हुबेई प्रांत की वुहान झील पर क्रूज पर 27 और 28 अप्रैल को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई अनौपचारिक बैठक में क्या उन्होंने पानी के बारे में चर्चा की? दोनों सरकारों की तरफ से जारी की गई अलग-अलग प्रेस विज्ञप्तियों में इसका कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन शिखर सम्मेलन की कार्यक्रम सूची से परिचित एक भारतीय राजनायिक का कहना है कि भारत-चीन सीमा पर तनाव को कम करने के साथ यह भी चर्चा का एक विषय था। निश्चित रूप से 4,000 किलोमीटर लंबी सीमा के विवादित क्षेत्रों पर बहुत सारी बातें हुई होंगी।
राजनायिक को इस बात पर पूरा भरोसा है कि चीन इस मानसून में ब्रह्मपुत्र- जिसे चीन में यार्लंग जांगबों के नाम से जाना जाता है- के जल प्रवाह के बारे में जानकारी देना फिर से शुरू कर देगा जोकि 2017 में डोकलाम नामक क्षेत्र पर विवाद बढ़ने से सेना का आमना-सामना होने से बाधित हो गया था। डोकलाम वह क्षेत्र है जहां भारत, चीन और भूटान की सीमा मिलती है। हालांकि चीनी सरकार का कहना है कि इस व्यवधान का लंबी समय से चली आ रही उस घटना से कोई ताल्लुक नहीं है। इस व्यवधान का कारण पानी मापने वाले स्टेशनों में सुधार करना था, इस कथन पर विश्वास करने वांले दक्षिण हिमालय के कुछ समर्थक ही हैं। गत नवंबर में ब्रहमपुत्र में हुई कीचड़ में भी उन्होंने कोई सहायता नहीं की थी। चीन ने इस गंदगी को भूकंप के कारण हुए भूस्खलन को बताया, जबकि भूकंप से संबंधित कोई भी साक्ष्य नहीं प्रदान किए। भारतीय पर्यवेक्षकों का अनुमान था कि यह गंदगी यार्लंग जांगबों के नीचे रेलवे सुरंग बनने के कारण थी।
पारस्परिक अविश्वास के कारण ही भारत और चीन के बीच संबंध कमजोर हो गए हैं। मोदी-शी शिखर सम्मेलन का घोषित उददेश्य भी इस अविश्वास को खत्म करना है। साथ ही यह भी उम्मीद की जा रही है कि दोनों देशों के बीच संबंधों को और अधिक मजबूत किया जाएगा।
भारत में रणनीतिक समझ रखने वालों का मानना है कि अक्टूबर की आखिरी कांग्रेस के बाद, राष्ट्रपति शी जिनपिंग में इस बात पर जोर देने की शक्ति आई है। हालांकि कम से कम भारत में इस बात को लेकर संदेह रहा है। 2014 में नई दिल्ली में शी की मैत्री यात्रा के दौरान सीमा पर टकराव था। भारतीय पर्यवेक्षकों का अनुमान है कि इसका कारण पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) थी लेकिन अब पीएलए, राष्ट्रपति शी के लिए शर्मिंदगी पैदा करने की स्थिति में नहीं रहेगी। वैसे भी, इस बात से भी कोई अनभिज्ञ नहीं है कि भारतीय सेना हमेशा चुनी हुई सरकार के मजबूत नियंत्रण में रही है। इसलिए, अगर मोदी और शी चाहते हैं तो दोनों देशों के संबंधों में तेजी से सुधार कर सकते हैं।
समस्याएं भी कम नहीं
यह कहना उचित नहीं है कि भारत और चीन के संबंधों में कोई समस्या नहीं होगी। वास्तविकता यह है कि शिखर सम्मेलन के बाद दोनों देशों की सरकारों ने अलग-अलग विज्ञप्ति जारी करने का फैसला किया। दोनों सरकार द्वारा जारी विज्ञप्ति दोनों सरकार की धारणाओं और प्रमुखता के बीच के बड़े अंतर को प्रदर्शित करती हैं। अब चीन यह स्वीकार करता है कि भारत औपचारिक रूप से बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) में शामिल नहीं होगा क्योंकि इसके तहत बनाया जाने वाला महत्वपूर्ण राजमार्ग पाकिस्तानी बंदरगाह ग्वादर से होकर गुजरता है, जोकि भारत द्वारा दावा किया जाने वाला विवादित क्षेत्र है।
चीन इसके बारे में व्यावहारिक होना चाहता है, इसलिए बांग्लादेश, चीन, भारत और म्यांमार से होकर गुजरने वाले इस महत्वपूर्ण राजमार्ग बीसीआईएम परियोजना कहने की बजाय इसे बीआरआई का हिस्सा कहा जाएगा। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि प्रत्यक्ष रूप से ऐसा समाधान मिलने के बाद भारत सरकार भी इस राजमार्ग को कोलकाता से कुनमिंग तक की सहायता प्रदान कर रही है। लेकिन शिखर सम्मेलन से मिलने वाले संकेतों को मानें तो व्यवहारिकता और व्यापार की संभावनाओं से भारत और चीन के बीच तिब्बत के अतिरिक्त सभी समस्याओं को समाप्त किया जा सकता है।
वास्तविकता यह है कि 1959 से दलाई लामा को भारत में आश्रय देना, चीन की परेशानी का एक कारण है। हालांकि हाल के महीनों में भारत सरकार, तिब्बती सरकार के सभी आधिकारिक कार्यों में निष्कासित व्यक्तियों को हकीकत में निष्कासित करके बीजिंग को शांत करने का पुरजोर प्रयास कर रहा है। यह तिब्बत को चीन का एक हिस्सा दर्शाता है। फिर भी, तिब्बत दोनों देशों के बीच के संबंधों को नष्ट करने का पूरा प्रयास कर रहा है। भारतीय विशेषज्ञों का मानना यह भी है कि ट्रांसबाउंड्री नदियों पर चीन के सहयोग में कमी का एक मुख्य कारण यह भी है कि ये नदियां तिब्बत से भारत की ओर बहती हैं।
बेशक, इनमें से प्रमुख नदियां ब्रह्मपुत्र और सिंधु हैं, लेकिन इसके अलावा और भी नदियां है, जोकि सिंधु, गंगा या ब्रहमपुत्र घाटियों का ही हिस्सा हैं। सभी घाटियां अव्यवस्थित योजनाबद्ध बांधों, वनों की कटाई और जलवायु परिवर्तन के कारण खतरे में हैं। तत्कालिक परिस्थितियों के अनुसार अधिक सहयोग की आवश्यकता नितांत जरूरी हो जाती है, लेकिन ऐसा लगता है कि छोटे सकारात्मक कदमों से भी उज्ज्वल भविष्य की आशा की जा सकती है।
सहयोग के क्षेत्र
ऐसा नहीं है कि मतभेदों के कारण भारत और चीन आपसी सहायता नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, एक दर्जन से अधिक वर्षों के लिए वैश्विक जलवायु समझौते पर अपनी स्थिति के लिए दोनों देशों ने सहयोग किया था। सभी विकासशील देशों पर इसका एक सकारात्मक प्रभाव पड़ा था, क्योंकि भारत और चीन की संयुक्त साझेदारी विश्व में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। पेरिस जलवायु समझौते के प्रभाव में आने से पहले, बॉन में चल रहे मध्य वर्षीय जलवायु बैठक में दोबारा दोनों देशों ने एक साथ अभी से 2020 के बीच औद्योगिक दुनिया से और अधिक कार्रवाई की मांग की।
मोदी-शी शिखर सम्मेलन के बाद भारतीय सरकार द्वारा जारी की गई विज्ञप्ति में इसका एक पारित संदर्भ भी है। इसके अनुसार दोनों देश सतत विकास, खाद्य सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन समेत कई वैश्विक चुनौतियों के सकारात्मक और रचनात्मक तरीके से दीर्घकालिक समाधान निकालने के लिए एकजुट हुए हैं। दोनों नेताओं का मानना है कि वृहद विकासीय अनुभवों और राष्ट्रीय क्षमताओं वांली उभरती हुए अर्थव्यवस्थाओं- भारत और चीन – को 21वीं सदी में मानवजाति के सामने आने वाली चुनातियों के उन्नत और चिरस्थायी समाधान निकालने के लिए संयुक्त प्रयास करने चाहिए। इसमें बीमारियों का इलाज, आपदा के जोखिमों को कम करने के संयुक्त प्रयास, जलवायु परिवर्तन और डिजिटल सशक्तिकरण के मुददे शामिल हैं।
उसी विषय पर, चीनी सरकार द्वारा जारी एक विज्ञप्ति का कहना है कि महामारी, प्राकृतिक आपदाओं, जलवायु परिवर्तन और आतंकवाद जैसी वैश्विक चुनौतियों का नये तरीके से और दीर्घकालिक समाधान निकालने के लिए दोनों देशों को हाथ मिलाना चाहिए। वुहान में सम्पन्न अनौपचारिक बैठक का कोई परिणाम सामने नहीं आया है, लेकिन फिर भी यह उम्मीद जगाता है। चीन और रूस के नेतृत्व में संचालित एक सुरक्षा गुट, शंघाई कॉपरेशन ऑर्गनाइजेशन के जून में शिखर सम्मेलन में भागीदारी करने के लिए मोदी चीन जाएंगे, जहां दोनों नेताओं की मुलाकात दोबारा होगी।