आठ साल पहले 29 साल की संगीता देवी की जिंदगी ऐसी नहीं थी, जब तक उसके गांव के पास की पहाड़ी पर पानी का बड़ा टैंक नहीं बना था। इसके कारण उसकी जिंदगी में काफी बदलाव आया है। संगीता www.thethirdpole.net को बताती हैं कि ‘‘कुछ साल पहले तक हमें पानी लाने के लिए मीलों दूर जाना पड़ता था। लेकिन जब से टैंक बना है, हमें यहां से रोजाना पानी मिलने लगा है, जिसमें हम कपड़े धोना और जानवरों को नहलाने जैसे काम आसानी से कर सकते हैं। अब हमारी जिंदगी पहले से काफी आसान हो गयी है।’’
उत्तराखंड के पिथौड़ागढ़ जिले के गंगोलीहाट ब्लाक में स्थित 20 परिवार वाले नाग गांव की महिलाएं इस सुखद परिवर्तन को बड़ी प्रसन्नता के साथ साझा करती हैं। नाग गांव समुद्र तल से 6,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां 2009 में टैंक बनने का काम शुरू होने से पहले पानी का एकमात्र जरिया प्राकृतिक जल स्त्रोत हुआ करता था।
लेकिन यह जलस्त्रोत बड़ी मुश्किल से स्थानीय लोगों की आवश्यकता की पूर्ति कर पाता था, इसी वजह से नाग गांव के लोगों ने वर्षाजल को संचयित कर पहाड़ी पर विशाल टैंक बनाया। इस टैंक में लगभग 400,000 लीटर पानी इकट्ठा किया जा सकता है।
लेकिन केवल वर्षाजल संचयन इस समस्या का हल नहीं हो सकता है, जब तक हमारे प्राकृतिक जलस्त्रोत सूख रहे हों। इसलिए सूख रहे जल स्त्रोतों को दोबारा जीवित करना बेहद जरूरी है। इसको बचाने के लिए गांव के लोगों ने अलग-अलग क्षेत्रों में काम किया।
पिछले 25 सालों से जल संचयन के प्रति जागरूकता फैला रहे 49 साल के राजेन्द्र सिंह बिष्ट www.thethirdpole.net को बताते हैं कि ‘‘हमने बरसात के पानी को जमा करने का टैंक बनाने के साथ ही, गांववालों से आसपास के जंगल को विकसित और संरक्षित करने का भी काम किया है ताकि सूखते जल स्त्रातों को भी बचाया जा सके। हमने ओक, बुरांश एवं काफल के पेड़ों को लगाया, जिससे मिट्टी में नमी को बढ़ाया जा सके। जैसे ही हमारे जंगल की हरियाली में वृद्धि होगी वैसे ही जलस्त्रोतों के पानी को भी बढ़ोतरी होने लगेगी।’’
पहाड़ी इलाकों में पानी की कमी, महिलाओं के जीवन में भारी परेशानी पैदा करती है क्योंकि वे अपना घंटों समय दूर-दराज के क्षेत्र में ऊपर-नीचे पैदल चलकर पानी लाने में लगाती हैं। तब परेशानी और बढ़ जाती है जब जल स्त्रोत से जरूरत के मुताबिक पानी नहीं मिलता है। इसलिए हिमालय के एक किनारे में बसे नाग के आसपास के 32 गांवों ने बरसात के पानी को इकट्ठा करने के साथ सूखते जल स्त्रोतों को दोबारा जीवित करना सीख लिया है।
गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण एवं सतत विकास संस्थान, अल्मोड़ा उत्तराखंड के राजेश जोशी www.thethirdpole.net से कहते हैं कि ‘‘यह जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के प्रभाव का उपयुक्त उदाहरण है। यह समझना बेहद जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हिमालय के कुछ भागों में अब स्पष्ट दिखने लगा है। लोगों ने सूखते जल स्त्रोतों को जीवित करने के लिए ताल-खाल बनाना शुरू कर दिया है। पिथौरागढ़ जिले में ऐसे प्रयोग 100 से ज्यादा जगहों पर शुरू किए जा चुके हैं।’’
जोशी आगे कहते हैं ‘‘आज हम जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों के दूर जाने की बात करते हैं लेकिन इन गांवों के लिए यह वास्तविक चिंता का विषय नहीं है। ये गांव ग्लेशियरों एवं नदी के किनारे से दूर हैं। कम ऊंचाई के पहाड़ी इलाकों में जलस्त्रोत ही पेयजल का एकमात्र माध्यम होता है। इसलिए जलस्त्रोतों को बचाए रखना एवं उन्हें दोबारा जीवित करना इन गांवों के लिए महत्वपूर्ण है।’’
राजेन्द्र सिंह जो हिमालय ग्राम विकास समिति एनजीओ चलाते हैं, लोगों को वर्षा जलसंचय के साथ जलस्त्रातों को पुनर्जीवित करने के महत्व को भी बताते रहते हैं। वे कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में बारिश के बदलते स्वरूप एवं पहाड़ों में बर्फबारी की कमी के कारण जलस्त्रोत लगातार सूख रहे हैं। पानी की बढ़ती मांग एवं जल के अत्यधिक उपभोग ने भी इसका एक कारण हैं।
लक्ष्मीदत्त भट्ट, जो धनसैथल गांव के निवासी हैं एवं जल संरक्षण अभियान से जुड़े हैं, www.thethirdpole.net से कहते हैं कि गांव के लोग इन चाल-खालों के माध्यम से पानी को एकत्रित करते हैं, जो अन्यत्र बर्बाद चला जाता था। अब यह पानी धीरे से रिसकर जमीन के अंदर जाता है और स्त्रोतों को जिंदा बनाए रखता है।
पत्थरों का स्वभाव
हालांकि, पानी के गड्डे बनाने के लिए उपयुक्त स्थान की तलाश करना आसान नहीं होता है। ऐसे में विशेषज्ञ गांववालों की मदद करते हैं। जलविज्ञान का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों ने पत्थरों एवं उसकी ढलानों का भी अध्ययन किया ताकि वे पहले से मौजूद पानी के स्त्रोत का पता लगा सकें।
जोशी बताते हैं कि हम इसे जल-भूआकृति का अध्ययन कहते हैं। पत्थरों एवं उनकी ढलानों से पानी की मौजूदगी का पता चलता है। अगर हमें कही से भी जलस्त्रोत के प्रमाण मिलते हैं तो हम वैज्ञानिक तथ्यों को पुख्ता करने के लिए स्थानीय लोगों से इस संदर्भ में बात करते हैं। अगर लोग पानी के स्त्रोत के पुराने प्रमाण देते हैं तो हमें उसकी ठीक स्त्रोत का पता लगाने में आसानी होती है।
www.thethirdpole.net से बात करते हुए जिला वन अधिकारी विनय भार्गव कहते हैं ‘‘जनवरी 2016 में पिथौड़ागढ़ से 20 किमी दूर नैखिना गांव की पहाड़ी पर बड़ा खाल खोदा गया। हम इसे एक मॉडल के रूप में दिखाना चाहते थे। यह खाल पानी के स्त्रोत को पुनर्जीवित करने के लिए खोदा गया था। इसे गांववालों एवं विशेषज्ञों की मदद से बनाया गया। मुझे यह कहते हुए जरा भी संकोच नहीं होता है कि इसमें स्थानीय समुदाय में अपनी भूमिका सक्रिय रूप से निभायी। जंगल को समृद्ध बनाने के लिए हमने सेब और लाल रंग के अन्य पेड़ लगाए और थोड़ा कंक्रीट का भी इस्तेमाल किया। इसकी सहायता से कुछ सूखे जल स्त्रोतों को पुनर्जीवित हुए एवं नए जल स्त्रोतों का भी पता चला।’’
जल की आग से लड़ना
सूखे जल स्त्रोतों को पुनर्जीवित करने के इस तरीके से जंगल की आग पर भी काबू पाया गया। उत्तराखंड के जंगलों में आग का लगातार लगती रहती है। 2016 की गर्मी में जंगल की आग उत्तराखंड के 13 जिलों तक फैली और जिसने 8,000 एकड़ जमीन को प्रभावित किया। अब गांव वाले चीड़ के पत्तों को इकट्ठा करके छोटे पोखरों में डालते हैं। इसके माध्यम से तेजी से आग पकड़ने वाली चीड़ की पत्तियों को जंगल से कम किया जाता है।
गंगोलीहाट ब्लाक के चाक गांव की 25 साल की स्वयंसेविका पूनम www.thethirdpole.net को बताती हैं ‘‘जंगल में आग लगने से हमें बहुत नुकसान होता है। इसलिए हम जंगल से पिरूल इकट्ठा करते हैं और छोटे तालाबों में डाल देते हैं। इससे जंगल में आग लगने की संभावना कम हो जाती है। इसके अतिरिक्त जब पिरूल छोटे तालाबों में गल जाता है तो हमें इससे जैविक खाद भी प्राप्त होती है।