भारत के आम चुनावों के नतीजों को लेकर पहले से ही माना जा रहा था कि प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी अपने तीसरे कार्यकाल के लिए सत्ता में वापसी कर रहे हैं।
नई सरकार का शपथ ग्रहण 9 जून, 2024 को हुआ। माना जा रहा है कि एक दशक के दौरान पिछले दो कार्यकाल में उनके नेतृत्व वाली सरकारों की तुलना में नई सरकार की संरचना बहुत अलग होगी।
विपक्षी दलों के मजबूत प्रदर्शन का असर यह हुआ है कि दस वर्षों में पहली बार मोदी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पास अब संसद में अपने दम पर बहुमत नहीं है। वर्ष 2014 और 2019 के चुनावों में भाजपा के पास पूर्ण बहुमत था।
अपने पिछले दो कार्यकाल के दौरान मोदी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के प्रमुख के रूप में शासन किया था, हालांकि तब उन्हें गठबंधन सहयोगियों की जरूरत नहीं थी। लेकिन इस बार भाजपा की केवल 240 सीटों के साथ (बहुमत के आंकड़े 272 से 32 कम ) वह अपने गठबंधन सहयोगियों पर निर्भर रहेंगे।
इसका घरेलू राजनीति पर तो महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा ही, लेकिन यह बांग्लादेश, नेपाल, पाकिस्तान और चीन सहित भारत के पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को भी प्रभावित करेगा। इनमें से बांग्लादेश और नेपाल के प्रधानमंत्री उन छह विदेशी नेताओं में शामिल हैं, जिन्हें मोदी के शपथ ग्रहण कार्यक्रम में आमंत्रित किया गया।
गंगा संधि पर फिर से बातचीत
मतदान खत्म होने के बाद अनेक एग्जिट पोल आए। तकरीबन सभी में यह अनुमान लगाया गया था कि भाजपा की सीटें बढ़ेंगी। लेकिन नतीजे आए तो पता चला कि भाजपा को 67 सीटों का नुकसान हुआ है।
विभिन्न एग्जिट पोल में अनुमान लगाया गया था कि पश्चिम बंगाल में भाजपा अपनी स्थिति मजबूत करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राज्य की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की क्षेत्रीय पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से पिछली बार के मुकाबले सात अतिरिक्त सीटें जीतीं और भाजपा को छह सीटें गंवानी पड़ी। हालांकि विदेशी संबंधों में राज्यों की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती है, लेकिन भारतीय संविधान के अनुसार, पानी राज्य का विषय है। इन नतीजों से ममता बनर्जी जैसी ताकतवर क्षेत्रीय नेता और मजबूत हुई हैं। इस वजह से नतीजे निश्चित रूप से प्रभावित होंगे।
हालांकि ममता बनर्जी की पार्टी विपक्षी गठबंधन का हिस्सा है, लेकिन पड़ोसी राज्य बिहार में नीतीश कुमार की सरकार है, जिनकी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) सत्तारूढ़ गठबंधन राजग का हिस्सा है। अपने सहयोगियों को साथ रखने की भाजपा की नई जरूरत को देखते हुए नीतिगत फैसलों में पिछले दस साल की तुलना में अब नीतीश कुमार की भूमिका ज्यादा होगी।
भारत और बांग्लादेश ने गंगा नदी के पानी के न्यायोचित बंटवारे के लिए 1996 में गंगा संधि पर हस्ताक्षर किया था, जो बिहार और पश्चिम बंगाल से होते हुए बांग्लादेश पहुंचती है। बहुत मुश्किल से इस संधि पर हस्ताक्षर हुए थे और दोनों देशों के बीच सबसे महत्वपूर्ण संधियों में से एक यह संधि 2026 में समाप्त हो जाएगी। मौजूदा हालात में इसकी जगह लेने वाली संधि पर बातचीत करने के लिए ढाका को अब न केवल नई दिल्ली, बल्कि कोलकाता (पश्चिम बंगाल की राजधानी) और पटना (बिहार की राजधानी) से भी बात करनी होगी।
यह लोकतांत्रिक पहुंच वास्तव में दोनों देशों के हित में हो सकता है। केवल दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों और केंद्रीय जल प्राधिकरणों के बीच बातचीत के बजाय, सार्वजनिक रूप से चर्चा और बहस के बाद होने वाले समझौते के स्थिर और समावेशी होने की संभावना ज्यादा है। जैसा कि डॉयलॉग अर्थ ने पहले ही बताया था, राजनीतिक आम सहमति के अभाव ने तीस्ता नदी से संबंधित संधि की संभावनाओं को गंभीर रूप से बाधित किया है, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के वीटो के कारण। अगले वर्षों में, एकमात्र रास्ता आम सहमति ही हो सकता है जिस पर यह निर्भर करेगा कि एक नई गंगा संधि हो सकती है, या पुरानी संधि ही जारी रहेगी।
नेपाल के साथ ध्यान केंद्रित करने को लेकर बदलाव?
एक और राज्य, जहां भाजपा का जनाधार घटा, वह है उत्तर प्रदेश। और भाजपा के लिए यह एक बड़ा झटका है। भारत में सबसे अधिक आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश संसद में 80 सांसद चुनकर भेजता है। वर्ष 2019 में भाजपा ने यहां 62 सीटें जीती थीं, इस बार मात्र 33 सीटें ही जीत सकीं।
हालांकि अब भी यहां भाजपा के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार है, लेकिन भारतीय संसद में उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिकांश सांसद अब भाजपा के विरोधी दलों के हैं। योगी आदित्यनाथ गोरखनाथ मंदिर के महंत या मुख्य पुजारी भी हैं, जिसका नेपाल के तत्कालीन शाही परिवार के साथ ऐतिहासिक संबंध रहा है। फिर से वही बात आती है कि चूंकि राज्य भारत की विदेश नीति में कोई औपचारिक भूमिका नहीं निभाते हैं, लेकिन नेपाल के प्रति भारतीय नीति को प्रभावित करने में गोरखनाथ मंदिर के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
पिछले दस वर्षों में नेपाल के साथ भारत के संबंधों में विवाद के कई मुद्दे रहे हैं। वर्ष 2015 में भारत से नेपाल जाने वाली वस्तुओं की नाकाबंदी से लेकर हाल ही में नक्शे पर दर्शाए गए विवादित सीमा क्षेत्रों को लेकर विवाद शामिल हैं। अब यह देखना है कि भारत की नई सरकार इन मुद्दों से कैसे निपटती है, लेकिन एक बात तो निश्चित है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भूमिका इसमें बड़ी होगी। दरअसल, बिहार कोसी बेसिन में बाढ़ से निपटने के लिए नेपाल पर बहुत ज्यादा निर्भर है, क्योंकि पानी नेपाल से नीचे की ओर आता है।
लंबे समय से जारी शत्रुता
सबसे दिलचस्प संभावनाएं पाकिस्तान और चीन के साथ हैं। इन दोनों देशों के साथ भारत के रिश्ते तनावपूर्ण हैं। यह तनाव इतना अधिक है कि कथित तौर पर मोदी ने इन दोनों देशों द्वारा भेेजे गए बधाई संदेशों का जीतने के बाद जवाब भी नहीं दिया। लेकिन 2014 के अपने शपथ ग्रहण समारोह में मोदी ने दक्षिण एशियाई देशों के सभी राजनीतिक नेताओं को आमंत्रित किया था। तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने इसमें भाग लेने का निश्चय किया था। एक साल बाद मोदी ने नवाज शरीफ की नातिन की शादी में भाग लेने के लिए पाकिस्तान की आश्चर्यजनक यात्रा की थी। हालांकि इसके तुरंत बाद दोनों देशों के संबंध खराब हो गए और वर्ष 2019 में भारत द्वारा कश्मीर क्षेत्र की कानूनी स्वायत्तता खत्म करने के अचानक उठाए गए कदम के बाद यह सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया।
मोदी और शी जिनपिंग के बीच दोस्ती तो और ज्यादा गहरी व स्पष्ट थी। दोनों नेताओं ने एक दूसरे से मिलने के लिए कई बार यात्राएं की थीं। लेकिन वास्तविक नियंत्रण रेखा (भारत और चीन के बीच सीमा क्षेत्र) पर हिंसक गतिरोध तेजी से खराब होते रिश्तों का आखिरी कदम था। उसके बाद कई दौर की बातचीत के बावजूद इस क्षेत्र में तेजी से सैन्यीकरण हुआ है और तनाव कम करने की दिशा में कुछ ही कदम उठाए गए हैं।
संयोग से जब भारत में आम चुनाव के नतीजे घोषित हो रहे थे, तो नवाज शरीफ के भाई और पाकिस्तान के मौजूदा प्रधानमंत्री बीजिंग में थे। चीन, भारत और पाकिस्तान-ये तीनों देश इस समय कई तरह की आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहे हैं। ऐसे में, रिश्तों में नरमी लाना या संबंधों में तनाव कम करना इन सभी अर्थव्यवस्थाओं के हित में होगा।
इनमें सबसे आसान तरीका भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु नदी जल संधि पर सुलह करना होगा। इसको लेकर एक ही मसले पर दोनों स्वतंत्र विशेषज्ञ हैं, जो बेतुकी बात है और मध्यस्थता न्यायालय भी सुनवाई कर रहा है। पिछले वर्ष, मध्यस्थता न्यायालय ने अपनी सुनवाई में भारत की आपत्तियों को सर्वसम्मति से खारिज कर दिया था, जिनमें से किसी में भी भारत ने भाग लेना उचित नहीं समझा।
हालांकि, इस तरह के नतीजे के लिए सावधानी और असाधारण राजनीतिक साहस, दोनों की आवश्यकता होगी। दूसरी ओर, अगर व्यापार हिमालयी क्षेत्र में सैन्य तैनाती को पीछे छोड़ देता है, तो इससे जो हासिल हो सकता है, वह एक समृद्ध विरासत होगी। और चूंकि मोदी प्रधानमंत्री के रूप में अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत कर रहे हैं, जिसे अधिकांश लोग उनका आखिरी कार्यकाल मानते हैं, इसलिए हो सकता है कि वह ऐसी विरासत चाहते हों, लेकिन क्या ऐसा होगा, यह कहना असंभव है।