पनाही मेहमानों का बेहद गर्मजोशी से स्वागत करती हैं। वो एक ऐसी जगह रहती हैं जहां फ़र्श मिट्टी का है। छत छप्पर की है जिसके ज़रिये सूरज की रोशनी आ रही है। पिछले साल आई बाढ़ के बाद अब यही पनाही का नया घर है। यहां कुर्सियां और चारपाई जैसी कोई चीज़ नहीं है। पानी लाने के लिए एक कैन है। दो चादरें हैं। कुछ बर्तन हैं और इबादत के लिए एक चटाई है। उनके परिवार के पास सिर्फ़ इतना सामान ही बचा है। पाकिस्तान में महिलाओं की हालत काफ़ी जगहों पर कुछ ऐसी ही है।
पनाही कहती हैं, “बाढ़ सब कुछ बहा ले गई; हमें खाली हाथ दो महीने से अधिक समय तक थट्टा जिले में जाना पड़ा। ऊपर वाले का शुक्र है कि हम घर वापस आ गए हैं।”
पनाही दक्षिणी पाकिस्तान के सिंध प्रांत में लगभग 30 घरों वाले एक गांव गोठ अली मुहम्मद सूमरो में रहती हैं। पिछले साल अगस्त में विनाशकारी मॉनसूनी बाढ़ के दौरान पनाही का घर बह गया था। अभी जहां वह रहती हैं वह एक अस्थायी आश्रय है।
परिवारों की फसलें भी बाढ़ में नष्ट हो गईं। इस आपदा में ज़िंदा बच गईं कुछ गायों और भैंसों के शरीर से हड्डियां साफ नज़र आ रही हैं। पनाही का परिवार मुर्गी पालन करके अपना गुज़ारा कर रहा है। वह कहती हैं, “हमें रोटी के लिए आटा खरीदना होता है। इसलिए हम अंडे बेच देते हैं। हमें खुद अंडे खाने को नहीं मिलते।”
“क्रूर मानसून” की वजह से होने वाली तबाही को छह महीने से ज़्यादा वक्त बीत चुके हैं। पाकिस्तान में हर सात में से एक व्यक्ति इससे प्रभावित हुए हैं। तकरीबन 80 लाख लोग विस्थापित हुए। बाढ़ की वजह से होने वाली तबाही का असर अब हेडलाइंस में कहीं नहीं हैं।
फिर भी अकेले सिंध प्रांत में, प्रांतीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, 2023 की शुरुआत में 89,000 से अधिक लोग अभी भी विस्थापित के रूप में पंजीकृत थे। यह बाढ़, उस भयानक और लंबे समय तक बरकरार रही हीटवेव के बाद आई जो सामान्य वक्त से पहले ही शुरू हो गई थी।
विशेषज्ञों का कहना है कि लगातार आपदाओं से महिलाएं, विशेष रूप से गर्भवती या नवजात शिशुओं की माताएं, बुरी तरह प्रभावित हुई हैं।
लैंगिक मानदंड और गरीबी ने बढ़ाई महिलाओं की तकलीफ़
जेंडर एंड कम्युनिटी डेवलपमेंट में विशेषज्ञता रखने वाली एक सोशल साइंटिस्ट और पाकिस्तान एग्रीकल्चरल रिसर्च काउंसिल में एक प्रोग्राम लीडर साजिदा ताज कहती हैं, “बाढ़ जैसी जलवायु आपदाओं से पुरुषों और महिलाओं पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। हमारे समाज में जेंडर नॉर्म्स यानी लैंगिक मानदंड इसका एक प्रमुख कारण है। लैंगिक भूमिकाएं यानी महिलाओं और पुरुषों की भूमिकाओं को स्पष्ट रूप से विभाजित किया गया है। ग्रामीण परिवेश में यह स्थिति विशेष रूप से स्पष्ट है जहां महिलाओं के जिम्मे घरेलू कामकाज व बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल है।”
पाकिस्तान में समावेशी विकास पर काम करने वाले एक एनजीओ इंडस अर्थ ट्रस्ट के जनरल मैनेजर ऑफ प्रोग्राम्स अब्दुल्ला राजपार कहते हैं कि ग्रामीण समुदायों में, पुरुषों के पास ज़्यादातर घर के बाहर वाले कामों की ज़िम्मेदारी होती है। वहीं, महिलाएं “खाना बनाती हैं, सफाई करती हैं, कपड़े धोती हैं, पशुओं के लिए चारा तैयार करती हैं, गायों से दूध निकालती हैं और खेतिहर मजदूर के रूप में काम करती हैं।”
गरीबी का मतलब है कि महिलाओं के कुपोषित होने की अधिक आशंका। राजपार बताते हैं कि “जब कोई आपदा आती है, तो वे बुरी तरह प्रभावित होती हैं। जब बाढ़ का पानी आना शुरू होता है तो वे किसी तरह अपनी सास, अपने बच्चों और मवेशियों को ऊंचाई वाले स्थान पर ले जाती हैं। वे खुद को अपनी प्राथमिकताओं में सबसे नीचे रखती हैं।”
माउंटेन एंड ग्लेशियर प्रोटेक्शन ऑर्गनाइजेशन और सिविल सोसाइटी कोएलिशन फॉर क्लाइमेट चेंज की प्रमुख आयशा खान बताती हैं कि पाकिस्तान में महिलाओं की आबादी तकरीबन 49 फीसदी है “लेकिन संसाधनों या अवसरों तक उनकी समान पहुंच नहीं है।” वह कहती हैं कि यही असमानता उनको ज़्यादा नाज़ुक बनाने में अहम भूमिका निभाती है।
780,000
पाकिस्तान में 2022 की बाढ़ के दौरान नष्ट हुए घरों की ये अनुमानित संख्या है। तकरीबन 12.7 लाख से अधिक घर आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हुए।
गोठ अली मुहम्मद सूमरो गांव में पुरुषों, महिलाओं और यहां तक कि बच्चों के नारंगी धब्बे वाले होंठ इस बात का इशारा करते हैं कि वे गुटखा चबाते हैं। यह तम्बाकू से बनने वाला एक उत्पाद है जो पूरे दक्षिण एशिया में चबाया जाता है। वैसे, परंपरागत रूप से गुटखा केवल पुरुषों द्वारा ही खाया जाता है। राजपार कहते हैं, “वे भूख को कम करने के लिए गुटखे का उपयोग करते हैं क्योंकि पर्याप्त भोजन नहीं है। परिवार में सभी लोग इसका इस्तेमाल करते हैं। बाढ़ के बाद भोजन और काम की कमी ने इस स्थिति को और भी बदतर बना दिया है। खून की कमी और कमजोरी के बावजूद, महिलाओं को बच्चे पैदा करते रहना पड़ता है।”
बाढ़ के बाद प्रभावित होता प्रजनन स्वास्थ्य
यूनाइटेड नेशंस पॉपुलेशन फंड ने अनुमान लगाया है कि अगस्त, 2022 में पाकिस्तान के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में करीब 650,000 गर्भवती महिलाएं थी। उस समय, सिंध में 1,000 से अधिक अस्पताल या क्लीनिक और दक्षिण-पश्चिम पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में 198 से अधिक अस्पताल या क्लीनिक आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त या नष्ट हो गए। इस वजह से स्वास्थ्य के मामलों में, बाद के महीनों में हालात काफ़ी बदतर हो गए।
पाकिस्तान के नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एनडीएमए) में जेंडर एंड चाइल्ड सेल की प्रोग्राम मैनेजर तानिया हुमायूं कहती हैं, “गर्भवती या स्तनपान कराने वाली महिलाओं को [आपदाओं के दौरान] कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।”
वह बताती हैं, “महिलाओं की पोषण संबंधी जरूरतें पूरी नहीं होती हैं। वे एक खास तरह के वातावरण में रहने की आदी हैं, और विस्थापित होना आसान नहीं है। वे पहले से ही वंचित हैं। ऊपर से, इस आपदा ने महिलाओं के मवेशियों और घर के पास के बगीचों को नष्ट कर दिया।”
गोठ अली मुहम्मद सूमरो में, द् थर्ड पोल को पता चला कि पिछले साल, गर्भवती महिलाओं के लिए स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच कितनी मुश्किल हो गई थी। एक महिला साइमा को बाढ़ के दौरान प्रसव पीड़ा हुई और उसने अपना बच्चा खो दिया। उनकी एक पड़ोसी साजिदा ने बताया कि पास के क्लीनिक तक अगर पैदल जाना हो तो घंटों लगता है। सड़कों पर पानी भर गया था। बड़ी मुश्किल से हमने एक वैन किराए पर ली। वैन हमें कुछ दूरी तक ले गई। इसके बाद, साथ के लोग साइमा को आगे लेकर गए। लेकिन जब तक हम क्लीनिक पहुंचे, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
नोरीन भाग्यशाली रहीं। वह बताती हैं, “यह मेरी गुलमीना है; यह बाढ़ के दौरान पैदा हुई थी।” नोरीन के आठ बच्चे हैं। चार लड़कियां और चार लड़के।
हजारों किलोमीटर सड़कें टूट चुकी हैं। स्वास्थ्य सुविधाएं तबाह हैं। गर्भ निरोधकों तक पहुंच भी अधिक बेहद कठिन हो गई है। पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग की पिछले महीने प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि राहत शिविरों में क्लीनिक्स तो खोले गए लेकिन अनेक रूढ़ियों के चलते महिलाओं तक प्रजनन संबंधी सहायता का पहुंच पाना बेहद मुश्किल रहा। बहुत सारी ऐसी महिलाएं, जिनको प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य सुविधाओं की आवश्यकता थी, लेकिन अजनबियों यानी क्लीनिक्स पर काम करने वाले कर्मियों के साथ सहज नहीं हो पाईं क्योंकि पारंपरिक रूप से ऐसा करना उनकी गरिमा के खिलाफ है।
मानव अधिकारों के लिए मौजूदा दिक्कतें आपदा के कारण जटिल हो गई हैं
बाढ़ पीड़ितों को सब्सिडी वाला राशन मिलता है लेकिन इसके लिए उनके पास एक राष्ट्रीय पहचान पत्र (एनआईसी) होना चाहिए। पाकिस्तान के ग्रामीण इलाकों में, कई परिवारों में, पुरुषों को आसानी से अपना एनआईसी मिल जाता है जबकि महिलाओं के मामलों में ऐसा नहीं हो पाता है।
उत्पीड़न के खतरे के चलते महिलाओं का कहीं आना-जाना काफ़ी कम होता है। इसका मतलब यह है कि वे अकेले यात्रा नहीं कर सकती हैं। ऐसे में इस बात की संभावना काफी ज़्यादा रहती है कि जहां राशन बांटा जा रहा है, वहां तक महिलाएं पहुंच ही न पाएं।
गोठ अली मुहम्मद सूमरो गांव में, द् थर्ड पोल ने एक 10 साल की लड़की से मुलाकात की। यह लड़की एक छोटे से बर्तन में भरकर पानी ले जा रही थी। अपना नाम बताने में यह लड़की बहुत शरमा भी रही थी। इस बच्ची के बारे में साजिदा ने बताया कि वह अपने सात भाई-बहनों में दूसरे नंबर की है। उसके पिता की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी है। वह अपने सभी भाई-बहनों की देखभाल करती है। बर्तन और कपड़े धोती है। पानी लाने के लिए उसे पास के पंप के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं। परिवार का कोई पुरुष सदस्य नहीं होना, अपने आप में एक चुनौती है। यह पूछे जाने पर कि वह एक बार में ही ज्यादा पानी क्यों नहीं ले आती, इस पर साजिदा ने बताया कि परिवार के पास अब और जेरी कैन नहीं है। यही बर्तन उनके पास हैं।”
राहत शिविरों में स्वच्छता एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। एनडीएमए की हुमायूं एक वाकया याद करते हुए बताती हैं कि 2009 में जलोजाई शिविर में, महिलाएं पूरे दिन शौचालय का उपयोग नहीं करती थीं, लेकिन शाम को लंबी कतारें लग जाती थीं। हमें पता चला कि हेलीकॉप्टर ऊपर से उड़ते थे, और शौचालय बिना छत के थे, इसलिए महिलाएं दिन में उनका इस्तेमाल करने से बचती थीं। ऐसे में, कई महिलाओं को यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन का सामना करना पड़ा। इस बार, शिविर लगाए जाने के वक्त इस बात को ध्यान में रखा गया था।
विश्व बैंक ने कहा है कि आपदा के बाद बच्चों की शिक्षा, विशेषकर लड़कियों की शिक्षा खतरे में है। हुमायूं, ग्रामीण सिंध के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में होने वाले बाल विवाहों के बारे में जानती हैं। वह बताती हैं, “जब बच्चे खो जाते हैं और शिविरों में पाए जाते हैं, तो उनकी शादी कर दी जाती है। एक तरह से इससे उनके यहां भरण-पोषण के लिए एक व्यक्ति कम हो जाता है।”
हुमायूं एक और अहम बात बताती हैं कि अराजकता के हालात में जेंडर-बेस्ड वायलेंस यानी ज्यादातर मामलों में महिलाओं के प्रति हिंसा के मामले बढ़ जाते हैं।
समाज में ‘परिवर्तनकारी बदलाव’ की ज़रूरत है
आयशा खान का कहना है कि पाकिस्तान में पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवहार को बदलने की ज़रूरत है। साथ ही, महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता के साथ सोचने की आवश्यकता है। इसके अलावा, महिलाओं को विकास योजनाओं में भी शामिल किया जाना चाहिए।
उनका कहना है कि इसे कागज पर करना या लैंगिक समानता के बारे में बयान देना पर्याप्त नहीं है।
इसे सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तनकारी बदलाव के हिस्से के रूप में देखा और महसूस किया जाना चाहिए जो सबको साथ लेकर चले और सबकी आर्थिक भागीदारी सुनिश्चित करे। कामचलाऊ व्यवस्था कोई विकल्प नहीं है।
इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी), यूएन एनवायरनमेंट प्रोग्राम और यूएन वूमन की सितंबर 2022 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने और इन प्रभावों के प्रति अनुकूलन के लिए लोगों की क्षमताओं को समझने के लिहाज से जेंडर इक्वलिटी और सोशल इंक्लूजन की समझ बेहद महत्वपूर्ण है।
खान का मानना है कि लैंगिक असमानता की ओर ले जाने वाली सांस्कृतिक प्रथाओं, पारंपरिक मूल्यों और सामाजिक बाधाओं के बारे में हमें विचार करना चाहिए और बदलते समय और गर्म होती दुनिया के उभरते खतरों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
उनका कहना है, “हम सामान्य समय में नहीं रह रहे हैं और इसलिए पारंपरिक तौर-तरीके काम नहीं करेंगे … जितनी जल्दी हम बदलाव करेंगे, उतना ही बेहतर होगा। और हम वल्नरबिलिटी को कम कर पाएंगे।”