230,000 हो गई और आवास में भी तेजी आई है। 1980 के दशक में, लद्दाख में सिर्फ 24 होटल थे और आज 670 हैं, जिनमें से 60 प्रतिशत लेह में हैं।
लद्दाख में बड़ी संख्या में गेस्टहाउस और होटल होने का स्वभाविक मतलब है, आधुनिक शौचालय और बाथरूम का भी अधिक संख्या में होना, जो लेह में पानी की उपलब्धता पर और अधिक दबाव डाल रहा हैं। लद्दाख के स्थानीय निवासी चेवांग नोरफेल (जो कि कृत्रिम ग्लेशियरों के निर्माण की एक सरल पद्धति पर काम कर रहे हैं) का कहना है, ‘‘लेह में और आसपास के इलाकों में लगभग 75 प्रतिशत लोग अपनी संपत्ति पर एक होटल और गेस्ट हाउस बना लेते हैं। और इन होटलों और गेस्टहाउसों का होना तभी सम्भव हैं जब दिन में 24 घंटे, सप्ताह में सातों दिन पानी आए।’’
लद्दाख में आने वाले पर्यटक, लद्दाख के स्थानीय निवासियों से ज्यादा मात्रा में पानी का उपयोग करते हैं। लद्दाख इकोलॉजिकल डेपलेपमेंट ग्रुप (लेडैग) के एक अध्ययन में पाया गया कि औसत लद्दाखी हर दिन 21 लीटर पानी का उपयोग करता है, जबकि एक पर्यटक के लिए 75 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है।
पर्यटन अधिकारी त्सिंग डोलकर कहते हैं कि ‘‘हम नियमित रूप से होटल का निरीक्षण करते हैं कि क्या इसमें पर्याप्त पानी, सेप्टिक टैंक और पार्किंग सही है या नहीं, क्योंकि पर्यटन हमारी अर्थव्यवस्था का आधार है इसलिए गुणवत्ता बनाए रखना हमारा कर्तत्व है’’। लद्दाख में ऐसा कोई भी विभाग नहीं है जो पानी के स्रोत पर नियंत्रण करता हो या फिर एक होटल या गेस्टहाउस सीवेज का निपटान करता हो।
बर्फ की चट्टानों ने संभाला
11,000 फीट से अधिक ऊंचाई पर बसा लद्दाख हिमालय के वर्षा छाया क्षेत्र में स्थित है। यहां औसत वार्षिक वर्षा 10 सेंटीमीटर है, जो मुख्य रूप से बर्फ के रूप में होती हैं, लेकिन फिर भी 274,289 की आबादी बनाए रखने के लिए यह काफी है।
हर एक बस्ती की अपनी एक धारा है, जिसे लद्दाख की भाषा में ‘टोकोपो’ कहा जाता है। लेह के लोग पारंपरिक रूप से लेह टोको पर निर्भर हैं, जो पुच्चे और खर्डुंग ग्लेशियरों द्वारा रिचार्ज होते हैं। पर्यटन गतिविधियों में वृद्धि होने की वजह से पानी की मांग बढ़ गई है, जिसके कारण विभिन्न स्त्रोतों का पता लगाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
लेह में हर दिन लगभग 3 लाख लीटर पानी की तीन प्रमुख स्रोतों से आपूर्ति की जाती है। शहर के केंद्र में सिंधु नदी तल से सीधे निष्कर्षण से, लेह शहर और ऊपरी लेह क्षेत्रों में बोरवेलों की खुदाई से और प्राकृतिक जलस्त्रोतों और मोड़ चैनलों के माध्यम से। दिसंबर 2016 तक, लगभग 50 प्रतिशत शहर को दिन में दो घंटे पाइपलाइन के माध्यम से पानी उपलब्ध कराया गया।
लेह में सैन्य कर्मियों की उपस्थिति होना भी शहर के पानी के मुद्दों को प्रभावित करने वाला एक और प्रमुख कारण है। स्थानीय लोगों का अनुमान है कि लगभग 100,000 लोग – अधिकारी, जवान, गवर्नर और मजदूर – जो शहर में रहते हैं और भूजल पर निर्भर हैं।
लेडेक के फूँकोक नामग्याल का कहना है कि जलवायु परिवर्तन पानी चक्र (वाटर साइकिल) को प्रभावित कर रहा है, जिसके कारण ग्राउडवाटर रिचार्ज प्रभावित हो रहा है। कोई भी नियम और निगरानी नहीं होने के कारण प्रत्येक वर्ष पर्यटकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए अधिक से अधिक बोरवेल ड्रिल किए जा रहे हैं, जिस वजह से निष्कर्षण बढ़ रहा है।
कोई भी नियामक तंत्र न होने के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियरिंग विभाग भूजल निकासी के खिलाफ कार्रवाई करने में असमर्थ है। लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद (एलएएचडीसी) के मुख्य कार्यकारी सोनमन दावा लोन्पो का कहना है कि परिषद ने दो साल पहले, बिना अनुमति के बोरवेलों को खोदने वाले लोगों को रोकने का निर्णय लिया लेकिन इसके बावजूद भी कुछ नहीं हो सका। वह इस निष्क्रियता का कारण प्रदान करने में असमर्थ रहे।
इस बीच, पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने अति-दोहन कि वजह से होने वाली समस्याओं को चेतावनी देते हुए बताया कि बोरवेलों की बढ़ती संख्या प्राकृतिक जल स्त्रोतों को सीधे प्रभावित करती है, जिस पर पेयजल और कृषि के लिए पूरी आबादी निर्भर है।
लद्दाख संरक्षण योजना
2014 में, लघु और मध्यम शहरों के लिए केंद्रीय सरकार द्वारा शहरी बुनियादी ढांचा विकास योजना शुरू की गई थी। लेह में इस योजना के अंर्तगत- सिंधू के बाढ़ के मैदानों में भूजल के लिए अच्छी तरह से पानी का सेवन करना, मौजूदा आपूर्ति में वृद्धि के लिए पांच नए जल जलाशयों का निर्माण करना, 1,000 सार्वजनिक स्टैंड पोस्ट के लिए सभी टिकाऊ लौह पाइप बिछाना और 4,500 घरों में पानी का कनेक्शन और पूरे शहर के लिए एक सीवरेज नेटवर्क बिछाना शामिल था। अधिकारियों के अनुसार लगभग 50 प्रतिशत काम किया जा चुका है, और बाकी का काम अगले साल पूरा करने का लक्ष्य है।
लेह के ऊपर की तरफ गंगा भंडार भी है जो कई साल पहले एनजीओ और सिंचाई एंव बाढ़ नियंत्रण विभाग (आईएंडएफसी) द्वारा बनाया गया था। लेकिन पिछले वर्ष लेह टोके के मोड़ के कारण वह पानी से भर गया था। आईएंडएफसी के कार्यकारी अभियंता सैरिंग डोर्जे के अनुसार जिसके दो प्रमुख उद्देश्य है- पहला, भूजल में बढ़ोतरी और दूसरा सर्दियों में जलाशय के बर्फ के पिघलने के बाद भूजल को रिचार्ज करना और पानी प्रदान करना।
इस बीच, लद्दाख टूर आपरेटर एसोसिएशन द्वारा घरेलू और अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों से पर्यावरण कर की वकालत की गई है। हालांकि यह अभी तक लागू नहीं किया गया है। यह स्पष्ट है कि अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने के लिए परिवर्तन करते रहना चाहिए कि इस क्षेत्र में पर्यटन टिकाऊ है, और यह लद्दाख की नाजुक पारिस्थितिकी और संवेदनशील जनसंख्या को सुरक्षित और संरक्षित करता है।
(निवेदिता खांडेकर वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहती हैं। ये विशेष रूप से पर्यावरण एवं विकास से जुड़े मुद्दों पर लिखती हैं।)