जलवायु

भारत और बांग्लादेश में बाढ़ से सुरक्षा में मदद कर सकते हैं ये 4 इनोवेशंज़

जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाली बाढ़ का सामना करने के लिए नई तकनीकों और प्रकृति पर आधारित इनोवेशंज़ को विकसित किया जा रहा है।
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<p>जून 2022 में बांग्लादेश के सिलहट जिले में आई बाढ़। भारी वर्षा के बाद शहरी इलाकों में ऐसी बाढ़ आना आम बात है, क्योंकि पारंपरिक नाले बहुत जल्दी गाद से भरकर अवरुद्ध हो जाते हैं। इससे निपटने के लिए इंजीनियर्स ड्रेनेज सिस्टम में नई सामग्री का इस्तेमाल कर रहे हैं। (फोटो: सुवरा कांति दास/अलामी)</p>

जून 2022 में बांग्लादेश के सिलहट जिले में आई बाढ़। भारी वर्षा के बाद शहरी इलाकों में ऐसी बाढ़ आना आम बात है, क्योंकि पारंपरिक नाले बहुत जल्दी गाद से भरकर अवरुद्ध हो जाते हैं। इससे निपटने के लिए इंजीनियर्स ड्रेनेज सिस्टम में नई सामग्री का इस्तेमाल कर रहे हैं। (फोटो: सुवरा कांति दास/अलामी)

मई और जून के महीने में, थोड़े समय के लिए, असम और बांग्लादेश में भारी बारिश हुई। भूस्खलन के साथ-साथ, गंगा-ब्रह्मपुत्र बेसिन में कई नदियों ने अपने किनारों को तोड़ दिया। जिस तेजी से बाढ़ के पानी ने कस्बों और गांवों को जलमग्न किया, उससे स्थानीय निवासी और अधिकारी भी आश्चर्य में रह गए

वैज्ञानिकों का कहना है कि जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव बढ़ेंगे, यह समस्या भी उतनी ही तेज़ी से बढ़ेगी। बाढ़ के 35 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद, 2018 के एक शोध पत्र ने निष्कर्ष निकाला कि भविष्य में गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना डेल्टा में नदियां खतरनाक स्तर से ऊपर उठेंगी क्योंकि उच्च वैश्विक तापमान के कारण बारिश अधिक अप्रत्याशित हो सकती है।

बांग्लादेश यूनिवर्सिटी ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी में जल एवं बाढ़ प्रबंधन संस्थान के प्रोफेसर और इस अध्ययन के लेखक एकेएम सैफुल इस्लाम ने द् थर्ड पोल को बताया कि अगर 2100 तक दुनिया का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस अधिक हो जाता है, तो ब्रह्मपुत्र और मेघना घाटियों में क्रमशः 24 फीसदी और 38 फीसदी तक बाढ़ के बढ़ने का अनुमान है। मौजूदा समय के हिसाब से देखें तो दुनिया, सदी के अंत तक 2.7 डिग्री सेल्सियस तक गर्म होने की ओर अग्रसर है।

यह देखते हुए कि समस्या केवल बढ़ेगी, वैज्ञानिक, इंजीनियर और शहरी योजनाकार नई तकनीकों का विकास कर रहे हैं जो देशों को इस आपदा के अनुकूल बनाने में मदद कर सकती हैं। इस लेख में बाढ़ संबंधी कुछ समाधानों का ज़िक्र है।

1. ऐसे ड्रेनेज सिस्टम जिसमें गाद ना अटके

भारी बारिश के दौरान शहरी बाढ़ को कम करने के लिए, निर्माण वाले क्षेत्रों से पानी को बाहर निकालना सबसे महत्वपूर्ण होता है। बरसात के दिनों में फुटपाथ के किनारे खुले नाले, अक्सर गाद से भर जाते हैं, जिससे सड़कों पर पानी फैल जाता है। पारंपरिक नालों में रिटेनिंग वॉल (सुरक्षा की दीवार) के पीछे बजरी और रेत की एक परत होती है, जो सतही जल प्रवाह से गाद को फिल्टर करती है। हालांकि, अभी भी स्थिति यह है कि महीन कण इस परत से गुजर सकते हैं और जल निकासी की समस्या पैदा हो सकती है। 

A man walks next to a tall ditch covered in material
गाद को नालों में प्रवेश करने से रोकने के लिए मैकाफेरी के मैकड्रेन उत्पाद का उपयोग रिटेनिंग वॉल्स पर किया जाता है (फोटो © मैकाफेरी)

बजरी और रेत का एक विकल्प ‘ड्रेनेज जियोकंपोजिट्स‘ है। बहुराष्ट्रीय इंजीनियरिंग कंपनी मैकाफेरी ने प्लास्टिक ड्रेनेज कोर के चारों ओर प्लास्टिक की महीन चादरों से बना एक ड्रेनेज जियोकंपोजिट विकसित किया है। इसे नाले की रिटेनिंग वॉल पर लगाया जाता है।

मैकाफेरी इंडिया के तकनीकी प्रबंधक रत्नाकर महाजन बताते हैं कि मैकड्रेन जियोकंपोजिट्स के होने से पानी का प्रवाह हो सकता है लेकिन यह इतना बारीक है कि इससे गाद का रिसाव नहीं हो सकता है। इससे नालों को साफ रखने और मिट्टी को स्थिर रखने में मदद मिल सकती है। 

वह यह भी कहते हैं कि इसके लिए कम जगह में भी काम हो जाएगा। पारंपरिक नालों में आपको 2 से 3 फुट चौड़ी बजरी की जरूरत होती है जिसे रिटेनिंग वॉल के पीछे फिल्टर्स के रूप में स्थापित किया जा सके। मैकड्रेन जैसे जियोकंपोजिट्स के साथ, फिल्टर का आकार एक मिलीमीटर का सिर्फ एक सौवां हिस्सा है। महाजन का कहना है कि फिल्टर्स के लिए अगर हम बजरी और मैकड्रेन जियोकंपोजिट्स की तुलना करें तो पाएंगे कि बजरी या रेत के खनन, खुदाई, परिवहन इत्यादि की लागत के लिहाज से मैकड्रेन जियोकंपोजिट्स को स्थापित करना 30-50 फीसदी सस्ता है और ये पर्यावरण के लिए अच्छे हैं। वह यह भी बताते हैं कि इसके पूरे जीवन चक्र के ऊपर प्रभाव का आकलन करके इस प्रौद्योगिकी को एक एनवायरनमेंटल प्रोडक्ट डेक्लरेशन दिया गया है और निर्माण व इंजीनियरिंग एसोसिएशंस से भी कई अन्य प्रमाणपत्र प्राप्त हैं। 

अमेरिका में स्थित लॉक हेवन यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ जियोलॉजी एंड फिजिक्स एंड जियोलॉजिकल साइंसेज़ के प्रोफेसर खालेकुज्जमान कहते हैं कि बांग्लादेश के प्रमुख उत्तर-पूर्वी शहरों जैसे सिलहट में सीवरेज सिस्टम गाद के अलावा कई अन्य कारणों से जाम हैं: प्लास्टिक और अन्य ठोस वेस्ट, नालों और जलमार्ग को जाम किए हुए हैं। उनका यह भी कहना है कि बाढ़ के प्रबंधन के लिए गाद निकालने के अलावा भी कुछ करने की जरूरत होती है। ऐसे जियोकंपोजिट्स केवल गाद को रोकने के ही काम आ सकते हैं। 

इसके अलावा, यह भी सवाल उठता है कि इस टेक्नॉलजी की वजह से पर्यावरण में शायद माइक्रोप्लास्टिक्स भी रिलीज होता हो क्योंकि ये कपड़े और ड्रेनेज कोर प्लास्टिक से बने हैं। इस पर मैकाफेरी के महाजन का कहना है कि इन जियोटेक्सटाइल शीट्स से माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण होने की आशंका बहुत कम है। एक बार मिट्टी में समा जाने के बाद, पर्यावरण में उनका एक्सपोजर प्रतिबंधित हो जाता है क्योंकि जब तक वे सूर्य के प्रकाश के संपर्क में नहीं आते हैं, डिग्रेड नहीं होते। मैकाफेरी की तरफ से इस टेक्नॉलजी के 100 वर्षों तक चलने का दावा किया गया है। 

आईआईटी गुवाहाटी में सिविल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर अरूप कुमार सरमा ने कहा: “आम तौर पर, अच्छी गुणवत्ता वाले जियोसिंथेटिक्स बायोडिग्रेडेशन की न्यूनतम संभावनाओं के साथ [सबसे क्षयकारी सामग्री] प्रतिरोधी होते हैं।” हालांकि, उन्होंने यह भी कहा, “किसी भी संभावित माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण से बचने के लिए जरूरत वाली क्षमता के आधार पर नारियल या जूट मैट्रेसेस जैसी प्राकृतिक सामग्री का उपयोग पसंद किया जाता है।”

महाजन ने कहा कि अब तक भारत सरकार इस टेक्नॉलजी की मुख्य खरीदार रही है। इसका उपयोग दिल्ली से जयपुर को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग 8 की रिटेनिंग वॉल और हरियाणा सरकार द्वारा नहर की लाइनिंग में किया गया है। हाफलोंग में भारतीय रेलवे से इसके उपयोग के लिए बातचीत चल रही है। उन्होंने कहा कि वर्तमान में कंपनी के पास बड़े पैमाने पर इंस्टॉलेशंस के लिए अभी आवश्यक जनशक्ति की कमी है।

2. घास की मदद से ढलानों को स्थिर रखना

असम के पहाड़ी क्षेत्रों में बारिश की वजह से आने वाली सालाना बाढ़ भूस्खलन को बढ़ाती है। हाइड्रोसीडिंग एक ऐसी तकनीक है जिसका उपयोग ऐसी आपदाओं को कम करने के लिए किया जा सकता है। इसमें जमीन पर बीज, गीली घास, उर्वरक और कुछ अन्य जरूरी चीजों के घोल का छिड़काव किया जाता है। वहां जल्दी से इन बीजों का अंकुरण हो जाता है। इन पौधों की जड़ें भूस्खलन के जोखिम को कम करती हैं क्योंकि उनकी जड़ें ऊपरी मिट्टी को इकट्ठा जोड़े रखती हैं।

इसी तरह, मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए वेटिवर घास तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है। पहली बार 1980 के दशक में भारत में विश्व बैंक के लिए बायो इंजीनियर्स द्वारा इन्हें विकसित किया गया था, जब उन्हें पता चला कि वेटिवर घास, जड़ों की एक क्षैतिज चटाई बनाती हैं जो जमीन के स्तर से 2-4 मीटर नीचे उग सकती हैं। ये मिट्टी को एक साथ बांध सकती हैं। ये मिट्टी के कटाव को 90 फीसदी तक और वर्षा जल अपवाह को 70 फीसदी तक कम कर सकती हैं।

A bank of soil and long grass
सब्जी के खेत में मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए लगाई गई वेटिवर घास। इस प्रकृति-आधारित समाधान का उपयोग असम में मिट्टी को स्थिर करने और भूस्खलन को रोकने के लिए किया जा रहा है। (फोटो: विलवन खासावोंग / अलामी)

बाढ़-निवारण उत्पादों के अपने पोर्टफोलियो के हिस्से के रूप में हाइड्रोसीडिंग की पेशकश करने वाले मैकाफेरी, इंडिया के महाजन का कहना है, “वेटिवर घास तकनीक एक छोटे से क्षेत्र के लिए काम करती है क्योंकि इसमें मैनुअल काम शामिल है, और बड़े क्षेत्रों के लिए हाइड्रोसीडिंग अच्छी तरह काम करता है क्योंकि गीले मिश्रण को पंपिंग मशीनों का उपयोग करके एक क्षेत्र में छिड़का जा सकता है जो पूरे पहाड़ी ढलान को कवर कर सकता है।” 

पौधों की एक नई प्रजातियों का आना, पर्यावरण के लिए जोखिम भी साथ ही लाता है, खासकर अगर इसमें हमलावर नस्ल बनने की क्षमता हो। अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड एनवायरनमेंट (एटीआरईई) के एक कंजर्वेशन साइंटिस्ट राजकमल गोस्वामी ने कहा कि वेटिवर, घास, हमलावर नस्ल की नहीं है क्योंकि यह जगह या संसाधनों के लिए देशी पौधों को मात नहीं देती है। उन्होंने इस पर सहमति व्यक्त की कि वेटिवर घास नदी के किनारे के क्षरण को नियंत्रित कर सकती है और इससे ढलानों को स्थिर करने में मदद मिल सकती है।

3. नदी तट कटाव के ख़िलाफ़ रेज़िस्टन्स बढ़ाना

गुवाहाटी में एक कंजर्वेशन एनजीओ अरण्यक के द् वाटर, क्लाइमेट एंड हेजार्ड्स डिवीजन के प्रमुख पार्था ज्योति दास कहते हैं, “मौजूदा जर्जर तटबंधों को जियोटेक्सटाइल्स या जियोबैग्स का उपयोग करके मजबूत किया जा सकता है, जो महंगे हैं, लेकिन बाढ़ प्रबंधन उपायों के साथ समस्या यह है कि वे बड़े पैमाने पर तटबंध आधारित हैं।” परंपरागत रूप से, नदी के अतिप्रवाह को रोकने और कटाव को नियंत्रित करने के उपायों में तटबंधों जैसे कठोर बुनियादी ढांचे के आसपास चट्टानें, रेत के थैले या कंक्रीट से बनी दीवारों को रखना शामिल है।

जियोटेक्सटाइल्स क्या हैं?

पारगम्य कपड़े, जो पानी से मिट्टी जैसी सामग्री को फिल्टर कर सकते हैं। जियोबैग्स रेत से भरे जियोटेक्सटाइल्स बैग होते हैं, जिनका उपयोग तटीय और अंतर्देशीय जलमार्गों की सुरक्षा के लिए किया जाता है।

इसके बजाय, दास की सिफारिश है कि गैर-संरचनात्मक उपायों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए जो ढलानों को स्थिर करते हैं और जलग्रहण क्षेत्रों को अधिकतम करते हैं।

एक्स्प्लेंड: संरचनात्मक और गैर-संरचनात्मक बाढ़-शमन उपाय

संरचनात्मक बाढ़ शमन किसी आपदा से बचने या कम करने के लिए किसी भी कठिन-इंजीनियरिंग संरचना को संदर्भित करता है, जैसे बांध और तटबंध।

गैर-संरचनात्मक बाढ़ शमन मानव व्यवहार या प्राकृतिक प्रक्रियाओं को संशोधित करके आपदा जोखिम को कम करता है।

नदी तट के कटाव को रोकने के लिए मैकाफेरी इंडिया के महाजन ने ‘जियोमैट्स’ को हाइड्रोसीडिंग के साथ मिलाने का सुझाव दिया। मैकाफेरी का मैकमैट उत्पाद, जो प्लास्टिक से भी बना है, नए बोए गए पौधों के ऊपर रख दिया जाता है। ये बढ़ते हैं और सिंथेटिक चटाई के साथ 2 सेंटीमीटर मोटी जाली बनाते हैं। महाजन कहते हैं कि यह भू-भाग के कटाव के प्रतिरोध को बढ़ाता है क्योंकि यह पानी को धीमा कर देता है। यह नदी के किनारे कटकर बह जाने वाली मिट्टी की मात्रा को कम कर देता है। 

Workers line a steep slope with green material
मैकाफेरी का मैकमैट, एक नदी के किनारे को मजबूत करने के लिए हाइड्रोसीडिंग के शीर्ष पर स्थापित किया गया है ताकि यह तेजी से बहने वाली धाराओं का सामना कर सके। (फोटो © मैकाफेरी) 

मैकाफेरी के अनुसार, ड्रेनेज जियोकंपोजिट्स की तरह, जियोमैट्स, जियोटेक्सटाइल्स और जियोबैग्स सभी प्लास्टिक से बने होते हैं। क्योंकि वे मिट्टी से पानी को फिल्टर करते हैं, वे जमीन को नष्ट किए बिना और घरों और तटबंधों को नुकसान पहुंचाए बिना पानी को स्थानांतरित करने की अनुमति देते हैं। महाजन कहते हैं, “कोई भी खड़ी संरचना मिट्टी के साथ पानी के दबाव में आती है, इसलिए पानी को हटाना महत्वपूर्ण है।”

4. ज़ीरो-वेस्ट साफ़ पीने का पानी

बाढ़ का पानी जानवरों के अपशिष्ट, सीवेज और अन्य प्रदूषकों को काफी उफान दे देता है। इससे पानी पीने के प्रयोग में लाए जाने वाले कुएं और अन्य जल स्रोत दूषित हो जाते हैं। नतीजतन, डायरिया, टाइफाइड और हैजा जैसी जल जनित बीमारियां होने लगती हैं। ऐसे में केवल एक ही विकल्प बचता है कि जिन लोगों की क्षमता हो, वे बोतलबंद पानी का इस्तेमाल करें। 

त्रिपुरा विश्वविद्यालय में डिपार्टमेंट ऑफ केमिकल एंड पॉलिमर इंजीनियरिंग में एक असिस्टेंट प्रोफेसर हरजीत नाथ ने सूटकेस के आकार के एक जल शोधक का आविष्कार किया है। हरजीत नाथ ने द् थर्ड पोल को बताया कि यह दूषित अपशिष्ट जल को भी पीने योग्य पानी में बदल सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों को पूरा करने के लिए इसका परीक्षण किया गया है। असम के सिलचर शहर में बाढ़ प्रभावित लोगों को पीने के पानी उपलब्ध कराने में इस साल इसका उपयोग किया गया है। बाढ़ के दौरान सिलचर में बोतलबंद पानी की कीमत 20 रुपये प्रति लीटर से बढ़कर 100 रुपये तक पहुंच गई थी, जबकि नाथ के डिवाइस से पानी की कीमत सिर्फ 37 पैसे है।

A group of people watch as a device pumps water into containers
असम के सिलचर में इस साल की बाढ़ में राहत कार्य के दौरान अपने वाटर प्यूरीफायर के साथ हरजीत नाथ (बाएं से तीसरे) (फोटो © हरजीत नाथ )

नाथ कहते हैं, “रिचार्जेबल बैटरी पर काम करने वाला ये वाटर प्यूरीफायर सौर और विद्युत ऊर्जा दोनों द्वारा संचालित किया जा सकता है – ये तब भी काम कर सकता है जब बाढ़ के दौरान बिजली आमतौर पर काट दी जाती है।” 

वर्तमान में ये एक ही मशीन है। लेकिन नाथ, जिन्होंने पिछले साल अपनी तकनीक का पेटेंट कराया था, भारतीय बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता सामान कंपनी यूरेका फोर्ब्स के साथ इसके बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए बातचीत कर रहे हैं।

बाढ़ के दौरान लोगों को साफ पानी तक पहुंच सुनिश्चित करने का एक और तरीका टंबलर्स या टिन कंटेनर में रेत फिल्टर है। 2002 से, रूरल वालेंटियर सेंटर- आपदा प्रबंधन में काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था- असम के धेमाजी जिले में लोगों को इन उपकरणों को प्रदान कर रही है।

पानी को साफ करने के लिए लंबे समय से रेत फिल्टर का उपयोग किया जाता है, लेकिन इस एनजीओ ने रेत, अभ्रक, लकड़ी का कोयला और कपड़े के फिल्टर की विभिन्न परतों के साथ डिजाइन को संशोधित किया है। एनजीओ के मुताबिक, यह पानी से 100 फीसदी आयरन और 98 फीसदी रोगजनकों को हटा देता है। इससे अब तक 55 परिवार लाभान्वित हो चुके हैं।

पूर्वी भारत में बाढ़ के मुद्दों पर काम करने वाले एक सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्ट, मेघ पाईन अभियान के संस्थापक एकलव्य प्रसाद कहते हैं, “पीने के पानी से जुड़ी प्रौद्योगिकियां, ऐसी होनी चाहिए कि स्थानीय लोग उनका संकलन, कार्यान्वयन और प्रबंधन कर सकें क्योंकि उन्हें बाढ़ के दौरान पीने के पानी की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ऐसे वक्त में, बाहरी मदद की प्रतीक्षा करना बेहद दर्दनाक है।

बाढ़ से बड़े स्तर पर निपटने की रणनीति 

वैसे तो, टेक्नोलॉजिकल इन्नोवेशंस बाढ़ की गंभीरता को कम कर सकते हैं और राहत प्रदान कर सकते हैं, लेकिन ये समाधान का केवल एक हिस्सा हैं। लॉक हेवन यूनिवर्सिटी में जियोलॉजिकल साइंसेस के प्रोफेसर खालेकुज्ज़मान का सुझाव है कि भारत और बांग्लादेश जैसे देशों को मेकांग नदी आयोग के सदस्य देशों की ओर देखना चाहिए। यह आयोग बाढ़ के समाधान को लेकर बातचीत व सहयोग के माध्यम से आम सहमति बनाने पर काम कर रहा है। 

मेकांग नदी आयोग क्या है?

मेकांग नदी आयोग (एमआरसी) 1995 में कंबोडिया, लाओस, थाईलैंड और वियतनाम के बीच स्थापित एक पूरी तरह से सलाहकार निकाय है। यह निचले मेकांग बेसिन में पानी से संबंधित संसाधनों के प्रबंधन पर अनुसंधान, सर्वेक्षण और विकास का समन्वय प्रदान करता है। चीन इसका डायलॉग पार्टनर है, निकाय का सदस्य नहीं है।

खालेकुज्ज़मान कहते हैं, “सीमावर्ती नदियां राजनीतिक सीमाओं को नहीं समझती हैं। मेघना जलग्रहण का 57 प्रतिशत हिस्सा भारत के पास है और शेष 43 फीसदी बांग्लादेश के पास है। गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना बेसिन में सह-नदी के देशों के बीच एक एकीकृत जल संसाधन समझौते के बिना बाढ़ का प्रबंधन नहीं किया जा सकता है।” 

एकेएम सैफुल इस्लाम सीमा पार सहयोग की आवश्यकता पर सहमत हैं। इस्लाम ने कहा, “जब चेरापूंजी [मेघालय राज्य का एक शहर] में 15 से 17 जून के बीच 4,000 मिलीमीटर से अधिक बारिश दर्ज की गई- यह चार महीने में होने वाली बारिश के बराबर की मात्रा थी- तब बांग्लादेश का बाढ़ पूर्वानुमान और चेतावनी केंद्र, जो पांच दिन आगे की बाढ़ की भविष्यवाणी करता है, मेघालय के पहाड़ी क्षेत्रों में बारिश की तीव्रता को नहीं समझ पाया।” 

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत और बांग्लादेश के बीच केवल वर्षा और हाइड्रोलॉजिकल डाटा को साझा करने से ही दोनों देशों को जलवायु परिवर्तन के बदतर होने की स्थिति में, अधिक तीव्र बाढ़ के लिए तैयार होने में मदद मिल सकती है।

इस महीने की शुरुआत में बांग्लादेश और भारत ने एक छोटी सीमावर्ती कुशियारा नदी के लिए जल-बंटवारे के समझौते पर हस्ताक्षर किए, लेकिन दोनों देशों की नदियों के लिए बाढ़ की चेतावनी के आदान-प्रदान पर अभी भी कोई औपचारिक समझौता नहीं हुआ है।