गद्दी, हिमाचल प्रदेश में सबसे बड़ा चरवाहा समुदाय है। वर्ष 2011 में हुई हालिया भारतीय जनगणना के हिसाब से इनकी आबादी 1,78,000 है।
अब जबकि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयन वाटरशेड की आबादी प्रभावित हो रही है, ऐसे में गद्दी समुदाय को लेकर इस तरह के शोध उपयोगी साबित हो रहे हैं: गद्दी समुदाय के सामने आने वाली चुनौतियां, और उनके जवाब में इनकी प्रतिक्रियाएं बेहद अहम हैं। इससे अन्य लोगों को स्पष्ट रूप से चरवाहा समुदायों के मौजूदा संघर्ष की सराहना करने का मौका मिलता है।
अपने 2021 के शोध पत्र, ‘पुराने तरीके और नए मार्ग: भारतीय हिमालय में जलवायु खतरे और अनुकूलन संबंधी संभावनाएं’ में, रिचर्ड एक्सेलबी और मौरा बुलघेरोनी ने स्पष्ट रूप से चरवाहा समुदायों पर ध्यान केंद्रित किया है।
वे इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि बढ़ते तापमान की वजह से किस तरह से घास के मैदानों की गुणवत्ता प्रभावित होती है। साथ ही, इसका
जानवरों के स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ता है जो उन पर निर्भर हैं। असामान्य रूप से शुष्क मानसून या बेमौसम तूफान इन मिट्टी को या तो सामान्य से अधिक शुष्क बना सकते हैं, या कीचड़ में ढक सकते हैं।
पेपर में यह भी लिखा गया है कि गद्दियों को अपने प्रवास के दौरान जोखिमों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि तूफानों के साथ ग्लेशियरों के पिघलने से भूस्खलन की संख्या में वृद्धि हुई है।
चरवाहों ने जलवायु प्रभावों के प्रति अलग-अलग तरीकों से प्रतिक्रिया दी है: कुछ ने अपने जानवरों के झुंड में बकरियों का प्रतिशत बढ़ा दिया है, क्योंकि भेड़ों की तुलना में बकरियां हानिकारक पौधों से बेहतर तरीके से बच सकती हैं; कुछ लोगों ने आवश्यक वनस्पति की कम उपलब्धता की भरपाई के लिए शीतकालीन चरागाह क्षेत्रों की संख्या में वृद्धि की है, जहां वे चले जाते हैं।
बुलघेरोनी ने हिमालय जर्नल के सितंबर 2023 इशू के लिए अपने लेख में इनमें से कुछ बिंदुओं को उठाया है। यह लेख गद्दी समुदाय को समर्पित है।
उन्होंने हिमाचल प्रदेश में भरमौर के पास गद्देरण (गद्दी समुदाय का पुराना गढ़) में जलवायु परिवर्तन दबावों के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक बदलावों- सड़क निर्माण, शिक्षा और रोजगार के अवसरों व मौसम विशेष के दौरान प्रवासन- को संदर्भित किया है।
बुलघेरोनी और एक्सेलबी दोनों का तर्क है कि भरमौर क्षेत्र में चरवाहे “आश्चर्यजनक रूप से दृढ़” साबित हो रहे हैं। यह पशु चराने वाले काम की व्यावहारिक स्थिति पर बहुत सी टिप्पणियों का खंडन करता है: “हालांकि जिन पर्यावरणीय क्षेत्रों में पशुओं को चराने का काम होता है, उनमें काफी सारे परिवर्तन हो रहे हैं … भेड़ और बकरियों को पालना एक निवेश अवसर में बदल गया है”।
एक बदलता समुदाय
आयुषी मल्होत्रा और उनके सहयोगियों ने भी अपने 2022 के पेपर, “पुहल्स: आउटलाइनिंग द् डायनामिक्स ऑफ लेबर एंड हायर्ड हर्डिंग एमंग द् गद्दी पस्टरलिस्ट्स ऑफ इंडिया” में गद्दी समुदाय द्वारा पशुओं को चराने के काम में रिजिलियंस यानी लचीलेपन की इस बात पर जोर दिया है।
गद्दी समुदाय द्वारा पशुओं को चराने वाले काम में पुहल का अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग मतलब हो सकता है। उपलब्ध साहित्य में, पुहल की व्याख्या चरवाहा सहायकों, नौकरों या किराए के चरवाहों के रूप में की जाती है।
भरमौर में किए गए एक अध्ययन के आधार पर, वे गद्दी समुदाय की समकालीन चरवाहा अर्थव्यवस्था को बनाए रखने में “पुहल” (किराए के चरवाहों) के महत्व पर जोर देते हैं।
गद्दी चरवाहों ने लंबे समय से, छोटे पैमाने पर या अस्थायी श्रम की कमी को पूरा करने के लिए पुहल यानी किराये के चरवाहों का उपयोग किया है।
पुहल को इस काम में लाने की प्रक्रिया की इस पहली जांच से पता चलता है कि पशुओं के झुंड के मालिकों के बीच पुहल पर एक नई और अधिक निर्भरता है।
उन्हें अक्सर स्थानीय लोगों के बीच से नहीं लिया जाता है। आश्चर्य वाली बात यह है कि ये अक्सर गैर-गद्दी समुदाय के होते हैं और गैर-चरवाहा पृष्ठभूमि के होते हैं।
इसमें हिमाचल प्रदेश से बाहर से नियुक्तियां शामिल हैं। चूंकि कम ही गद्दी युवा, चरवाहा जीवन की कठिनाइयों को झेलने के लिए तैयार हैं, ऐसे में पुहल, चरवाहा अर्थव्यवस्था में पैतृक निवेश को बनाए रखने के लिए एक महत्वपूर्ण साधन बन गए हैं।
लेखकों का सुझाव है कि पुहलों पर इस बढ़ती निर्भरता के लाभों से महत्वपूर्ण बदलाव आएगा, क्योंकि यह प्रणाली इन भाड़े के लोगों को स्वयं चरवाहों के रूप में पैर जमाने में सक्षम बनाती है।
जलवायु परिवर्तन सशक्त रूप से पशुओं को चराने के काम के भविष्य को आकार दे रहा है। पशुओं को चराने के काम से संबंधित चक्र और अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभाव स्पष्ट हैं।
जैसा कि उपर्युक्त शोध से पता चलता है, यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि गद्दी समुदाय पशुओं को चराने के काम से जल्द ही गायब हो जाएंगे, भले ही अब व्यावहारिक स्थिति यह है कि यह काम गैर-गद्दी समुदायों के माध्यम से ज्यादा सुरक्षित होता जा रहा है।
लंबे समय के दौरान इसके क्या मायने हो सकते हैं?
बिहार जैसे सुदूर भारतीय राज्यों से पुहलों की बढ़ती संख्या, स्थानीय विवादों को जटिल बना रही है। हिमाचल प्रदेश में गुज्जर मुख्य रूप से मुस्लिम हैं, जबकि राज्य में हिंदू बहुसंख्यक हैं; उनकी आबादी मुख्य रूप से हिंदू गद्दी समुदाय की तुलना में कम है, जो परंपरागत रूप से राज्य में चरवाहा राजनीति पर हावी रहा है।
जलवायु परिवर्तन और गैर-गद्दी श्रम में यह विस्तार पहले से ही खराब चल रहे गद्दी-गुर्जर संबंधों को किस तरह से प्रभावित कर सकता है?
बहुत अधिक शोध की ज़रूरत है
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि गद्दी संस्कृति का कोई एक भी अनुभव नहीं है। 2022 के एक लेख में, स्टीफन क्रिस्टोफर कहते हैं कि गद्दी को हिमाचल प्रदेश और जम्मू और कश्मीर में तीन अलग-अलग तरीकों से वर्गीकृत किया गया है। जम्मू में, वे गुज्जरों की तुलना में अल्पसंख्यक चरवाहा समुदाय हैं। विवादों की स्थिति में उनके पास सीमित मौके हैं। हिमाचल प्रदेश में यह स्थिति बिल्कुल उलट है।
इसके अतिरिक्त, गद्दी समुदाय जाति के आधार पर विभाजित है। ऐतिहासिक रूप से यह समुदाय वंचित-शोषित जातियों की श्रेणी में रहा है। इस समुदाय के लोगों के पास चरवाहा अर्थव्यवस्था से मिलने वाले फायदों तक सीमित पहुंच थी।
पांच “अनुसूचित जाति” समूहों में से, जो आंशिक रूप से गद्दी जीवन में समाहित हैं, हलीस को जातिवाद की सबसे कठिन स्थितियों का सामना करना पड़ता है। धार्मिक अशुद्धता के नाम पर पवित्र ऊंचाई वाली भूमि के चरागाहों से उनका बहिष्कार है। ये जातिगत बहिष्कार की स्थिति, हिमाचल प्रदेश स्टेट वूल फेडरेशन और गद्दी कल्याण बोर्ड दोनों की संरचना तक विस्तारित हैं। ये सार्वजनिक संसाधनों के लिए राज्य के साथ बातचीत करने को लेकर प्रमुख संस्थान हैं।
यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर अभी तक अध्ययन नहीं किया गया है, और जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में चारागाह और जल संसाधनों तक गद्दी समुदाय की पहुंच के भविष्य पर इसका बड़ा प्रभाव पड़ सकता है।
सितंबर में, हिमालय जर्नल का एक विशेष अंक जारी किया गया था। यह गद्दी समुदाय द्वारा पशुओं को चराने वाले काम पर केंद्रित था। इसमें कई विषयों को शामिल किया गया था। यह सभी के लिए उपलब्ध है। इसे यहां पूरा पढ़ा जा सकता है।