पिछले साल महामारी थी। और इस साल यूक्रेन में युद्ध। बीते कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक वार्ता और इस समस्या से निपटने के लिए दशकों पुरानी बातचीत जितनी क्रूर रूप में उभर कर सामने आई है, वैसी पहले कभी नहीं रही।
महामारी ने खुलासा कर दिया कि वैश्विक वित्तीय प्रणाली कितनी आसानी से एक भयावह पड़ाव पर आ सकती है, और पेरिस जलवायु समझौता इस संभावना से कितना बेखबर है। इस साल ने यह भी दिखाया कि युद्ध कैसे वैश्विक जलवायु समझौतों को तहस-नहस कर देता है।
रूस से गैस का प्रवाह के कम होने के कारण यूरोप अपनी ऊर्जा आपूर्ति के बारे में चिंतित है। इस कारण, जर्मनी, इटली, ऑस्ट्रिया और नीदरलैंड सहित अन्य सरकारों ने अपने कोयला बिजली संयंत्रों पर से धूल हटाने यानी उनको दोबारा चालू करने का फैसला किया है। यह वही जीवाश्म ईंधन है जिसको लेकर इन देशों ने बहुत आत्मविश्वास के साथ, केवल एक साल पहले ही ग्लासगो में कॉप 26 के दौरान, सभी अर्थव्यवस्थाओं पर इस बात को लेकर दबाव बनाने की कोशिश की थी कि वे इसे चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लिए सहमत हो जाएं।
कोयला ऊर्जा उत्पादन के सबसे गंदे और सबसे कार्बन-इंटेंसिव (कार्बन-सघन) तरीकों में से एक है, लेकिन यूरोपीय नीति निर्माता, दुनिया को आश्वस्त कर रहे हैं कि इसे जलाना, सर्दियों में आपूर्ति की कमी से निपटने में मदद के लिए एक आवश्यक काम चलाऊ प्रबंध है। जर्मन इकोनॉमी मिनिस्टर ने तो यहां तक कहा कि यह निर्णय “कड़वा” है, लेकिन उनके देश को आने वाली लंबी सर्दी की तैयारी के लिए सब कुछ करना ही चाहिए।
विकसित देशों को उसी तर्क का उपयोग करते हुए देखना दिलचस्प है जो विकासशील देश वर्षों से कर रहे हैं: ‘स्वच्छ अर्थव्यवस्थाओं में रूपांतरण के लिए हमें खुद को राजकोषीय और कार्बन स्पेस की अनुमति देने की आवश्यकता है’; ‘हमें पहले अपने लोगों की तत्काल जरूरतों को पूरा करने की जरूरत है।’
इस हालात पर आश्चर्य होना स्वाभाविक है।
इस पृष्ठभूमि में, विभिन्न देश इस नवंबर में, शर्म अल-शेख में, अपनी सालाना जलवायु बैठक के लिए फिर से इकट्ठा हो रहे हैं। हर साल की तरह, कॉप 27 में भी औपचारिक वार्ता के अंदर और बाहर, जलवायु वित्त केंद्र में रहेगा।
अब यहां हम जलवायु वित्त के एजेंडे पर बात करते हैं।
देशों की जरूरतों के हिसाब से नई वित्तीय प्रतिबद्धताओं का आधार होना है ज़रूरी
विकसित देश 2020 तक विकासशील देशों को हर साल 8,242 अरब रुपए देने की अपनी प्रतिबद्धता को अभी पूरा नहीं कर पाए हैं। हालांकि हम 8,242 अरब रुपए- सार्वजनिक धन, निजी धन या दोनों- की गणना इस आधार पर कर रहे हैं। 2025 के बाद जलवायु वित्त पर एक ‘न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल’ (नया सामूहिक मात्रात्मक लक्ष्य) (एनसीक्यूजी) निर्धारित किया जाना है। इस लक्ष्य को लेकर चुपचाप बच निकलने की स्थिति नहीं बन सकेगी क्योंकि कोपेनहेगन में जलवायु शिखर सम्मेलन के दौरान इसका जिक्र हुआ था। यह पिछले 13 वर्षों में सीखी गई नसीहतों पर आधारित होना चाहिए।
412-907 ट्रिलियन रुपए
अपनी जलवायु वित्त आवश्यकताओं की लागत की गणना विकासशील देशों ने इतनी की है। तकरीबन 70 फीसदी की लागत गणना नहीं की जा सकी है।
विकासशील देशों की जरूरतों के आधार पर किसी भी वित्तीय प्रतिबद्धता को निर्धारित करना सबसे महत्वपूर्ण सबक है। इस तरह के एक स्पष्ट प्रारंभिक बिंदु को 30 साल पहले वार्ताकारों द्वारा महसूस किया गया था और दस्तावेजों में लाया गया था, जब जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) पर सहमति हुई थी। हालांकि, इस निर्णय को लागू करने में हमें दशकों लग गए। 2021 में, एक ‘नीड्स डिटरमिनेशन रिपोर्ट’ (आवश्यकता निर्धारण रिपोर्ट) (एनडीआर) जिसमें मिटिगेशन (शमन) और एडॉप्टेशन (अनुकूलन) के लिए आवश्यक वित्त शामिल था, कॉप को प्रस्तुत किया गया था।
अनुकूलन संचार, राष्ट्रीय अनुकूलन योजना, राष्ट्रीय संचार और राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान सहित विकासशील देशों द्वारा प्रस्तुत स्रोतों के संकलन से यह निष्कर्ष निकलता है कि विकासशील देशों द्वारा पहचानी गई कुल 22,000 जरूरतों में से लगभग 6,500 की लागत की गणना की गई है। यानी यह करीब 30 फीसदी है। जितनी जरूरतों की लागत की गणना की गई है कि उसका कुल मूल्य 412-907 ट्रिलियन रुपए है।
सभी देशों ने क्षेत्र और उप-क्षेत्र द्वारा शमन और अनुकूलन के लिए लागत की जरूरतों के बारे में जानकारी प्रदान नहीं की है, और इसलिए यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि धन की सबसे अधिक आवश्यकता कहां है। विकासशील देशों ने शमन आवश्यकताओं की तुलना में अनुकूलन की पहचान अधिक की है, लेकिन शमन परियोजनाओं की बेहतर लागत गणना की गई है। यह अनुकूलन आवश्यकताओं का आकलन करने के लिए उपलब्ध आंकड़ों, उपकरणों और क्षमता की कमी के कारण हो सकता है।
जब हम कॉप 27 में क्लाइमेट एक्शन पर महत्वाकांक्षा बढ़ाने के बारे में बात करते हैं, तो हमें उस बातचीत को जलवायु वित्त के लिए एक महत्वाकांक्षी और आवश्यकता-निर्धारित लक्ष्य को लक्षित करने के साथ जोड़ना चाहिए।
हालांकि इससे यह प्रदर्शित होता है कि विकासशील देशों को अपनी जरूरतों के लिए लागत तय करने में सुधार करने की आवश्यकता है, यह स्पष्ट रूप से एनसीक्यूजी के लिए एक यथार्थवादी आधार का संकेत भी देता है।
मौजूदा 100 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता वाली राशि वास्तविक जरूरतों के हिसाब से कहीं 0.9 फीसदी और 2 फीसदी के बीच है। इसलिए, जब हम कॉप 27 में क्लाइमेट एक्शन पर महत्वाकांक्षा बढ़ाने के बारे में बात करते हैं, तो हमें उस बातचीत को जलवायु वित्त के लिए एक महत्वाकांक्षी और आवश्यकता-निर्धारित लक्ष्य को लक्षित करने को साथ जोड़ना चाहिए।
वित्तीय जरूरतों की समझ में सुधार हुआ है़
देशों द्वारा खुद पहचानी गई मात्रात्मक जरूरतों के अलावा, उपलब्ध जलवायु वित्त का उपयोग करने वाले देशों द्वारा पिछले कुछ वर्षों में उभरी बेहतर समझ से नए लक्ष्य को भी लाभ होना चाहिए।
सबसे पहले, नए और अतिरिक्त अनुदान वित्त पोषण की आवश्यकता है। जलवायु नीति संस्थान (सीपीआई) द्वारा 2021 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में पाया गया कि जलवायु वित्त का 61 फीसदी ऋण के रूप में है, जिसमें से केवल 12 फीसदी कम लागत वाले या रियायती ऋण हैं। जलवायु कार्रवाई का मतलब, विकासशील देशों के लिए एक ऐसी समस्या का समाधान करने के लिए, और कर्ज नहीं होना चाहिए, जिसे उन्होंने पैदा ही नहीं किया है। डेट-टू-जीडीपी अनुपात बढ़ने से नाजुक अर्थव्यवस्थाओं की क्रेडिट रेटिंग प्रभावित होगी।
इसके बाद, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के लिए अनुकूलन को वित्तपोषित करने की तत्काल आवश्यकता है। यह आर्थिक विकास की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की 2021 अनुकूलन गैप रिपोर्ट का अनुमान है कि विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में वार्षिक अनुकूलन लागत 2030 तक 12,776 और 27200 अरब रुपए के बीच होगी। फिर भी, अनुकूलन वित्त, कुल सार्वजनिक वित्त का केवल 14 फीसदी प्रतिनिधित्व करता है।
जलवायु कार्रवाई का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि ऐसी समस्या का समाधान के लिए जिसे विकासशील देशों ने पैदा ही नहीं किया, वो उसकी वजह से और क़र्ज़ में चले जाए।
तीसरा, निजी क्षेत्र हर मर्ज का इलाज नहीं है, न ही यह जलवायु वित्त का लाभ उठा रहा है। विकसित देशों के आग्रह के बावजूद निजी क्षेत्र को खोला नहीं किया गया है। यदि हम उसी सीपीआई रिपोर्ट को देखें, जो सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में विकसित और विकासशील दोनों देशों में सभी जलवायु वित्त की गणना करती है, तो यह निष्कर्ष निकलता है कि निजी क्षेत्र ने 2019-20 में कुल का केवल 49 फीसदी योगदान दिया। इसमें इलेक्ट्रिक वाहनों पर घरेलू खर्च शामिल है। जाहिर है, सार्वजनिक क्षेत्र के वित्त पोषण के गुणकों में निजी वित्त जुटाने के सभी वादे अब तक एक मृगतृष्णा साबित हुए हैं। क्या हमें अभी भी एनसीक्यूजी के लिए वही तर्क स्वीकार कर लेना चाहिए?
जलवायु वित्त की परिभाषा और गणना पद्धति पर भी हमें एक समझौता करना ही चाहिए। एक परिभाषा के अभाव में, विकसित देशों से विकासशील देशों में स्थानांतरित होने वाली धनराशि पर आज कोई सहमति नहीं है। यदि प्रवाह स्पष्ट नहीं है, तो जलवायु कार्रवाई भी नहीं होगी। और पेरिस में तय किए गए दो डिग्री सेल्सियस वाले लक्ष्य के प्रति विभिन्न देशों की प्रगति कैसी है, वे हमें लक्ष्य के कितना करीब ले जाते हैं या हम कितना दूर रहते हैं, इसकी वास्तविक तस्वीर धुंधली ही बनी रहेगी।
अंत में, विकासशील देशों को खुद को औपचारिक कॉप एजेंडा तक सीमित नहीं रखना चाहिए। इस साल जब पाकिस्तान, अब तक की सबसे भीषण बाढ़ों में से एक की चपेट में आ गया, जिससे लाखों लोग प्रभावित हुए और करोड़ों रुपयों का नुकसान हुआ, तब एक अंतरराष्ट्रीय तंत्र की अनुपस्थिति में- जो देश के नुकसान और क्षति के प्रभावों को दूर करने के लिए तुरंत प्रयास करता- लोगों का जीवन और आजीविका बचाने के लिए खुद के संसाधनों और कर्ज के अलावा देश के पास कोई विकल्प नहीं था।
संयुक्त राष्ट्र वार्ता के दायरे से आगे बढ़ना चाहिए जलवायु वित्त
आज ये स्थिति पाकिस्तान में है। कल कोई और देश था और दुर्भाग्य से कल कोई और देश होगा। वैसे तो, कॉप 27 में पाकिस्तान को हुए नुकसान से निपटने के लिए नुकसान और क्षति के लिए एक वित्त सुविधा स्थापित करने पर बहस होगी, लेकिन कॉप से पहले की बातचीत से अच्छा पूर्वानुमान नहीं है।
कॉप में जो कुछ भी हो, उससे विकासशील देशों को नहीं रुकना चाहिए, जो कि ऋण पुनर्गठन की मांग से भारी नुकसान का सामना कर रहे हैं। हमने देखा कि यूरोपीय संघ और अमेरिका ने 2021 कॉप के मौके पर 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 30 फीसदी की कटौती करने की वैश्विक प्रतिज्ञा की। उनको हस्ताक्षर करने के लिए लगभग 100 देश मिले। यह कभी भी औपचारिक वार्ता का हिस्सा नहीं था, फिर भी एक परिणाम प्राप्त हुआ।
इसी तरह, हमने देखा कि कोविड -19 महामारी के कारण वैश्विक स्वास्थ्य संकट की स्थिति में डेट रिफाइनेंस्ड (ऋण पुनर्वित्त) किया गया। ऐसे देश जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को प्रबंधन करने की स्थिति में नहीं हैं, उनके साथ उसी तरह से व्यवहार किया जाना चाहिए।
किसी भी जलवायु कार्रवाई पर ऋण संकट एक अवरोध है। दोनों को अब अलग-अलग मानकर नहीं चलना चाहिए।