जंगल

कमेंट्री: हाथी के मौसम में इंसानों और हाथियों के टकराव से निपटने के लिए किस तरह से तैयार है असम

उत्तर-पूर्वी भारत में फसलों के पकने का मौसम आते ही, हाथियों के झुंड खेतों के करीब चले जाते हैं। जाहिर है इस वजह से किसानों के साथ उनका संघर्ष होता है। इंसानों और हाथियों के बीच सह-अस्तित्व बेहतर तरीके से हो सके, इसके लिए कई स्थानों पर विध्वंस-रोधी दस्तों (एडीएस) का गठन किया गया है। इनका उद्देश्य ऐसे संघर्षों को कम करना है।
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<p><span style="font-weight: 400;">असम के रंगपाड़ा स्थित एक चाय बागान में अकेला घूमने वाला एक बुल एलीफैंट। स्थानीय लोगों ने इसको लचित नाम दिया है। वहां के लोगों ने लचित की उपस्थिति को स्वीकार कर लिया है। यह सुखद स्थिति इस बात का संकेत देती है कि मानव-हाथी संघर्ष वाले क्षेत्रों में भी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व संभव है। </span><span style="font-weight: 400;">(फोटो: डेविड स्मिथ / डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया)</span></p>

असम के रंगपाड़ा स्थित एक चाय बागान में अकेला घूमने वाला एक बुल एलीफैंट। स्थानीय लोगों ने इसको लचित नाम दिया है। वहां के लोगों ने लचित की उपस्थिति को स्वीकार कर लिया है। यह सुखद स्थिति इस बात का संकेत देती है कि मानव-हाथी संघर्ष वाले क्षेत्रों में भी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व संभव है। (फोटो: डेविड स्मिथ / डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया)

असम के मध्य-उत्तरी जिले सोनितपुर की एक युवा हथिनी तारा अपना ज्यादातर समय सोनाई रूपाई वन्यजीव अभयारण्य के जंगलों में बिताती है। हिमालय की तलहटी में बसा यह प्राचीन हाथी आवास, हमेशा हरा-भरा रहता है। यह नदी के किनारे वाला घास के मैदानों से भरा इलाका है। यहां के वन पतझड़ वाले हैं। 

साल के ज्यादातर वक्त में, तारा का झुंड इस तरह के घने वातावरण में लगभग अदृश्य ही रहता है। 

भरपूर भोजन और पानी रहता है। ये झुंड 30-40 वर्ग किलोमीटर के एक छोटे से दायरे में घूमते हैं। इनको हर दिन कुछ किलोमीटर से ज्यादा चलने की जरूरत नहीं होती।

A group of elephants strides through a lush field
असम के रंगपाड़ा स्थित एक चाय बागान में अकेला घूमने वाला एक बुल एलीफैंट। स्थानीय लोगों ने इसको लचित नाम दिया है। वहां के लोगों ने लचित की उपस्थिति को स्वीकार कर लिया है। यह सुखद स्थिति इस बात का संकेत देती है कि मानव-हाथी संघर्ष वाले क्षेत्रों में भी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व संभव है। 
(फोटो: डेविड स्मिथ / डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया)

अक्टूबर आते ही हालांकि तारा की आवाजाही के पैटर्न बदल जाते हैं। प्रवास को लेकर ऐतिहासिक पैटर्न पर चलते हुए, उसका झुंड जंगल छोड़ देता है। ये झुंड जिले के कई चाय बागानों में जाता है। ये जिया गभारू नदी के रास्ते पर चलते हैं, जहां वे अन्य हाथी परिवारों से जुड़ जाते हैं। यहां से, वे ब्रह्मपुत्र नदी की ओर यात्रा करते हैं। और अपने निवास क्षेत्र को दस गुना बढ़ाकर खेतों और चाय बागानों तक ले जाते हैं। जैसे-जैसे उनकी दैनिक गतिविधियां दोगुनी होती जाती हैं, मनुष्यों के साथ उनका संपर्क भी बढ़ता जाता है।

सोनितपुर जिले के चारिदुआर गांव के एक किसान, मोतीराम बोरो इन मुठभेड़ों से अनजान नहीं हैं। हाथियों ने एक बार उनके धान के खेतों को तबाह कर दिया था। इससे बतौर किसान वह बर्बाद हो गये। बोरो ने सौर ऊर्जा से चलने वाली बिजली की बाड़ लगाकर इस समस्या का समाधान खोजा। यह एक किफायती तरीका है। इससे 2018 में उनके फसलों की रक्षा हो पाई। 

इंसानों और हाथियों का संपर्क कम से कम रहे, इसको लेकर पास ही में, वन कर्मचारी एक अनौपचारिक समारोह आयोजित करते हैं। यह अवधि, जिसे स्थानीय रूप से हाथी के मौसम के रूप में जाना जाता है, धान के खेतों में चावल पकने के साथ मेल खाती है।

Forest cover loss over the last 40 years in Assam’s Sonitpur district. The expansion of settlements and cultivation in the area has encroached on traditional elephant habitat, leading to increased conflict with humans (Satellite images: Landsat / Copernicus via Google Earth; Map: Dialogue Earth)

ऐतिहासिक रूप से, असम में हाथी जिया गभारू जैसी नदी के गलियारों के साथ-साथ जंगलों के बीच घूमते थे। अक्टूबर से दिसंबर तक फसलों को चरते थे। हालांकि, पिछले 40 वर्षों के दौरान, सोनितपुर और उदलगुरी जिलों में वन क्षेत्र, अतिक्रमण और वनों की कटाई के कारण कम हो गया है। इससे हाथियों के आवास में काफी कमी आई है। जाहिर है इससे उनका मनुष्यों के साथ टकराव बढ़ रहा है। 

विध्वंस-रोधी दस्ते

प्रतिक्रिया में, स्थानीय समुदायों और वन अधिकारियों ने मानव-हाथी संपर्कों का प्रबंधन करने के लिए विध्वंस-रोधी दस्ते (एडीएस) का गठन किया है। ये दस्ते ग्रामीणों के साथ अनौपचारिक, स्वैच्छिक, लेकिन अच्छी तरह से जुड़े समूहों के रूप में काम करते हैं। ये साल भर हाथियों की गतिविधियों पर नजर रखते हैं।

A fence stands in a grassy field
यह सौर ऊर्जा से चलने वाली बिजली की बाड़ है। इसे खेतों के किनारों पर लगा दिया जाता है। हाथियों को फसलों से दूर रखने का यह एक किफायती उपाय है। (फोटो: डेविड स्मिथ / डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया)
A person stands in darkness,holding a flashlight
चाय के एक बागान में एक हाथी पर नजर रखने के लिए विध्वंस-रोधी दस्ते का सदस्य एक शक्तिशाली टॉर्च का उपयोग कर रहा है। (फोटो: डेविड स्मिथ/डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया)

सोनितपुर जिले के रंगपाड़ा कस्बे के नेता अजीत भेंगरा अपने स्थानीय एडीएस के प्रमुख सदस्य हैं। उन्हें याद है कि कैसे हाथी, फसलों और संपत्ति को नष्ट कर देते थे। लेकिन उनके स्थानीय दस्ते, बहुत तेजी से सूचना पहुंचाने, व्हाट्सएप अलर्ट और समन्वित अभियान जैसे सक्रिय उपायों के माध्यम से, इंसानों को लगने वाली चोटों और मौतों में काफी कमी आई है। 

हाथियों को भगाने के अलावा, ये दस्ते लोगों को फसल या संपत्ति के नुकसान होने पर मुआवजे के लिए आवेदन करने में मदद करते हैं। साथ ही, अगर हाथी किसी बस्ती में घुस जाते हैं तो लोगों को सुरक्षित जगह पर भी पहुंचाते हैं।

एडीएस के बेहतरीन प्रयासों और सौर ऊर्जा से चलने वाली बाड़ लगाने जैसे निवारक उपायों के बावजूद, इन टकरावों को पूरी तरह से टाला नहीं जा सकता है। हाथी एक या दूसरे क्षेत्र में भोजन की तलाश करते रहेंगे। 

लक्ष्य यह है कि महत्वपूर्ण मार्गों को खुला रखकर संघर्ष को कम किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि हाथी सुरक्षित रूप से अपने आवासों के बीच आ-जा सकें। 

उदाहरण के लिए, अजीत भेंगरा, हाथियों के लिए एक स्थानीय क्रॉसिंग पॉइंट बनाए रखने के लिए जमीन मालिकों के साथ काम कर रहे हैं, ताकि मार्ग को अवरोधों से मुक्त रखा जा सके।

a satellite image showing a vast field
सेंगेलीमारी रिजर्व फॉरेस्ट से रंगापाड़ा के चाय बागानों तक जाने के लिए हाथियों का झुंड इन रास्तों को उपयोग कई वर्षों से करता आ रहा है। (फोटो: मैक्सार टेक्नोलॉजीज, गूगल अर्थ के माध्यम से)
A group of men stands in a field, examining a map
सेंगेलीमारी रिजर्व फॉरेस्ट और डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया के कर्मचारी स्थानीय विध्वंस-रोधी दस्ते के सदस्यों के साथ हाथियों के मार्ग का निरीक्षण करने के लिए इकट्ठा हुए हैं। (फोटो: डेविड स्मिथ / डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया)

सह-अस्तित्व की संभावनाएं

2014 से 2022 के बीच, हर साल औसतन 23 हाथियों की अप्राकृतिक कारणों से मौत हुई। वहीं, हर साल 70 लोग हाथियों के साथ मुठभेड़ में मारे गए।

फिर भी, उम्मीद की कहानियां हैं। चाय के बागानों और खेतों से घिरे रंगापाड़ा कस्बे में, अकेले घूमने वाले बुल एलिफैंट (वयस्क नर हाथी) आसानी से देखने को मिल जाते हैं। 

भेंगरा ने हमें ऐसे ही एक हाथी लचित (प्रसिद्ध असमिया योद्धा, लाचित बोरफुकन के नाम पर) से मिलवाया। यह स्थानीय स्तर पर एक खास व्यक्ति बन गया है। 

अब यह 40 के दशक में है। लचित कभी एक आक्रामक हाथी था। हालांकि, समय के साथ, समुदाय ने उसके साथ अपनेपन की भावना विकसित की है। जब वह दिन के समय गांवों में घूमता है, तो लोग उसकी उपस्थिति को पहचानते हैं और स्वीकार करते हैं। उसकी कहानी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की संभावना का प्रमाण है। यह प्रमाण उन स्थानों के लिहाज से अहम है जहां मानव और हाथी अक्सर संघर्ष होते हैं।

पारिस्थितिकी के लिहाज से भी लचित की उपस्थिति महत्वपूर्ण हो जाती है। उसके जैसे अकेले घूमने वाले वयस्क नर हाथी, जब मादा के साथ संबंध स्थापित करते हैं तो इससे जीन ट्रांसफर की प्रक्रिया होती है। यह तेजी से अलग-थलग होती हाथी आबादी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इसकी वजह से प्रजातियों के दीर्घकालिक अस्तित्व के लिए आवश्यक आनुवंशिक विविधता को बनाए रखने में मदद मिलती है।

 Elephants sheltering from the hot sun in a tea garden
रंगापाड़ा में चाय के बागान में तेज धूप से बचने के लिए हाथियों का एक झुंड (फोटो: डेविड स्मिथ / डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया)

हाथी का मौसम एक बार फिर आ गया है। इंसानों और हाथियों के बीच तनाव बढ़ना तय है। तारा और लचित जैसे हाथियों के लिए, साल का यह समय बहुत कुछ लेकर आता है। लेकिन अमरबाड़ी वन रेंज कार्यालय में, हाथियों से संबंधित संपत्ति के नुकसान और चोट के दावों के ढेर लग जाते हैं। इसी रेंज के अधिकार क्षेत्र में रंगापाड़ा में वन्यजीवों का प्रबंधन आता है। यह सब आगे की चुनौतियों के बारे में बताती हैं। 

असम के लोगों के लिए, हाथी का मौसम, सतर्कता और समायोजन का समय होता है। यह एक ऐसा समय होता है जब वे न केवल अपनी आजीविका की रक्षा करते हैं, बल्कि इन बेहतरीन जीवों को अपने दैनिक जीवन में शामिल करने के तरीके भी खोजते हैं।