राजमिस्त्री का काम करने वाले रविंदर कुमार, नई दिल्ली के बाहरी इलाके में, एक कंस्ट्रक्शन साइट पर संगमरमर की विशाल स्लैब को काटते हुए अपना दिन बिताते हैं। इस साल अप्रैल और मई में, पूरे भारत में प्रचंड गर्मी पड़ी और बिना कूलिंग के ऐसे मौसम में रविंदर को अपना काम करने के लिए काफी जद्दोजहद का सामना करना पड़ा।
बेहद तेज धूप से थोड़ी सुरक्षा के लिए उन्होंने हरे रंग की प्लास्टिक की तिरपाल और ईंटों के ढेर से एक अस्थायी ठिकाना बनाया। फिर भी, दिन खत्म होते-होते वह भारी थकान, सिरदर्द और बुखार की चपेट में आ गए। कंस्ट्रक्शन साइट पर उनके द्वारा बनाए गए अस्थायी ठिकाने में रात को उन्हें नींद नहीं आती थी क्योंकि झोपड़ी की टिन की छत से गर्मी नीचे आ रही थी। थके हुए और अस्वस्थ लेकिन अपने परिवार के लिए पैसे कमाने के दबाव में, रविंदर ने काम करना जारी रखा। जब तापमान 46 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, तब वह अपने मालिक से काम के 10 घंटों को बड़े मुश्किल से कम करवाकर 8 घंटे करवा पाए।
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की ताजा रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से रिकॉर्ड तोड़ गर्मी और लू की आशंका काफी बढ़ गई है। इस वसंत के मौसम में, भारत और पाकिस्तान में तापमान लगभग 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, जबकि बांग्लादेश और श्रीलंका भी असामान्य रूप से भीषण गर्मी से झुलसे रहे। एक अध्ययन में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन के कारण पूरे भारत और पाकिस्तान में इस साल, 100 साल पहले की तुलना में 30 गुना अधिक गर्मी पड़ जाने की आशंका है।
कूलिंग के उपाय और विकास साथ-साथ
पर्याप्त कूलिंग यानी एक ठंडे वातावरण के बिना, ये स्थितियां देशों के विकास को कमजोर करती हैं। जब दक्षिण एशिया में भीषण गर्मी पड़ती है, तब रविंदर कुमार जैसे गरीब व कमजोर लोग सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं।
जब काम के वक्त बहुत अधिक गर्मी होती है, तो काम मिलना मुश्किल हो जाता है और मजदूरी नहीं बन पाती। ऐसे में परिवार, गरीबी के दुष्चक्र में फंसते जाते हैं। स्कूल के घंटे कम हो जाते हैं, जिससे बच्चे शिक्षा और भविष्य के अवसरों से वंचित हो जाते हैं। दक्षिण एशिया में बहुत से लोग ऐसी इमारतों में रहते हैं, जहां पर्याप्त हवा का प्रवाह नहीं है और उनके पास वातावरण को ठंडा रखने वाले साधन भी नहीं हैं, ऐसे में इस तरह की भीषण गर्मी, उनके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाती है। इतना ही नहीं, भारत में कोल्ड चेन का बुनियादी ढांचा सीमित और बिखरा हुआ है, इससे खाद्य पदार्थों और टीकों का काफी नुकसान होता है, जिससे पोषण और सार्वजनिक स्वास्थ्य खतरे में पड़ जाता है।
रिकॉर्ड तोड़ गर्मी की आर्थिक लागत चौंकाने वाली है। इस क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का एक बड़ा प्रतिशत, गर्मी की भयानक मार झेलने वाले इनफॉर्मल वर्कर्ज़ यानी अनौपचारिक श्रमिकों के कंधों पर निर्भर है। अत्यधिक गर्मी न केवल कामकाजी गरीबों के स्वास्थ्य और आजीविका को, बल्कि क्षेत्र की आर्थिक उत्पादकता को भी खतरे में डालती है। 2030 तक, बढ़ती गर्मी के कारण श्रम का नुकसान, भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 4.5 फीसदी – लगभग 12,353 से 20,588 अरब रुपयों तक हो सकता है। वहीं, पाकिस्तान और बांग्लादेश को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 5 फीसदी तक का नुकसान हो सकता है।
शहरी आबादी बढ़ रही है और पूरे दक्षिण एशिया में तापमान बढ़ता जा रहा है, ऐसे में कूलिंग के उपायों की मांग भी बढ़ती है। एयर कंडीशनर और अन्य कूलिंग उपकरण खतरनाक ग्रीन हाउस गैस छोड़ते हैं। पर्यावरणीय प्रभावों को कम रखते हुए नागरिकों को ठंडा वातावरण उपलब्ध कराना दक्षिण एशिया की सरकारों के लिए एक चुनौती है। इसे देखते हुए विकास योजनाओं की रणनीति के रूप में कूलिंग को प्राथमिकता देनी चाहिए।
दक्षिण एशिया में कूलिंग को लेकर समाधान और अवसर
2019 में भारत, एक व्यापक कूलिंग एक्शन प्लान शुरू करने वाले दुनिया के शुरुआती देशों में से एक बन गया। इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान (आईकैप) जलवायु प्रभावों को कम करते हुए देश की कूलिंग आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक महत्वाकांक्षी पहल है। जून 2022 में, बांग्लादेश ने अपनी राष्ट्रीय कूलिंग योजना प्रकाशित की, जबकि पिछले साल अक्टूबर में पाकिस्तान ने घोषणा की कि वह 2026 तक इसे अपनाएगा।
इन योजनाओं के माध्यम से, रविंदर कुमार जैसे हाशिये पे रहने वाले लोगों की मदद के लिए, इस क्षेत्र के देशों को दोबारा सोचना चाहिए कि किस तरह से आवास, कृषि और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे और सेवाओं को वितरित किया जाता है।
उदाहरण के लिए, दक्षिण एशिया के शहरों को लें, जहां बहुत सारे लोग भयानक गरीबी और आवास के बदतर हालात से त्रस्त हैं। आवास की जरूरतों को पूरा करने के लिए 2050 से पहले दक्षिण एशिया में 20 करोड़ से अधिक नए घरों के निर्माण की आवश्यकता है। यह इस क्षेत्र में शहरी विकास की स्थितियों को बदलने और थर्मल कंफर्ट को प्राथमिकता देने वाली रणनीतियों को अपनाने के अवसर प्रदान करता है। भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश अपने किफायती आवास कार्यक्रमों के साथ इस चुनौती का जवाब दे रहे हैं।
भारत में आवास की मांग को पूरा करने के लिए सालाना एक करोड़ नए घरों के निर्माण की आवश्यकता है। ऐसे में, सरकार की किफायती आवास योजना में, घरों के अंदर गर्मी पैदा होने से रोकने के लिए, प्रकृति-आधारित समाधान और पैसिव कूलिंग टेक्निक्स को शामिल करने का अवसर है। इनमें घर का डिजाइन कुछ इस तरह से होता है कि वह प्राकृतिक तरीके से ठंडे रहते हैं।
इसका मतलब है कि जलवायु के अनुकूल ताप अवरोधी सामग्री, जैसे फूस का उच्च तापीय द्रव्यमान वाली सामग्री के साथ संयुक्त रूप से उपयोग करना। विश्व बैंक समूह के विश्लेषण के अनुसार, अकेले भारत में स्पेस कूलिंग के लिए 2040 तक 124 ट्रिलियन रुपये खर्च होने के आसार हैं, जिसमें से 102 ट्रिलियन रुपये आवासीय भवनों के लिए निर्धारित किया गया है।
इस पूरे क्षेत्र में आवास योजनाओं में किफायती स्पेस-कूलिंग तकनीकों को बढ़ाने के अवसर मौजूद हैं। बांग्लादेश में, शहरी आबादी 2000 में 3.1 करोड़ थी, वह बढ़कर 2020 में 6.5 करोड़ हो गई। विश्व बैंक का अनुमान है कि मौजूदा कमी को पूरा करने के लिए हर साल ढाई लाख नए घर बनाने की आवश्यकता है। पाकिस्तान में 2019 में सरकार ने 2030 तक गरीब और मध्यम आय वालों के लिए 50 लाख आवास यूनिट्स प्रदान करने के लिए एक आवास कार्यक्रम शुरू किया।
उच्च दक्षता वाले सामान्य घरेलू उपकरणों, जैसे ब्रशलेस सीलिंग या बीएलडीसी, पंखों को बढ़ाकर लाखों लोगों के लिए आराम सुनिश्चित किया जा सकता है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सबसे तेजी से बिकने वाले उपकरणों में छत वाले पंखे हैं। ब्रशलेस पंखों को सामान्य पंखों की तुलना में लगभग 65 फीसदी कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है और प्रति पंखा सालाना घरेलू बिजली भुगतान में लगभग 1650 रुपयों की बचत में मदद करता है।
ऐसा पहले भी किया जा चुका है। उदाहरण के लिए, भारत ने पहले ही, बड़े पैमाने पर एलईडी लाइटबल्बों की थोक खरीद और वितरण के साथ परिवर्तनकारी ऊर्जा-कुशल प्रौद्योगिकी को अपनाया है। अगर अन्य ऊर्जा-कुशल प्रौद्योगिकियों जैसे ब्रशलेस पंखों के लिए एक व्यवहार्य बाजार बनाने के उद्देश्य से एलईडी कार्यक्रम जैसा ही कुछ दोहराने का प्रयास किया जाता है तो इससे क्षेत्र में आर्थिक विकास के अवसर पैदा होते हैं।
कूलिंग को बढ़ावा देने की रणनीति में, दक्षिण एशिया में कोल्ड चेन के क्षेत्र में, बड़े निवेश को शामिल किया जाना चाहिए। भारत में, कोल्ड चेन सेक्टर के सीमित होने का मतलब है कि हर साल उत्पादित खाद्य सामग्री का लगभग 40 फीसदी बर्बाद हो जाना। पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी स्थिति समान है, जहां अनुमान है कि प्रति व्यक्ति क्रमशः 74 किलोग्राम और 65 किलोग्राम भोजन बर्बाद हो जाता है। भारत में, कृषि क्षेत्र को 17 लाख रोजगार सृजित करने की क्षमता के साथ, कोल्ड चेन के बुनियादी ढांचे में इस कमी को भरने के लिए 11 अरब डॉलर से अधिक के तत्काल निवेश की आवश्यकता है। इस निवेश का अधिकांश हिस्सा, खाद्य उत्पादों और टीकों को प्रिजर्व करने के लिए रेफ्रिजरेटेड ट्रांसपोर्ट सहित स्थायी और ऊर्जा-कुशल कोल्ड चेन नेटवर्क विकसित करने में लगना चाहिए।
रविंदर कुमार जैसे कामगारों के लिए यह बदलाव इतनी तेजी से नहीं आ सकता। वह रोजाना 500 रुपये के मेहनताने पर, राजस्थान में रह रहे अपने परिवार के सात सदस्यों का पालन-पोषण करते हैं। रविंदर कुमार, एक सुरक्षा गार्ड के रूप में काम करने का सपना देख रहे हैं क्योंकि वहां उनको बाहर की गर्मी झेलने की जगह घर के अंदर बैठकर काम करने का मौका होगा। एक रहने योग्य शहर में किसी नए सेक्टर में एक नया अवसर उनके और उनके परिवार के भविष्य को बदल सकता है।
यह आर्टिकल विश्व बैंक, आईसीआईएमओडी और द् थर्ड पोल के बीच एक सहयोगी संपादकीय श्रृंखला का हिस्सा है जो “रीजनल कोऑपरेशन फॉर क्लाइमेट रेसिलिएंस इन साउथ एशिया ” पर जलवायु विशेषज्ञों और क्षेत्रीय आवाजों को एक मंच पर लाता है। लेखकों द्वारा व्यक्त किए गए विचार और राय उनके अपने हैं। इस श्रृंखला को यूके के विदेश, कॉमनवेल्थ एंड डेवलपमेंट ऑफिस द्वारा प्रोग्राम फॉर एशिया रेसिलिएंस टू क्लाइमेट चेंज- विश्व बैंक द्वारा प्रशासित एक ट्रस्ट फंड- के माध्यम से फंड किया गया है।