लोगों के भारी विरोध के कारण उत्तरकाशी जिला प्रशासन को जखोल-सांकरी जल विद्युत परियोजना की जनसुनवाई रद्द करनी पड़ी। हिमाचल प्रदेश की सीमा से लगे मोरी प्रखंड में गोविंद वन्य जीव विहार की सीमा पर 44 मेगावाट की जखोल-सांकरी जल विद्युत परियोजना (एचईपी) प्रस्तावित है। एक्टिविस्ट्स के अनुसार, उत्तराखंड में एक भी ऐसा बांध नहीं है जो विस्थापितों को पुनर्वास देने में सक्षम हो और पर्यावरण संबंधी नियमों का पूरी तरह से पालन किया हो। पूरे राज्य में सभी जलविद्युत परियोजनाओं का यही हाल है। जनसुनवाई में चाहे जो भी वादे कर लिये गये हों लेकिन पूरी तरह से उनका पालन नहीं किया गया। उदाहरण के लिए टिहरी बांध, मानेरी-भाली चरण 1 और 2 बांध, श्रीनगर एचईपी क्षेत्र, इन सभी जगहों पर लोग पीने के पानी की कमी से जूझ रहे हैं। पुनर्वास से संबंधित सैकड़ों मुकदमे विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। सैकड़ों प्रभावित लोगों पर क्रिमिनल और सिविल मुकदमे चल रहे हैं।
इस परियोजना के निर्माण का जिम्मा सतलुज जल विद्युत निगम को सौंपा गया है। इस जल विद्युत परियोजना को ग्रामीणों ने क्षेत्र एवं पर्यावरण के लिए अहितकर बताते हुए इसका पुरजोर विरोध किया। 12 जून, 2018 को आयोजित जनसुनवाई के दौरान आक्रोशित ग्रामीणों को थामने में पुलिस प्रशासन को भी खासी मशक्कत करनी पड़ी। सैकड़ों की संख्या में ग्रामीणों ने 3 घंटे तक जनसुनवाई मंच के सामने “जनसुनवाई रद्द करो , बांध कंपनी वापस जाओ” आदि नारे लगाते रहे। प्रशासन की ओर से तमाम कोशिशें की गईं कि लोग या तो शांति से बैठें या चले जाएं। इस विरोध प्रदर्शन में युवा महिलाएं भी शामिल रहीं जिन्होंने लगातार डटे रहकर बांध कंपनी व प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की चालाकियों को नाकाम किया।
माटू जनसंगठन ने जिलाधिकारी को दिए जरूरी दस्तावेज
एक बार जिलाधीश महोदय ने मंच से बिना माइक के जनसुनवाई रद्द करने की घोषणा भी की। लेकिन लोग जानते थे कि जब जनसुनवाई की अध्यक्षता अतिरिक्त जिलाधीश कर रहे हैं तो उन्हें ही घोषणा करनी होगी। कंपनी के लोगों को वहां से हटना चाहिए। मंच को हटाना चाहिए। जिलाधिकारी को ” पर्यावरण आकलन अधिसूचना 14 सितंबर 2006″ की प्रति दी गई। साथ ही, इस बात की कानूनी जरूरत भी बताई गई अतिरिक्त जिलाधीश मंच से घोषणा करें कि जनसुनवाई रद्द की गई है, तभी जनसुनवाई रद्द मानी जायेगी। जिलाधीश को यह भी बताया गया कि 18 अक्टूबर 2006 को विष्णुगाड पीपलकोटी बांध की जनसुनवाई की अध्यक्ष निधि यादव (एसडीएम चमोली) ने लोगों को जानकारी ना होने की आधार पर जनसुनवाई रद्द की थी । 21 जुलाई 2010 में भी देवसारी बांध की जनसुनवाई के अध्यक्ष ने लोगों के विरोध के चलते जनसुनवाई रद्द की थी। अब भी इस हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट को बांध बनाने की जरूरी क्लियरेंस नहीं मिला है।
जिलाधीश आशीष चौहान को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी व बांध कंपनी सतलुज जल विद्युत निगम के अधिकारी, यह बताते रहे कि उन्होंने सभी कानूनी जरूरतें पूरी की है लेकिन इस आंदोलन की अगुवाई करने वाली हमारी माटू संगठन ने उनको बताया कि ऐसा नहीं हुआ है। इसके अलावा कानूनी व व्यावहारिक सभी तरह की कमियों की सूचना हमने बोर्ड को भी दी थी। इसके बाद अतिरिक्त जिलाधीश ने जनसुनवाई समाप्ति की रद्द होने की घोषणा की और बांध कंपनी के लोग व बोर्ड के अधिकारी मंच से हटे।
जखोल, धारा, सुनकुंडी, पांव तल्ला, पाव मल्ला आदि प्रभावित गांवों के लोग इन अधिकारियों के पंडाल से जाने और जनसुनवाई का सामान समेटे जाने तक पंडाल में ही डटे रहे । जनसुनवाई के लिए किए गए भोजन की व्यवस्था को भी ग्रामीणों ने अस्वीकार किया। जनसुनवाई पांव मल्ला के स्कूल में की गई थी। उस स्कूल के लिए जिन्होंने अपनी जमीन दान दी थी, वह 2 दिन से वहां पहले ही धरने पर बैठे थे। गांवों से लोगों को लाने के लिए बांध कंपनी ने वहां कोई व्यवस्था नही की थी। लोग लंबे रास्ते पैदल ही चल कर आये। जनसुनवाई स्थल पर पुलिस का बहुत सारा इंतजाम किया गया था। जनसुनवाई पंडाल में जाने से पहले लोहे के दरवाजे पर ग्रामीणों से नारे की तख्तियां भी लोगों से छीन ली गई थी। लेकिन आखिर में जनता ने न्याय हासिल किया।
जिस क्षेत्र में हॉर्न बजाने की पाबंदी वाले क्षेत्र में 8 किमी लंबी सुरंग बनाने की अनुमति मिल गई
यमुना घाटी की सहयोगिनी टोंस नदी से मिलने वाली सुपिन एक छोटी नदी है जिस पर बांध प्रस्तावित है। यह पूरा क्षेत्र गोविंद पशु विहार में आता है। कई दशकों से यहां के गांववालों को हॉर्न बजाने तक की पाबंदी है। उच्च कोटि के पर्यटन की संभावनाओं वाले क्षेत्र में सड़क, जंगल के अधिकारों से वंचित लोग अपनी पारंपरिक संस्कृति के साथ जीते हैं। ये इको टूरिज्म की अपार संभावनाओं वाला क्षेत्र है लेकिन हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के आगे बढ़ते ही सब खत्म हो जाएगा।
लेकिन आश्चर्य का विषय है कि लगभग 8 किलोमीटर लंबी सुरंग बनाने की अनुमति कैसे हो गई? इसी बांध के नीचे नैटवार मोरी बांध के प्रभावित लोग अपनी समस्याओं को लेकर परेशान हैं। इसी बांध क्षेत्र में रहने वाले गुर्जरों को विस्थापन झेलना पड़ रहा है किंतु कोई मुआवजा या पुनर्वास की बात नहीं कर रहा। जबकि वही बांध कंपनी जखोल-सांकरी बांध बनाने के लिए आगे आ रही है।
650 पन्ने वाले अंग्रेजी के कागज ग्रामीणों में बांट दिये गये
जिस घाटी में 42% साक्षरता है वहां 650 पन्नों के अंग्रेजी वाले कागजात पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट, पर्यावरण प्रबंध योजना व समाजिक आकलन रिपोर्ट दिए गए। इनमें किसकी कितनी जमीन जा रही है इतना भी जिक्र नहीं है। सुरंग से बर्बाद होने वाले गांवों की तो कोई बात ही नहीं कर रहा। माना जाता है कि बांध कंपनी के लोग पहले भी देश, राज्य, गांव के विकास जैसी बातें करके प्रभावित गांवों में कंपनी सामाजिक दायित्व (सीएसआर) के पैसे से कुछ सामान बांट कर बांध के लिए झूठी अनापत्ति लेते रहे हैं। जखोल गांव की जमीन भले ही कम जा रही हों किन्तु सुरंग से बर्बादी का आकलन असंभव है। और जिन गांवों की जमीन ज्यादा जा रही हैं उनको भी मात्र जमीन के दाम पर भ्रमित करके और आश्वासन देकर चुप करने की कोशिश की गई है। वन अधिकार कानून 2006 के अंतर्गत बिना कोई अधिकार दिए और यह भ्रम फैलाकर कि कानून मात्र आदिवासियों के हक की बात करता है, लोगों से व्यक्तिगत रूप से हस्ताक्षर कराए गए हैं। पंचेश्वर व रुपालीगाड बांध की जनसुनवाइयो में भी यही किया गया है। माटू जनसंगठन ने इस पर भी आपत्ति उठाई थी।
असल विवाद क्या है
उत्तराखंड की यमुना घाटी में सुपिन नदी पर प्रस्तावित जखोल-सांकरी जलविद्युत परियोजना में वही कमियां, वही कानूनी और नैतिक उल्लंघन किये गये जो कि अगस्त 2017 में बहु प्रचारित पंचेश्वर बांध की जनसुनवाई में किया गया था। यहां भी लोगों को जनसुनवाई क्यों हो रही है, किन कागजों के आधार पर होती है, ऐसी कोई जानकारी नहीं दी गई। पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट, प्रबंध योजना व सामाजिक आकलन रिपोर्ट के बारे में किसी को भी कोई जानकारी नहीं थी।
जनता क्या चाहती है
प्रभावित जनता की तरफ से माटू जनसंगठन ने उत्तरकाशी के जिलाधीश, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के साथ केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को भी पत्र भेजा है और उनसे इन सब परिस्थितियों में जनहित और पर्यावरणहित में कुछ मांग की है :
1- सभी प्रभावित गांवों और तोंको में सक्षम अधिकारी द्वारा विशेषज्ञों द्वारा पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट, प्रबंध योजना व सामाजिक आकलन रिपोर्ट हिंदी में उपलब्ध कराई व वास्तव में निष्पक्ष विशेषज्ञों द्वारा समझाई जाएं।
2- इस प्रक्रिया के होने के कम से कम 1 महीने बाद ही जनसुनवाई का आयोजन हो।
3- वन अधिकार कानून क्षेत्र में तुरंत लागू किया जाना चाहिए। जंगल के उत्पादों पर लोगों को अधिकार दिया जाना चाहिए जिससे स्थानीय लोगों की जीविका और सामान्य स्तर का सुनिश्चित हो सके।