दिसंबर 2023 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने पेड़ों की अवैध कटाई पर उत्तराखंड राज्य सरकार की लापरवाही की आलोचना की और कहा कि वो “गहरी नींद में” हैं। अपने इस कड़े आलोचनापूर्ण फैसले में, नैनीताल उच्च न्यायालय ने कहा कि यह हिमालयी राज्य 2006 के वन अधिकार अधिनियम को ठीक से लागू करने में नाकाम रहा है, जो स्थानीय जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया गया था।
वन अधिकार अधिनियम के तहत वनवासियों के अधिकारों को कायम रखने में उत्तराखंड अन्य राज्यों से पिछड़ रहा है। पिछले साल, आदिवासी मामलों के राज्य मंत्री, बिश्वेश्वर टुडू ने नवंबर 2022 तक निपटाए गए दावों की संख्या का खुलासा किया था। उत्तराखंड सरकार ने 97% से अधिक आवेदनों को खारिज कर दिया था, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 68% था। चूँकि उत्तराखंड का 71% से अधिक भाग वनों से घिरा हुआ है, इसलिए ये अस्वीकृतियाँ वनों में या उसके नजदीक रहने वाले लोगों के बड़े हिस्से को प्रभावित करती हैं।
अदालत ने वैध वनवासियों की पहचान और उनकी मदद करने के लिए वन अधिकारियों को कार्रवाई न करने की कमी को रेखांकित किया और इसके चलते प्रमुख वन सचिव जैसे उच्चाधिकारियों के ख़िलाफ़ अवमानना की कार्यवाही तक की गई। व्यवस्थागत प्रशासनिक लापरवाही और कदाचार पाने पर फ़ैसले में ज़ोर देकर कहा गया कि 2006 अधिनियम के तहत दिए गए अधिकारों का उद्देश्य “वन क्षेत्रों से लकड़ियों की व्यावसायिक लूट” की अनुमति देने के बजाय वन क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों के अधिकारों की रक्षा करना है।
राज्य के सबसे वरिष्ठ कानूनी प्रतिनिधि, उत्तराखंड के महाधिवक्ता, ने तर्क दिया था कि संभवत: इस कानून के तहत सिर्फ वनवासियों को ही नहीं बल्कि राज्य में रहने वाले किसी भी व्यक्ति को, बिना किसी कानूनी निगरानी के संरक्षित जंगलों से लकड़ी इकट्ठा करने की अनुमति मिल सकती है।
अदालत ने इस नज़रिये को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया और कहा कि यह मुद्दा उठा ही इसलिए है क्योंकि उत्तराखंड सरकार यह ठीक से पहचान करने में विफल रही कि अधिनियम के तहत कौन लाभार्थी हो सकता है। अदालत ने इस नाकामी को सुधारने के लिए राज्य सरकार को दो महीने का समय दिया और इस अवधि के दौरान वन संसाधनों के सभी प्रकार के उपयोग पर अस्थायी रूप से रोक लगा दी।
वन अधिकारों के लिए काम करने वाले पर्यावरण कार्यकर्ता तरुण जोशी वन अधिकार की पात्रता का आकलन करने के राज्य सरकार को दिए गए अदालत के आदेश का स्वागत करते हैं। जोशी कहते हैं, “अगर जंगलों पर लोगों के पारंपरिक अधिकारों को कानूनी मान्यता मिल जाती है, तो उन्हें रोकने या वन उपज लाने पर उत्पीड़न की लगातार घटनाएं बंद हो जाएंगी।” हालांकि, वह प्रतिबंध पर चिंता जताते हैं और अपनी ज़रूरी आवश्यकताओं के लिए पूरी तरह वनों पर निर्भर समुदायों पर इसके असर की बात करते हैं, “खाना पकाने से लेकर पशुपालन और खेती तक, ऐसी स्थिति में वे क्या करेंगे?” वह पूछते हैं।
वन पंचायत और एक सदी से चलती आ रही वन प्रबंधन
अदालत के फ़ैसले के दो महीने बाद, फरवरी 2024 में, स्थानीय वन पंचायत की अगुवाई में चौखुटा गांव के ग्रामीणों ने पेड़ों की आवश्यक छंटाई और गिरी हुई शाखाओं को हटाने जैसे कार्यों के लिए जंगल में प्रवेश किया। ये हर साल होने वाली एक परंपरा है। वन प्रबंधन में लंबे समय से चली आ रही औपचारिक भूमिका के बावजूद वन पंचायतों को अदालत के फैसले में नजरअंदाज कर दिया गया था।
मूल रूप से ब्रिटिश शासन के दौरान 1931 के वन पंचायत नियमों द्वारा मान्यता प्राप्त, उत्तराखंड की वन पंचायतों को 1976 में भारत वन अधिनियम के तहत लाया गया था। वन पंचायत के नियमों के अनुसार, उनके सदस्यों को आवश्यकतानुसार जलाऊ लकड़ी और सूखी पत्तियाँ इकट्ठा करने की अनुमति है।
नैनीताल की धारी तहसील स्थित चौखुटा वन पंचायत 133 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले जंगल का प्रबंधन करती है। कुन्दन सिंह बिष्ट, जिनकी पत्नी चंपा देवी स्थानीय वन पंचायत की सरपंच हैं, ने डायलॉग अर्थ को बताया कि, “ग्रामीण सामूहिक रूप से चालखाल बनाने, आग बुझाने और कचरे को हटाकर जंगल का रखरखाव करते हैं। सुरक्षा के लिए एक गार्ड तैनात है। प्रत्येक परिवार जंगल के रखरखाव और गार्ड के वेतन के लिए सालाना 180 रुपये देता है।”
लकड़ी इकट्ठा कर रही बुजुर्ग महिला संतोषी देवी कहती हैं, “जंगल है तो हम हैं, जंगल नहीं तो हम भी नहीं। जंगल से ठंडी हवा मिलती है। यह हमें आश्रय देता है। बांज-खर्सू के पेड़ हमारी जीवन रेखा- पानी की रक्षा करते हैं। जंगल बचेगा तो हमारे बच्चों का भविष्य भी बचेगा। इसलिए हम महिलाएं जंगल से जुड़ा सारा काम करती हैं”। उन्होंने कहा कि हरी लकड़ी काटने या प्रतिबंधित गतिविधियों में शामिल होने वाले किसी भी व्यक्ति पर 500 रुपये तक का जुर्माना लगाया जाता है।
कई ग्रामीणों के लिए, वनों का प्रबंधन और उनके साथ रहना पीढ़ियों से चली आ रही एक परंपरा है। 90 साल से अधिक उम्र की भवानी देवी को बचपन से ही जंगल से लकड़ी, चारा और पत्तियां इकट्ठा करना याद है। आज भी उनकी बहू इस काम को जारी रखे हुए है।
वन पंचायत मॉडल की सफलता
वन पंचायतें और उनकी सफलता का एक उदाहरण भालूगाड़ झरने का पुनरुद्धार है, जिसका प्रबंधन गजार, बुरांशी और चौखुटा की तीन वन पंचायतें मिलकर करती हैं। भालूगाड़ जलप्रपात समिति के प्रमुख राजेंद्र सिंह बिष्ट बताते हैं कि 2015 से पहले इस क्षेत्र में अनियंत्रित भीड़ आती थी और इससे समस्या पैदा होती थी। वह बताते हैं, “चारों तरफ़ कचरा फैला रहता था और अक्सर पर्यटक ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर गिरकर चोटिल हो जाते थे। 2015 में, स्थिति को संभालने के लिए तीन पंचायतें एक साथ आईं। वन विभाग के परमिट और पर्यटकों से सहयोग राशि लेकर, हमने क्षेत्र में सुधार किया। ज़िला पर्यटन विकास समिति (डीटीडीसी) ने भी हमारी मदद की।”
बिष्ट कहते हैं, “पर्यटकों की संख्या अब सालाना 10-12 लाख (1-1.2 मिलियन) तक पहुंच जाती है। पिछले साल की आय 60 लाख रुपये (72,000 अमेरिकी डॉलर) तक पहुंच गई। इस आमदनी का 40% डीटीडीसी को, 15% तीनों वन पंचायतों को पेड़ लगाने, जल संरक्षण से जुड़े कार्य और युवाओं के लिए रोज़गार पैदा करने जैसी स्थानीय परियोजनाओं के लिए दिया गया। बाकी 45% समिति के काम के लिए है। इसमें रखरखाव की लागत और सुरक्षा कर्मियों का वेतन जैसे खर्चों का भुगतान शामिल है।
सफलता की ऐसी कहानियों के बावजूद, अनूप मलिक, वह अप्रैल के अंत में प्रधान मुख्य वन संरक्षक के पद से सेवानिवृत्त हो गए, डायलॉग अर्थ से मार्च में हुई बातचीत में कहा था, “ग्रामीण वन अधिकार अधिनियम की परिभाषा को पूरा नहीं करते हैं, जिससे दावे खारिज हो जाते हैं। हालांकि, वन अधिकार तय करना समाज कल्याण विभाग का काम है (हमारा नहीं)। हमने यही बात नैनीताल उच्च न्यायालय को (दिसंबर के फ़ैसले के जवाब में) लिखी है।”
वन पंचायतें वन अधिकारों को मान्यता देने से स्थानीय समुदाय उल्लेखनीय रूप से सशक्त होंगे और अपनी आर्थिक, पर्यावरणीय ज़रूरतों को पूरा करते हुए सतत रूप से अपने जंगलों का प्रबंधन और सुरक्षा कर सकेंगे। राज्य की 12,089 वन पंचायतें 7,351 वर्ग किलोमीटर जंगल, यानी राज्य के 19% से अधिक वनों का प्रबंधन करती हैं। जोशी का अनुमान है कि उत्तराखंड की 70% से अधिक आबादी कृषि के लिए पूरी तरह से जंगलों पर निर्भर है, इसलिए मलिक के विपरीत, वह मानते हैं कि वे वन अधिकार अधिनियम के तहत सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) के अधिकारी हैं।
जंगल से आजीविका हासिल करने की कोशिश में, चौखुटा गांव के पास दाड़िमा वन पंचायत ने सीएफ़आर दावा दायर किया है। ग्राम समिति से अनुमति मिलने के बाद अब उनका दावा ब्लॉक-स्तरीय समिति के पास विचाराधीन है। सरपंच पुष्पा देवी के पति, जगदीश चंद्र कहते हैं, “पीढ़ियों से हम इस भूमि की देखरेख करते आ रहे हैं। सीएफ़आर मिलने से अपनी इस ज़िम्मेदारी के साथ, वन उपज का संग्रह कर, अपने लिए आजीविका का ज़रिया हासिल कर सकते हैं।”
उच्च न्यायालय के आदेश से उम्मीद जगी थी कि इससे वन अधिकारों की मान्यता मिलने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है, लेकिन चार महीने से अधिक समय बीतने के बाद भी इस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है। इस मुद्दे पर उच्च न्यायालय द्वारा एमिकस क्यूरी (एक लैटिन शब्द जिसका अर्थ है ‘अदालत का मित्र’) के रूप में नियुक्त अरविंद वशिष्ठ ने डायलॉग अर्थ को बताया कि उत्तराखंड सरकार ने इस मुद्दे पर काम करने के लिए अतिरिक्त समय मांगा है। इस बीच, जनजातीय कल्याण विभाग के अतिरिक्त निदेशक योगेन्द्र रावत ने कहा कि राज्य के मुख्य सचिव ने इस मामले पर चर्चा के लिए वन, समाज कल्याण, पंचायती राज सहित अन्य संबंधित विभागों के साथ एक बैठक बुलाई है, हालांकि अभी तारीख तय नहीं हुई है।