पानी

उत्तराखंड में खोखले वादे और टूटे नल

भारत सरकार ने हर घर जल के तहत 2024 तक हर घर में पानी पहुंचाने के लिए नल कनेक्शन की महत्वाकांक्षी योजना शुरू की थी, लेकिन उत्तराखंड में कई ग्रामीण समुदाय इससे वंचित रह गए हैं।
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<p>उत्तराखंड के अल्मोड़ा में एक स्थानीय झरने से जुड़े नल पर स्थानीय महिलाएं कतार में खड़ी हैं। यह व्यवस्था सरकार के हर घर जल कार्यक्रम से पहले से है। (फोटो: स्वाति थापा)</p>

उत्तराखंड के अल्मोड़ा में एक स्थानीय झरने से जुड़े नल पर स्थानीय महिलाएं कतार में खड़ी हैं। यह व्यवस्था सरकार के हर घर जल कार्यक्रम से पहले से है। (फोटो: स्वाति थापा)

बसंती देवी अपने आंगन में प्लास्टिक के कंटेनरों से घिरी बैठी हैं, जिनमें से ज्यादातर खाली हैं। वह कपड़े और पॉलिथीन की थैलियों के टुकड़ों से बंधे एक नल की ओर इशारा करते हुए कहती हैं: “इस नल के बेकार होने की वजह से एक दिन मुझे इतना गुस्सा आया कि मैंने इसे नोच दिया; बाद में मेरे बच्चों ने इसे ठीक कर दिया।” 

नल में पानी न आने की वजह से, बसंती का परिवार पास के जंगल में स्थित एक नौला, पारंपरिक जलभृत यानी एक्वीफर, पर निर्भर है। वह 10 लीटर पानी लाने के लिए दिन में एक घंटा संकरी पगडंडियों पर चलती हैं।

भारत के हिमालयी राज्य उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के बुगध गांव में बसंती देवी का नल, हर घर जल योजना के तहत दिया गया था। 2019 में शुरू की गई इस सरकारी योजना का लक्ष्य 2024 तक भारत के हर ग्रामीण घर में पाइप से पानी पहुंचाना था। 

दुर्भाग्य से, बसंती देवी जैसे मामले उस अंतर को उजागर करते हैं कि इसको लेकर क्या आशा-आकांक्षा की गई थी और वास्तव में कितना जमीनी स्तर पर संभव हो पाया है। 

भ्रामक आंकड़े

कागजों पर यह परियोजना बहुत सफल लगती है। सरकारी वेबसाइट के अनुसार, अगस्त 2019 में उत्तराखंड में केवल 130,325 घरों में, जो 9 फीसदी से भी कम है, नल का जल कनेक्शन था। जुलाई 2023 तक सरकारी आंकड़ों के अनुसार, उत्तराखंड में 78.40 फीसदी घरों में नल का जल कनेक्शन था, और जुलाई 2024 तक यह अनुपात 95 फीसदी से अधिक हो गया।

A hillside with houses and trees
मटेना गांव में गंगा देवी के घर में पानी का कनेक्शन है। यह एक ऐसा गांव है जहां आधिकारिक तौर पर 100 फीसदी चालू हालत वाले घरेलू नल कनेक्शन है। जबकि सच्चाई यह है कि यहां न केवल पानी की कमी है, बल्कि नल भी गायब हैं। (फोटो: स्वाति थापा) 

जल शक्ति मंत्रालय के आधिकारिक आंकड़े राज्य सरकार द्वारा बताए गए आंकड़ों पर आधारित हैं। लेकिन इन्हें ग्राम पंचायतों (निर्वाचित ग्राम परिषदों) द्वारा प्रमाणित किया जाना चाहिए, जो अपने गांवों को ‘हर घर जल’ प्रमाणित घोषित करते हैं, जो दर्शाता है कि सभी घरों में सुरक्षित पानी की पहुंच है। 

उत्तराखंड के 14,884 गांवों में से 8,501 गांवों को 100 फीसदी कार्यात्मक घरेलू नल कनेक्शन गांव (एफएचटीसी) बताया गया है। हालांकि केवल 3,749 गांवों को ही ग्राम पंचायतों द्वारा इस तरह से प्रमाणित किया गया है। 

चितई पंत की ग्राम पंचायत के प्रधान रोहित कुमार ने डायलॉग अर्थ को बताया कि जल शक्ति मिशन को प्रस्तुत किए गए आंकड़े उनके द्वारा नहीं, बल्कि जल शक्ति मंत्रालय के साथ काम करने वाले ठेकेदार और इंजीनियरों द्वारा प्रदान किए गए थे। 

कुमार ने कहा, “हमने योजना के तहत लगाए गए नलों में पानी की कमी के बारे में कई शिकायतें दर्ज की हैं। वे हमें बताते रहते हैं कि टैंक बनने के बाद पानी उपलब्ध हो जाएगा, लेकिन वे हमें इसके पूरा होने का अनुमानित समय कभी नहीं बताते हैं।”

गांव के लोग यह भी बताते हैं कि अधिकारियों ने नल के साथ फोटो खिंचवाने का काम तो कर लिया, फिर भी कई लोग बिना पानी के रह गए हैं। चितई पंत ग्राम पंचायत के अंतर्गत आने वाले बड़ी गांव के भोपाल राम कहते हैं, “अगर मुझे पता होता कि नल केवल सजावटी होगा, तो मैं उन्हें कभी अपनी तस्वीर नहीं लेने देता; पानी के लिए हमारा संघर्ष कभी खत्म नहीं होता।”

अल्मोड़ा जिले के दीनापानी गांव भी आधिकारिक तौर पर 100 फीसदी एफएचटीसी है। यहां के रहने वाले राजेश मेहता कहते हैं कि उनके गांव में 35 परिवार रहते हैं, केवल दो घरों में ही जल नल कनेक्शन चालू है। अक्टूबर 2023 में 15 घरों में नल लगाए गए थे, लेकिन अधूरे बुनियादी ढांचे के कारण वे सूखे हैं।

a woman carrying water container on head in rural village
बघाड़ गांव की बसंती देवी को अपने परिवार की पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए हर दिन कम से कम एक घंटा पानी लाने के लिए लगाना पड़ता है। उनको 10 लीटर पानी लाने के लिए संकरी पगडंडियों पर चलने के लिए मजबूर होना पड़ता है। (फोटो: स्वाति थापा)

उत्तराखंड के 90 फीसदी निवासियों की तरह, दीनापानी के ग्रामीण अभी भी नल कनेक्शन के पानी के बजाय प्राकृतिक झरनों पर निर्भर हैं। गर्मियों के दौरान, जब जलभृत सूख जाते हैं या निम्न स्तर पर पहुंच जाते हैं, तो ग्रामीण एक सप्ताह तक चलने वाले 1,100 रुपये प्रति टैंकर पानी खरीदते हैं। 

मेहता कहते हैं, “इस गर्मी में, हमने छह बार [पहले ही] पानी खरीदा है।” 

अल्मोड़ा में पाइप लाइन के काम की देखरेख कर रहे पेयजल निगम विभाग के जूनियर इंजीनियर अरुण खत्री ने डायलॉग अर्थ से बात करते हुए कहा कि पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए टैंक के निर्माण में देरी हुई क्योंकि पेड़ों को हटाने की जरूरत थी। इसके लिए, बदले में, वन विभाग से मंजूरी की आवश्यकता थी। योजना के लिए स्रोत को विकसित करने, जल उपचार और वितरण प्रणाली सहित गांव में बुनियादी ढांचे के निर्माण की आवश्यकता है, लेकिन अभी तक केवल पाइपलाइन और नल ही उपलब्ध कराए गए हैं।

वह बताते हैं, “चूंकि हमने [पाइप लाइन] कनेक्शन बिछा दिए हैं, इसलिए हमें डेटा रिकॉर्ड करना होगा और उन्हें ऑनलाइन अपलोड करना होगा।” 

वंचित परिवारों पर पानी की कमी का प्रभाव

वर्तमान में ब्रैंडिस विश्वविद्यालय में पर्यावरण अध्ययन के एसोसिएट प्रोफेसर और क्लाइमेट जस्टिस नेटवर्क के सह-संस्थापक, प्रकाश काशवान का कहना है कि भले ही पानी का बुनियादी ढांचा आखिरकार बनाया गया हो, लेकिन यह उन लोगों के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है जिन्हें पानी की सबसे अधिक आवश्यकता है। 

वह कहते हैं, “कई मामलों में, ये जल संसाधन दलितों और मुसलमानों जैसों [हाशिए पर पड़े समुदायों] के लिए दायरे से बाहर हैं। कुछ जगहों पर उनके स्थान और पानी की गुणवत्ता के आधार पर सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक रूप से दमित जातियों को अलग-अलग धारे [झरने] दिए गए हैं। सभी जातियों के साझा धारों वाले क्षेत्रों में दलित महिलाएं तभी पानी ले सकती हैं, जब सामाजिक-आर्थिक रूप से विशेषाधिकार प्राप्त जाति की महिलाएं अपना हिस्सा ले लें। विशेषाधिकार प्राप्त जाति के जल स्रोतों का उपयोग करने के प्रयास के लिए दमित जातियों को अक्सर मौखिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है।”

हम अनुसूचित जाति से हैं; विकास से जुड़े कामों का फायदा हम तक नहीं पहुंच पाता। 
निशा देवी

पिथौरागढ़ जिले के बिजौलीनाग गांव की निशा देवी कहती हैं, “हमें [हर घर जल] योजना के तहत नल कनेक्शन नहीं दिए गए हैं।” 

वह बताती हैं, “पहाड़ी पर ऊपर रहने वाले ठाकुर समुदाय को ये मिले हैं। हम अनुसूचित जाति से हैं; विकास से जुड़े कामों का फायदा हम तक नहीं पहुंच पाता है।  हमारे प्रधान [गांव के मुखिया] हमारे अनुरोधों को अनदेखा करते हैं, केवल वोट मांगने के लिए आते हैं।” 

अनुसूचित जाति संवैधानिक शब्द है। इसका इस्तेमाल दमित जाति समूह के लिए किया जाता है। इनको पहले अछूत के रूप में जाना जाता था। ये अक्सर खुद को दलित कहते हैं।

a woman feeding chickens
क्षेत्र के कई दलित परिवारों के लिए, अपर्याप्त सुविधाओं के कारण अपने पशुओं की देखभाल करना चुनौतीपूर्ण है। गंगा देवी की मुर्गियां भी पानी पर निर्भर हैं जिसे इकट्ठा करने में उनको घंटों मेहनत करना पड़ता है। (फोटो: स्वाति थापा) 

भारत के अधिकांश पारंपरिक गांव स्थानिक रूप से अलग-थलग हैं, जहां हाशिए पर पड़े समुदाय बाहरी इलाकों में बसे हुए हैं। 

उत्तराखंड के एक शोधकर्ता और पर्यावरणविद् वर्गीश बमोला कहते हैं कि प्रमुख जाति समुदायों ने पारंपरिक रूप से बेहतर जल संसाधनों वाली भूमि पर दावा किया है। वह कहते हैं, “मैंने देखा है कि खराब जल स्रोत, गुणवत्ता और मात्रा दोनों में, आमतौर पर निचली जाति के सदस्यों को दिए जाते हैं। अक्सर, गंध से पता चलता है कि पानी में कुछ गड़बड़ है।” 

निशा देवी कहती हैं कि यह ऐतिहासिक बहिष्कार नए बुनियादी ढांचे के निर्माण में भी मौजूद है। उन्होंने कहा, “उच्च जाति के गांव के लिए एक टैंक बनाया गया था, लेकिन चूंकि हम नीचे की ओर रहते हैं, इसलिए हमारे लिए कोई टैंक नहीं बनाया गया है। 

निशा देवी का यह भी कहना है, “हमारी जाति के लोगों की नजर में कोई कीमत नहीं है; हम जानकारी और योजनाओं के किसी भी लाभ से वंचित हैं।” 

भौगोलिक अलगाव के कारण भी ये गांव संकट के समय भी टैंकरों से पानी खरीदने में असमर्थ हैं क्योंकि ऐसे गांव शायद ही कभी पक्की सड़कों से जुड़े होते हैं।

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मटेना गांव की महिलाएं पानी का कम इस्तेमाल करती हैं। पानी बचाने के लिए अपने परिवार के लिए केवल उन्हीं कपड़ों को हाथ से धोती हैं जिनकी उन्हें तत्काल जरूरत होती है। (फोटो: स्वाति थापा)

मटेना भी एक और कथित 100 फीसदी एफएचटीसी गांव है। यहां की गंगा देवी ने बताया कि कागज में भले ही हमारे यहां पानी का कनेक्शन हो लेकिन हकीकत में पानी नहीं आ रहा है। 

वह कहती हैं, “हम एक जलभृत से पानी इकट्ठा करने के लिए हर दिन एक घंटा [चलने] में बिताते हैं। सप्ताह में एक बार, हम कपड़े धोने और नहाने के लिए नदी पर जाते हैं।” 

गर्मियों के दौरान, जब जलभृत सूख जाते हैं, तो जंगली जानवरों के खतरे के बावजूद महिलाएं रात में पानी इकट्ठा करने के लिए समूह बनाती हैं। 

गंगा देवी बताती हैं, “हम तेंदुओं को डराने के लिए बर्तन बजाते हैं। जब पानी की बात आती है तो हमारे पास कोई विकल्प नहीं होता।” 

पर्यावरण के लिहाज से टिकाऊ नहीं

वर्गीश कहते हैं कि हर घर जल योजना का एक कम खोजा गया पहलू पानी की आपूर्ति पर प्रभाव है जो पहले नल के पानी तक पहुंच के बिना लोगों की जरूरतों को पूरा करता था।

वह बताते हैं, “शुरू में, एक जल स्रोत जो एक या दो गांवों को पानी उपलब्ध कराता था, अब योजना के कार्यान्वयन के कारण 10-12 गांवों को आपूर्ति करने के लिए बढ़ाया जा रहा है।”

ये झरने पहले से ही दबाव में थे। गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान ने पाया कि भारतीय हिमालयी क्षेत्र में 58,000 गांव झरनों पर निर्भर हैं, “जिनमें से कम से कम आधे झरने सूख रहे हैं या उनमें पानी के बहाव में कमी देखी गई है”। 

पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट के निदेशक देबाशीष सेन बताते हैं कि, “विकास परियोजनाओं के कारण वनों की कटाई के साथ-साथ भारी बारिश के कारण बारिश का पानी जमीन में नहीं जा पाता और झरने के जलभृतों को रिचार्ज नहीं कर पाता। नतीजतन, बारिश का ज्यादातर पानी पहाड़ से नीचे बह जाता है, जिससे ये झरने सूख जाते हैं।”

plastic containers for storing water
पानी की जब जरूरत हो, तब मिल जाए, ऐसा उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों में अभी संभव नहीं हो पाया है। इसलिए आंगन में प्लास्टिक के कंटेनर भरे पड़े रहते हैं क्योंकि पूरे परिवार की पानी की जरूरत के लिहाज से इनकी आवश्यकता होती है।(फोटो: स्वाति थापा) 

अब हर घर जल योजना के कार्यान्वयन से इन घटते संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव बढ़ रहा है।

इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) के एक वरिष्ठ वाटरशेड प्रबंधन विशेषज्ञ संजीव भूचर ने कहा, “कई समुदायों का पोषण करने वाले एक साझा संसाधन के खत्म होने से उन लोगों पर काफी असर पड़ता है जो झरनों पर निर्भर हैं, खासकर हाशिए पर पड़े समूह। इससे एक शून्य पैदा होता है, जो क्षेत्र में रहने वाले बड़े समुदाय को प्रभावित करता है। दुर्भाग्य से, जलभृतों को रिचार्ज करने के लिए बहुत कम प्रयास किए जाते हैं।” 

इस बीच, बसंती देवी जैसे लोग अपने वादे के मुताबिक लाभ पाने के लिए बेताब हैं। 

उनका कहना है, “हम अपने गांव में पानी लाने के लिए किसी भी अधिकारी को भुगतान करने को तैयार हैं; पानी लाने के लिए हमको बहुत समय लगता है।” 

हालांकि, काशवान के लिए यह सिर्फ एक योजना या दूसरी योजना के बारे में नहीं है, बल्कि इस बारे में है कि समय के साथ ऐसी सभी योजनाओं को किस तरह से लागू किया गया है। 

वह कहते हैं, “जब तक भारतीय समाज का एक छोटा वर्ग इन सभी क्षेत्रों पर हावी रहेगा, तब तक इन असमानताओं को दूर करना असंभव होगा। हमें इसे पूरे समाज की चुनौती के रूप में सोचना चाहिए जिसका कई स्तरों पर हल निकाला जाना चाहिए।”

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