पीलीभीत टाइगर रिजर्व के डिप्टी डायरेक्टर नवीन खंडेलवाल का कहना है कि हमारे क्षेत्र में घास के विशाल मैदान हैं और मार्च व अप्रैल जैसे शुष्क महीनों में पूरे जंगल में आग फैल जाने का खतरा रहता है। वह ये भी कहते हैं कि टाइगर रिजर्व के चारों तरफ काफी खेत हैं और जब किसान फसलों के अवशेष जलाते हैं तो कई बार आग जंगलों में भी फैल जाती है। पीलीभीत टाइगर रिजर्व हिमालय की तलहटी में है। आग लगने के लिहाज से ये देश में सबसे ज्यादा संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है।
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की एक टेक्निकल स्टडी के मुताबिक आग लगने के लिहाज से बात करें तो उत्तर प्रदेश में तकरीबन 37.54 फीसदी वन क्षेत्र या तो बहुत उच्च या मध्यम स्तर के संवेदनशील हैं। इसी अध्ययन में ये भी बताया गया है कि उत्तराखंड का 32.75 फीसदी वन क्षेत्र आग लगने के लिहाज से अति संवेदनशील से मध्यम स्तर के संवेदनशील है। ये वन क्षेत्र भी तराई क्षेत्र में ही आते हैं। एक स्थानीय समस्या होने के अतिरिक्त तराई क्षेत्र में आग के प्रभावों का असर व्यापक है। हिमालय के ग्लेशियर्स पर इसका विशेषतौर पर असर पड़ रहा है।

एक इंटरगवर्नमेंटल रिसर्च सेंटर, इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) में सीनियर एरोसॉल साइंटिस्ट प्रवीण पप्पाला कहते हैं कि जगलों में लगने वाली आग के कारण अप्रैल से मई के दौरान हिमालयन रीजन में 30 से 40 फीसदी तक ब्लैक कार्बन जमा हो जाता है। ये संस्थान हिंदु कुश हिमालय क्षेत्र के देशों में महत्वपूर्ण मुद्दों पर काम करती है। जब ब्लैक कार्बन कण ग्लेशियर्स पर जम जाते हैं, तो वे सतह को काला कर देते हैं और प्रकाश व गर्मी के उच्च स्तर के अवशोषण को सक्षम बना देते हैं, अंततः बर्फ पिघलने लगती है। इस तरह के प्रत्यक्ष प्रभावों के अलावा, ब्लैक कार्बन कण जो वायुमंडल में लटके हुए रहते हैं, वे सूर्य के प्रकाश और अवरक्त विकिरण (इंफ्रारेड रेडिएशन) को अवशोषित करते हैं और हवा को गर्म करते हैं। ये भी ग्लेशियर्स के पिघलने में बड़ा कारण बनते हैं। ग्लेशियर्स के पिघलने में अन्य कारणों में परिवर्तित मानसून पैटर्न भी शामिल है।
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के एक वैज्ञानिक पी. एस. नेगी ने बताया कि अप्रैल-मई के बीच गर्मियों में फसलों के अवशेष जलते हैं और जंगलों में आग लगती रहती है, इसके अलावा अक्टूबर-नवंबर के बीच सर्दियों में फसलों के अवशेष जलते हैं, इनसे हिमालयी वातावरण में ब्लैक कार्बन की उच्च मात्रा जमा हो जाती है। अन्य कारकों के अलावा ब्लैक कार्बन के जमा होने से ग्लेशियर्स के पिघलने की स्थिति ज्यादा बढ़ जाती है। पप्पाला समझाते हैं कि जब मौजूदा समय की वनस्पतियों के जलने की वजह से इकट्ठा होने वाले ब्लैक कार्बन से किसी ग्लेशियर की ऊपरी सतह को पिघलती है तो नीचे की परत में पहले से जमा हुए ब्लैक कार्बन की वजह से ग्लेशियर्स की पिघलने की गति काफी बढ़ जाती है।
आग, ब्लैक कार्बन और ग्लेशियर्स के पिघलने के बीच संबंध
अगस्त, 2019 में प्रकाशित एक पेपर, जिसका शीर्षक, ब्लैक कार्बन एरोसॉल्स इन एंबियंट एयर ऑफ गंगोत्री ग्लेशियर वैली ऑफ नॉर्थ-वेस्टर्न हिमालय इन इंडिया, था, में बताया गया कि गंगोत्री ग्लेशियर के पास चिरबासा साइट पर ब्लैक कार्बन का जमाव मई के महीने में सबसे अधिक और अगस्त के दौरान सबसे कम रहा। नेगी, इस पेपर के लेखकों में से एक थे। पेपर में कहा गया है कि इस क्षेत्र में ब्लैक कार्बन जमा होने की स्थिति और इसकी मौसमी परिवर्तनशीलता, देश के आधे पश्चिमी हिस्से में फसल अवशेष जलने और हिमालयी ढलानों में गर्मियों में जंगल की आग से उत्पन्न उत्सर्जन से काफी प्रभावित रही है।
इस समय, पप्पाला और उनकी टीम नेपाल में याला ग्लेशियर पर ब्लैक कार्बन के प्रभाव का अध्ययन कर रही है। पप्पाला कहते हैं कि अध्यययन से पता चला है कि जंगलों में आग लगने और फसल अवेशषों के जलाये जाने के कारण 2016-17 के दौरान वार्षिक ब्लैक कार्बन का जमाव 23 फीसदी रहा। वह बताते हैं कि अप्रैल के महीने में वातावरण में काफी ज्यादा मात्रा में ब्लैक कार्बन का उत्सर्जन होता है। ये ग्लेशियर्स के पिघलने के लिए सबसे अनुकूल परिस्थितियां तैयार कर देता है। इसके अलावा बादलों का घिरना, जीरो डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान, विकिरण और वर्षण जैसे कारक इसको और ज्यादा बढ़ा देते हैं। ग्लेशियर्स पिघलने के मामले में ये कारक सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। 2015 से 2019 के बीच जंगलों में आग लगने और फसल अवशेषों को जलाये जाने की घटनाओं को जोड़कर विश्लेषण करने से पता चलता है कि अप्रैल और अक्टूबर के महीने सबसे अहम होते हैं।

आगे क्या होगा?
यह तथ्य आशा की एक किरण है कि ब्लैक कार्बन कम समय तक अस्तित्व में रहने वाला जलवायु प्रदूषक है जो वातावरण में कुछ हफ्ते तक ही रहता है। ये कार्बन डाई ऑक्साइड से बिलकुल अलग है जो कि वातावरण में सदियों तक मौजूद रहता है। मौजूदा समय में उत्सर्जन में कटौती का मतलब ये भी है कि वातावरण में पहले से मौजूद कार्बन डाई ऑक्साइड से जूझते हुए सदियां बीत जाएंगी। इसके विपरीत, जंगलों में आग लगने की घटनाओं को कम करने के उपायों से और किसानों को ऐसे विकल्प उपलब्ध कराने से, जिनसे वे फसलों के अवशेष जलाने से बचें, ब्लैक कार्बन उत्सर्जन को सीमित किया जा सकता है जिससे जो परिणाम प्राप्त होगा वह कुछ हफ्तों में स्पष्ट तौर पर नजर आने लगेगा।
ब्लैक कार्बन के छोटे से जीवन का मतलब ये भी है कि इसके फैलने की संभावना सीमित है। इसलिए, स्रोत पर उत्सर्जन को लक्ष्यित करके किये जाने वाले प्रयास लंबे समय तक किये जाने चाहिए जिससे वार्मिंग के प्रभाव को कम किया जा सके। अप्रैल और मई में लगने वाली आग को नियंत्रित करने के लिए अभी से तात्कालिक प्रयास शुरू करने की जरूरत है।
हिमालय की तलहटी में स्थित दुधवा टाइगर रिजर्व में तैनात एक रेंजर प्रदीप वर्मा कहते हैं कि हम लोग अप्रैल और मई, खासकर उस वक्त जब वर्षा कम होती है, में जंगलों में लगने वाली आग को लेकर चिंतित हैं। वह ये भी कहते हैं कि दुधवा टाइगर रिजर्व में वन कर्मचारी वर्तमान में आने वाले महीनों में जंगलों में फैलने वाली आग की संभावना को रोकने के लिए फायर लाइनों जैसी शमन तकनीकों पर काम कर रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे पर कम फोकस होने के कारण रेंजर्स और फॉरेस्ट ऑफिसर्स ही हिमालय के लिए खतरा बनी इस समस्या से लड़ने वाले अकेले योद्धा हैं।