गंगा जल बंटवारा संधि पर भारत और बांग्लादेश ने 1996 में हस्ताक्षर किए गए थे। यह 30 साल की संधि, दशकों की बातचीत की परिणति थी। इस संधि में, भारत की तरफ से शुष्क मौसम के दौरान- जनवरी से मई तक- अपने डाउनस्ट्रीम पड़ोसी बांग्लादेश के साथ जल प्रवाह के न्यूनतम स्तर को साझा करने की बात है।
भारत ने 1962 में जब से फरक्का बैराज पर काम शुरू किया था, तब से बांग्लादेश (उस समय का पूर्वी पाकिस्तान) की एक प्रमुख मांग गंगा संधि थी। फरक्का बैराज को 1975 में गंगा से पानी को कोलकाता के बंदरगाह की ओर मोड़ने के लिए अधिकृत किया गया।
मलिक फ़िदा ए. खान, बांग्लादेश सरकार द्वारा बनाई गई एक शोध संस्था, सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एंड जियोग्राफिक इन्फॉर्मेशन सर्विसेस (सीईजीआईएस) में कार्यकारी निदेशक हैं। वह राष्ट्रीय नदी संरक्षण आयोग (एनआरसीसी) के सदस्य भी हैं, जो जहाजरानी मंत्रालय के तहत एक सरकारी संस्था है। खान, संयुक्त नदी आयोग (जेआरसी) के सदस्य रहे हैं, जो 1972 के इंडो-बांग्ला ऑफ फ्रेंडशिप, कॉपरेशन एंड पीस परिणाम के रूप में स्थापित निकाय है। खान ने www.thethirdpole.net के साथ संधि को लेकर बांग्लादेश के अनुभव और भविष्य में जल सहयोग की संभावनाओं के बारे में बात की। हम उनके साथ साक्षात्कार के संपादित अंश प्रस्तुत कर रहे हैं।
30 साल की गंगा संधि 2026 में समाप्त होने वाली है। आप इसकी प्रभावशीलता का आकलन किस तरह से करेंगे?
निश्चित रूप से मुझे कहना चाहिए कि यह संधि सफल है क्योंकि पहली बार बांग्लादेश, नदी [जल] पर अपना अधिकार स्थापित करने में सक्षम हुआ है। एक बार अधिकार की पहचान हो जाने के बाद, हम सहयोग और प्रबंधन के लिए अन्य रास्ते खोज सकते हैं। 30 साल के आंकड़ों के आधार पर 1996 में गंगा संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे। दोनों देश शुष्क मौसम (जनवरी-मई) के दौरान न्यूनतम जल प्रवाह सुनिश्चित करने पर सहमत हुए। लेकिन सन्धि का आधार जल के ‘मात्रा’ से संबंधित था। अब जल से संबंधित अन्य पहलुओं जैसे पर्यावरणीय प्रवाह, जलवायु परिवर्तन, नेविगेशन, अर्थव्यवस्था और सामाजिक पहलुओं इत्यादि पर विचार करने का समय है। 26 साल पहले, ये विषय हमारी बातचीत का हिस्सा नहीं थे क्योंकि पानी पर अधिकार स्थापित करना बांग्लादेश का लक्ष्य था।
इस बात की आलोचना होती है कि शुष्क मौसम में बांग्लादेश को उतना पानी नहीं मिलता है जितने पर संधि में सहमति बनी थी?
जहां तक मेरी जानकारी है, गंगा संधि के अनुसार, फरक्का प्वाइंट से हमने पानी प्राप्त किया है। यदि आप ज्वाइंट रिवर कमीशन (जेआरसी) की वेबसाइट पर जाएंगे तो आपको विशिष्ट तरह के आंकड़े प्राप्त होते हैं। यदि हम पिछले 24 वर्षों के आंकड़ों पर नजर डालें तो देखेंगे कि खंड 2 के अनुसार, हमें जितना पानी मिलना चाहिए था, उतना ही हमें मिला है।
गंगा संधि 2026 में समाप्त हो रही है। आगे क्या है?
हमें दो बातें समझनी चाहिए। सीमा के दोनों ओर पानी की मांग बढ़ी है लेकिन नदी प्रणाली में पानी की उपलब्धता कम हो गई है। इसके कई कारण हो सकते हैं, जैसे ऊपरी नदी के पानी की निकासी या डायवर्जन। एक निचले तटवर्ती देश के रूप में, हमें पहले प्रासंगिक अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संधियों का अध्ययन करने की आवश्यकता है। बांग्लादेश और भारत दोनों के लिए इन मुद्दों पर बहुत सारा होमवर्क करना और विशेषज्ञों के स्तर पर एक-दूसरे के साथ विवरण साझा करना बेहद जरूरी है। उदाहरण के लिए, दोनों देश भविष्य की मांग के आधार पर काम कर सकते हैं। हम सभी जानते हैं कि नदी में पानी की उपलब्धता की तुलना में मांग काफी अधिक है। इसलिए हमारे पास हमेशा जीत की स्थिति नहीं हो सकती है।
संधि केवल ‘पानी की मात्रा’ और कृषि उत्पादकता पर आधारित नहीं होनी चाहिए। हमें इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि दोनों देश लवणता को कम करने में कैसे मदद कर सकते हैं।
दूसरी बात यह है कि दोनों देशों को एक और संधि की योजना बनाते समय नदी के पर्यावरणीय प्रवाह पर विचार करना चाहिए। हमें यह याद रखना होगा कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव केवल बांग्लादेश की नदी प्रणालियों को ही प्रभावित नहीं करेंगे। जब तक हम हुगली, गोराई और मेघना नदी प्रणालियों के पर्यावरणीय प्रवाह पर विचार नहीं करते, भारत और बांग्लादेश दोनों को आने वाले दिनों में चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
बांग्लादेश की तरफ से, हमने अपने भारतीय समकक्षों से कहा है कि अगर हमें जरूरत से ज्यादा पानी मिलता है, तो शायद भविष्य में हम इसे भारत की ओर मोड़ सकते हैं ताकि उनके हिस्से वाले सुंदरवनों को बचाया जा सके। संधि केवल ‘पानी की मात्रा’ और कृषि उत्पादकता पर आधारित नहीं होनी चाहिए। हमें इस बात पर भी विचार करने की आवश्यकता है कि दोनों देश, गंगा के संयुक्त प्रबंधन के माध्यम से लवणता को कम करने में कैसे मदद कर सकते हैं।
क्या आपका यह मतलब है कि देशों को तकनीकी स्तर पर अधिक संयुक्त अध्ययन और अधिक चर्चा करनी चाहिए?
हम भारत के साथ तकनीकी स्तर पर लगातार बातचीत कर रहे हैं। 2011 में दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों द्वारा हस्ताक्षरित समझौता ज्ञापन के अनुच्छेद 2 में, दोनों देश संयुक्त नदियों के बेसिन-वाइड मैनेजमेंट के लिए काम करने पर सहमत हुए। लेकिन हमें अभी भी बेसिन-वाइड मैनेजमेंट के लिए मिलकर काम करना शुरू करना है। कुछ शुरुआती चीजें अभी भी चल रही हैं।
समझौता ज्ञापन के अनुसरण के रूप में, दोनों देशों ने यह मूल्यांकन करने के लिए एक तकनीकी समिति का गठन किया है कि बांग्लादेश पानी का इष्टतम उपयोग कैसे सुनिश्चित कर सकता है, जिसका मैं सदस्य हूं। हमने उस पर एक संयुक्त अध्ययन करने के लिए पहले ही संदर्भ की शर्तें तैयार कर ली हैं। हम अपनी सीमाओं पर नदियों के संयुक्त ड्रेजिंग शुरू करने के बारे में सोच रहे हैं। यदि हम ऐसा कर सकते हैं, तो मुझे लगता है कि हम नीचे की ओर जल प्रवाह को बढ़ाने में सक्षम होंगे। दोनों देश संयुक्त अध्ययन की योजना बना रहे हैं, लेकिन कोविड के कारण कुछ देरी हुई है। मुझे लगता है कि स्थिति में सुधार हुआ है; हम अब योजना बना सकते हैं।
फरक्का बैराज के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या आपको लगता है कि इसे नष्ट कर दिया जाना चाहिए?
नदी के प्रवाह में कोई हस्तक्षेप, नदी और उसके पारिस्थितिकी तंत्र के लिए हानिकारक है। फिर भी, हम नदियों में कई इंजीनियरिंग हस्तक्षेप करते हैं। फरक्का बैराज का मतलब, कोलकाता बंदरगाह को नौगम्य रखना और पश्चिम बंगाल के बहाव में लवणता को पीछे धकेलने से था। वर्ष के शुष्क मौसम (जनवरी-मई) के दौरान कोलकाता बंदरगाह को चालू रखने के लिए पानी को मोड़ने के लिए बैराज भी आवश्यक था। भारत ने फरक्का बैराज का निर्माण एक फीडर नहर के माध्यम से 40,000 क्यूसेक पानी हुगली की ओर मोड़ने के लिए किया था। इस तरह के किसी भी हस्तक्षेप के लिए मजबूत प्रबंधन की आवश्यकता होती है। अवसादन की वजह से, बैराज के फाटकों के प्रबंधन संबंधी परिचालन में दिक्कतें बढ़ सकती हैं। यदि नदी तंत्र में पानी की भारी कमी है, तो नीचे की ओर बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के लिए पानी छोड़ने की क्या विधि होगी? यहां संयुक्त प्रबंधन का महत्व सामने आता है।
बैराज 1975 में चालू हुआ, लेकिन क्या आपको लगता है कि संरचनात्मक स्थिति वही रहती है? दूसरी चीज, जो हमें सोचनी चाहिए, वह है बैराज के प्रदर्शन का मूल्यांकन। मसलन, यह अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी में कितना योगदान दे रहा है। जब तक हम इन सभी सवालों के जवाब नहीं देते, ऐसे इंजीनियरिंग हस्तक्षेपों की आलोचना होगी। एक अन्य बात ऐसी रिपोर्ट्स को सार्वजनिक करना भी है। अगर हम इस तरह के शोध और मूल्यांकन कर सकें और लोगों को इन सभी चीजों से अवगत करा सकें, तो मुझे लगता है कि कई चिंताओं से निपटा जा सकेगा।
क्या आपको लगता है कि बांग्लादेश और भारत तीस्ता संधि पर हस्ताक्षर कर पाएंगे?
गंगा और तीस्ता दोनों मुद्दे भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल से जुड़े हुए हैं। पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने गंगा संधि का समर्थन किया और इसीलिए हम संधि पर हस्ताक्षर करने में सक्षम थे। केंद्र सरकार हमेशा ऐसी संधियों या समझौतों के पक्ष में है, लेकिन उन्हें राज्य सरकार की राय को महत्व देना ही चाहिए। राज्य सरकार, विशेषकर वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। हमें उनको अपने संवाद और तकनीकी चर्चा में शामिल करना होगा। यह महत्वपूर्ण है कि उनको संधि के महत्व का एहसास हो। साथ ही, उनके सलाहकारों को तीस्ता से जुड़ी चर्चा में शामिल होने की आवश्यकता है।
1947 में बंटवारे के बाद प्रबंधन बंट गया, लेकिन प्रवाह जस का तस है।
उदाहरण के लिए, यह वास्तव में अच्छा होगा यदि हम प्रोफेसर कल्याण रुद्र जैसे प्रख्यात जल विशेषज्ञों के साथ बैठ सकें। हमें यह याद रखना होगा कि ये नदियां, साझा नदियां हैं। 1947 में बंटवारे के बाद प्रबंधन बंट गया, लेकिन प्रवाह जस का तस है।
जब हम जल प्रबंधन से संबंधित द्विपक्षीय मुद्दों पर चर्चा करते हैं तो भारत की केंद्र सरकार को पश्चिम बंगाल के विशेषज्ञों को बैठकों में आमंत्रित करना चाहिए। नहीं तो राज्य सरकार को पता ही नहीं चलेगा कि केंद्र स्तर पर जल प्रबंधन को लेकर क्या हो रहा है। तीस्ता संधि के संदर्भ में जेआरसी स्तर पर और नेतृत्व के स्तर पर, दोनों सरकारें संधि की आवश्यकता पर सहमत हैं, लेकिन हमें आम सहमति तक पहुंचने के लिए पश्चिम बंगाल को साथ लाना होगा।
बांग्लादेश, भारत के साथ 54 नदियों को साझा करता है लेकिन केवल एक ही संधि है। साझा नदी प्रणालियों के समग्र प्रबंधन और समन्वय के लिए बांग्लादेश का ध्यान क्या होना चाहिए?
कृपया ऐसा बिल्कुल न मानें कि हमारे द्वारा साझा की जाने वाली जल प्रणालियों के समग्र प्रबंधन पर हमारे बीच कोई समन्वय या सीमित समन्वय नहीं है। जब हम जेआरसी स्तर पर मिलते हैं, तो हम हमेशा 2011 के समझौता ज्ञापन के निर्देशों को उजागर करते हैं जो कि बेसिन-वाइड मैनेजमेंट है। 54 नदियों में से प्रत्येक के लिए समझौते करना व्यावहारिक नहीं है, इसमें कई साल लग सकते हैं। इसलिए, हमने जेआरसी में निर्णय लिया कि हम बेसिन-वाइड मैनेजमेंट के लिए शुरू में किन नदियों पर विचार करेंगे। इनमें तीस्ता, महानंदा, दूधकुमार, धोरला, फेनी, मोनू और खोवाई शामिल हैं।
यह सही समय है जब हमने नेविगेशन, पानी की गुणवत्ता, जलवायु परिवर्तन, बाढ़ प्रबंधन और लोचशीलता पर ध्यान केंद्रित किया है
हमें संयुक्त अध्ययन करना चाहिए जो पानी की मात्रा से परे अन्य लाभों की तरफ भी देखें। यदि हम केवल पानी की मात्रा पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो हमें जल प्रबंधन के मुद्दों को हल करने के लिए कई वर्षों तक इंतजार करना होगा। लेकिन अगर हम साझा करने के लाभों पर विचार करें, तो हम बहुत से विवादित मुद्दों को हल करने में सक्षम होंगे। यह सही समय है जब हम नेविगेशन, पानी की गुणवत्ता, जलवायु परिवर्तन, बाढ़ प्रबंधन और लोचशीलता पर ध्यान केंद्रित करें। यदि हम केवल शुष्क मौसम के पांच महीनों के बारे में सोचते हैं या फिर केवल इस पर ध्यान देते हैं कि ऊपरी नदी पर कितना पानी मोड़ा या निकाला जाता है तो यह एक वास्तविक समाधान नहीं होगा। और आखिरकार, कुछ नई नदियों की पहचान सीमापार नदियों के रूप में की गई है, लेकिन उन नदियों को सूचीबद्ध नहीं किया गया है। लेकिन अगर हम पारिस्थितिक तंत्र पर उनके महत्व को देखते हुए रणनीतिक नदियों के प्रबंधन पर काम करना शुरू कर सकते हैं, तो हम बेसिन-वाइड मैनेजमेंट का एक उदाहरण स्थापित कर सकते हैं।
चूंकि हम बेसिन-वाइड मैनेजमेंट की बात कर रहे हैं, तोक्या आप चीन को चर्चा में लाने की कोशिश कर रहे हैं?
बांग्लादेश इन मुद्दों पर विशेष रूप से बहुपक्षीय रूप से चर्चा करने के लिए हमेशा तैयार है। लेकिन जब हमने चीनियों को प्रस्ताव दिया कि हमें बेसिन-वाइड रिवर मैनेजमेंट के मुद्दे पर चर्चा करनी चाहिए, तो वे इस पर बहुपक्षीय चर्चा नहीं करना चाहते थे। अब तक हम ट्रैक 1 [अंतर-सरकारी] स्तर पर इस मुद्दे पर चर्चा नहीं कर पाए हैं। लेकिन ट्रैक 2 [विशेषज्ञ] या ट्रैक 3 [अकादमिक और गैर-सरकारी संगठन] स्तर पर कई संवाद और चर्चाएं हुई हैं। मुझे लगता है कि हमारे पास बहुपक्षीय मंचों पर, विशेष रूप से ट्रैक 1 स्तर पर, चर्चा करने के लिए सभी पक्षों को एक साथ लाने का अवसर है। एक क्षेत्रीय सम्मेलन या संवाद का आयोजन किया जा सकता है जहां चीन, भारत, बांग्लादेश और नेपाल के नीति निर्माताओं को नदी घाटियों के बहुपक्षीय प्रबंधन पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित किया जा सकता है। समस्या चीन और भारत के साथ है। वे इन मुद्दों पर द्विपक्षीय स्तर पर ही चर्चा करना चाहते हैं। बांग्लादेश और नेपाल किसी भी बहुपक्षीय स्तर पर भाग लेने के लिए तैयार हैं। यहां तक कि भूटान भी बहुपक्षीय मंच पर किसी भी विवादित मुद्दे को सुलझाने के लिए तैयार है।