जंगल

कश्मीर के वनों पर चल रही है कुल्हाड़ी

वन सलाहकार समिति ने 33 दिनों के भीतर 727 हेक्टेयर वन भूमि के डायवर्जन की अनुमति दे दी। इससे वन क्षेत्र के भीतर आने वाले पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलने का रास्ता साफ हो गया।
हिन्दी
<p>Part of a degraded forest in north Kashmir&#8217;s Bandipora district [image by: Athar Parvaiz]</p>

Part of a degraded forest in north Kashmir’s Bandipora district [image by: Athar Parvaiz]

जम्मू एवं कश्मीर की पूर्व वन सलाहकार समिति (एफएसी) सितंबर और अक्टूबर में बहुत व्यस्त रही। इसको वन भूमि पर इंफ्रास्ट्रक्चर और अन्य परियोजनाओं को अनुमति देने संबंधी फैसला लेने की जिम्मेदारी दी गई थी। एफएसी ने 18 सितंबर से 21 अक्टूबर के बीच 727 हेक्टेयर से ज्यादा वन भूमि के डायवर्जन को अनुमति दी।

इसके अलावा एफएसी ने कम से कम 1847 पेड़ों को काटने की अनुमति दी। इनमें 1471 पेड़ वन भूमि के अंदर थे। साथ ही 376 पेड़ सामाजिक वानिकी वाले क्षेत्र में थे। इसके अलावा पाकल दुल जल विद्युत परियोजना के कारण भविष्य में जलमग्न हो जाने वाले बहुत सारे अन्य पेड़ों को काटने की अनुमति दी गई, जिनकी निश्चित संख्या का पता भी नहीं है।

आधिकारिक दस्तावेजों से पता चला है कि 60 फीसदी से ज्यादा वन भूमि के डायवर्जन की मंजूरी सड़कें बनाने के लिए दी गई है। साथ ही 33 फीसदी (243 हेक्टेयर) का इस्तेमाल पीर पंजाल (गुलमर्ग वाइल्ड लाइफ सैंक्चुरी) केहमिल, झेलम घाटी, सांबा और जम्मू वन प्रभागों में सेना और अर्धसैनिक बलों के लिए होगा।

एफएसी ने 18 सितंबर, 3 अक्टूबर, 17 अक्टूबर और 21 अक्टूबर को अपनी चार बैठकों में 198 परियोजनाओं को मंजूरी दी जिनमें ज्यादातर सड़क निर्माण से जुड़ी हुई हैं। इन 33 व्यस्त दिनों की तुलना अगर 2018 से करें तो उस साल वन भूमि के डायवर्जन से संबंधित 97 परियोजनाओं को मंजूरी दी गई थी जो इन चार बैठकों की तुलना में मंजूरी दी जाने वाली परियोजनाओं से 101 कम हैं।

जम्मू और कश्मीर के वन विभाग का कहना है कि कुछ हफ्तों के भीतर ये फैसले लिये जाने थे क्योंकि 31 अक्टूबर, 2019 से जम्मू और कश्मीर रिऑर्गनाइजेशन एक्ट लागू होना था। इस एक्ट के लागू हो जाने के बाद जम्मू एंड कश्मीर फॉरेस्ट एक्ट (जिसके अंतर्गत एफएसी बनाया गया था) का अस्तित्व खत्म होना था। भारतीय संविधान का आर्टिकल 370 पिछले 7 दशक से अस्तित्व में था, जो कि पर्वतीय राज्य जम्मू एवं कश्मीर को विशेष दर्जा देने की गारंटी देता था, जिसके तहत राज्य को अपने कानून के अधिकार प्राप्त थे, पिछली गर्मियों में भारतीय संसद से ये आर्टिकल खत्म कर दिया।

नाम न छापने की शर्त पर पूर्व एफएसी के एक सदस्य ने बताया कि पिछले कई वर्षों से अटकी कई परियोजनाओं को अब मंजूरी दे दी गई। ये परियोजनाएं अब तक इसलिए अटकी हुईं थी क्योंकि इनको लेकर एफएसी के कुछ सवाल थे। हालांकि इन सवालों का जवाब अभी भी नहीं दिया गया है। लेकिन इन परियोजनाओं को फटाफट मंजूरी दे दी गई।

खतरे में है कश्मीर का पर्यावरण

कश्मीरी जब वनों के महत्व के बारे में बात करते हैं तो वे 15वीं शताब्दी के फकीर और शायद शेख अल आलम की लाइनें बताते हैं जिनका मतलब ये है कि अगर वन खत्म हो जाएंगे तो भोजन भी खत्म हो जाएगा। कश्मीर के शंकु और सदाबहार वनों व बर्फ से ढकी चोटियों का सीधा असर क्षेत्र की कृषि, ऊर्जा और पयर्टन पर पड़ता है। यहां खूबसूरत लेक हैं। नदियां हैं। कृषि वाले मैदान हैं। घास के मैदान हैं। वनों का आर्थिक उत्पादन है।

कश्मीर के वनों को उनकी शंकुधारी किस्मों के लिए जाना जाता है [image by: Athar Parvaiz]
इस पारिस्थितिक संपत्ति को लेकर शेख अल आलम की सलाह की गूंज इस क्षेत्र में हर साल विशेष मौकों पर सुनाई पड़ती है। विश्व जल दिवस, पृथ्वी दिवस और विश्व पर्यावरण दिवस पर हजारों स्कूलों, कॉलेजों और जनसभाओं में तमाम वक्ता वनों के महत्व के बारे में बातें करते हैं।

फिर भी पिछले तीन दशकों में हिंसा के दौरान कश्मीर के वनों का भारी विनाश हुआ है। राजनीतिक उथल – पुथल के बीच बिना निगरानी वाले भारी कंस्ट्रक्शन की वजह से वन क्षेत्र के बहुत ज्यादा नुकसान को बढ़ावा मिला है।

वनों के विनाश का असर पहले से दिखने लगा है। कई स्थानों पर पानी के बारहमासी स्रोत सूख रहे हैं। मृदा क्षय में बहुत तेजी से इजाफा हो रहा है। अचानक बाढ़ आने लगी है। जलाशयों में गाद जमने लगी है। जैव विविधता को नुकसान हो रहा है। वन उत्पादों में गिरावट आ रही है। हिंसा ने इन मुद्दों को और भी कठिन बना दिया है। आधिकारिक दस्तावेजों के मुताबिक वनों की रक्षा करते हुए अब तक एक वन संरक्षक सहित 79 वन आधिकारी अपनी जान गंवा चुके हैं। वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि उनके ऊपर आंतकवादी और सुरक्षा बल दोनों हमले करते हैं।

कश्मीर यूनिवर्सिटी के भूगोल विभाग के प्रमुख मोहम्मद सुल्तान भट हाल में हुए एक अध्ययन के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहते हैं कि दक्षिणी कश्मीर में पहलगाम के टूरिस्ट रिसॉर्ट के आसपास घने जंगलों के क्षेत्रफल में 1961 से 2010 के बीच 191 वर्ग किमी की कमी आई है। ये औसतन सालाना 3.9 वर्ग किमी घने जंगलों का नुकसान है।  इस विनाश की मुख्य वजह वन क्षेत्र में अवैध निर्माण है।

भट कहते हैं कि कम घने वन क्षेत्र की स्थिति भी इससे अलग नहीं है। 2001 से 2010 के बीच इसमें तकरीबन सालाना क्षय 10 फीसदी तक है। इसके अलावा घने वन क्षेत्र कम घने वन क्षेत्र में तब्दील हो जाते हैं। बाद में कम घने क्षेत्र वाले हिस्सों का इस्तेमाल कृषि एवं आवासीय उद्देश्यों के लिए होने लगता है।

क्या कश्मीर के जंगल फिर से पनप रहे हैं?

फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार, जम्मू और कश्मीर के 2015 के वन क्षेत्र की तुलना में 253 वर्ग किलोमीटर का इजाफा हुआ है। लेकिन श्रीनगर के शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेस एंड टेक्नोलॉजी (एसकेयूएएसटी) में डिवीजन ऑफ नेचुरल रिसोर्स मैनेजमेंट, फैकल्टी ऑफ फॉरेस्ट्री के एक असिस्टेंट प्रोफेसर अखलाक वानी कहते हैं कि जो कुल 253 वर्ग किमी वन क्षेत्र में इजाफा हुआ है उसमें 245 वर्ग किमी वन क्षेत्र 1948 से पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आता है। भारत हमेशा से इस पूरे क्षेत्र पर अपना दावा बताता रहा है।

इसके अलावा, कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि एफएसआई की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार कई जिलों में वनों में बढ़ोतरी हुई है लेकिन ये बढ़ोतरी वनों की जगह हार्टिकल्चर में हुई है। इसमें बड़गाम में 61 वर्ग किमी, बारामूला में 34 वर्ग किमी और पुलवामा में 21 वर्ग किमी की बढ़ोतरी हुई है। वानी कहते हैं कि अगर हम पहले के वन क्षेत्र के हिसाब से इसका विश्लेषण करें तो पाएंगे कि पिछले दशकों में वनों का विनाश हुआ है (प्रकाशित रिसर्च के मुताबिक)। लेकिन इसी दौरान इन क्षेत्रों में हार्टिकल्चर के एरिया में काफी इजाफा हुआ है। वानी बताते हैं कि अगर किसी क्षेत्र में हॉर्टिकल्चर का एरिया एक हेक्टेयर से ज्यादा हो जाता है तो एफएसआई के नियमों के मुताबिक उसे वन क्षेत्र मान लिया जाता है। वह कहते हैं कि इन परिस्थितियों में ये पता कर पाना मुश्किल है कि धीरे-धीरे बढ़ने वाले शंकुधारी वनों का क्षेत्र कितना बढ़ा है। और अब तो इन वनों पर कुल्हाड़ी भी चल रही है।

Privacy Overview

This website uses cookies so that we can provide you with the best user experience possible. Cookie information is stored in your browser and performs functions such as recognising you when you return to our website and helping our team to understand which sections of the website you find most interesting and useful.

Strictly Necessary Cookies

Strictly Necessary Cookie should be enabled at all times so that we can save your preferences for cookie settings.

Analytics

This website uses Google Analytics to collect anonymous information such as the number of visitors to the site, and the most popular pages.

Keeping this cookie enabled helps us to improve our website.

Marketing

This website uses the following additional cookies:

(List the cookies that you are using on the website here.)