जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन यानी यूएनएफसीसीसी के वार्षिक जलवायु शिखर सम्मेलन को लेकर, यूएनएफसीसीसी के ही एक पूर्व प्रमुख कहते है कि जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिहाज़ से इसे काफ़ी नहीं कहना चाहिए, लेकिन इसके बिना हालात और भी खराब होंगे।
कुछ हफ्ते पहले, यूएनएफसीसीसी ने अभी तक की राष्ट्रीय जलवायु प्रतिज्ञाओं का एक नया विश्लेषण, एनडीसी सिंथेसिस रिपोर्ट, प्रकाशित की। यह मौजूदा प्रयासों और ग्लोबल वार्मिंग को पूर्व-औद्योगिक स्तरों के 2 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखने के लिए किए जाने वाले ज़रूरी प्रयासों के बीच भारी अंतर को रेखांकित करती है। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु विज्ञान निकाय, आईपीसीसी के अनुसार, 2019 के स्तर के आधार पर, 2030 तक उत्सर्जन में 43 फीसदी की कटौती की जानी चाहिए, ताकि तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखा जा सके। यह 2015 पेरिस समझौते का महत्वाकांक्षी लक्ष्य है।
इस पृष्ठभूमि में, 30 नवंबर यानी गुरुवार को दुबई में शुरू होने वाले और एक पखवाड़े तक चलने वाले कॉप 28 शिखर सम्मेलन के एजेंडे का नेतृत्व ‘ग्लोबल स्टॉकटेक’ द्वारा किया जाएगा। यह पेरिस समझौते के तहत हर आठ साल में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कार्रवाइयों के मूल्यांकन की अनिवार्य प्रक्रिया है।
हो सकता है कि इससे ‘विकसित बनाम विकासशील देशों’ के दोषारोपण वाले उस खेल की पुनरावृत्ति होगी जिसने दशकों से जलवायु वार्ता को बाधित किया है। अमीर देश उत्सर्जन को कम करने की अधिक ज़िम्मेदारी विकासशील देशों, खासकर उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर डालने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि इस दिशा में वे खुद बहुत कम प्रयास कर रहे हैं। गरीब देशों का कहना है कि अमीर देशों ने सबसे पहले समस्या पैदा की; अपने स्वयं के उत्सर्जन को वे सख्ती से नियंत्रित नहीं कर रहे हैं; और वे विकासशील विश्व को जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों को नियंत्रित करने के लिए वह जरूरी धन उपलब्ध नहीं करा रहे हैं जिसका उन्होंने वादा किया था।
इस विभाजन को पाटने के लिए कॉप 28 के अध्यक्ष सुल्तान अहमद अल जाबेर को अपने सभी कूटनीतिक और वार्ता कौशल के इस्तेमाल की ज़रूरत होगी। यहां चुनौती यह भी है कि जाबेर अबू धाबी नेशनल ऑयल कंपनी के सीईओ भी हैं जो एक प्रमुख जीवाश्म ईंधन उत्पादक कंपनी है। उनकी इस भूमिका से हितों का टकराव हो सकता है। इसकी वजह से एक मज़बूत जलवायु समझौते को पूरा करने की उनकी बात पर यकीन कमज़ोर हो जाता है।
कॉप 28 में सारे सवाल पैसों से जुड़े हैं
माना जाता है कि ग्लोबल स्टॉकटेक जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के प्रयासों को सुदृढ़ करेगा। विकासशील विश्व को इस कार्य के लिए हर वर्ष खरबों डॉलर की आवश्यकता होती है। फिर भी, विकसित देशों की सरकारों से ऐसी रकम आने की संभावना लगभग शून्य है। दरअसल, 2020 तक विकासशील देशों में जलवायु कार्रवाई के लिए प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर यानी 8300 अरब रुपए देने की 2009 में की गई प्रतिज्ञा को पूरा करने में विकसित देश विफल रहे हैं। विकसित देशों की तरफ से जरूरी वित्त उपलब्ध न कराने को लेकर कॉप 28 में, विकासशील देशों के सरकारी प्रतिनिधियों की तरफ से कड़वे भाषणों को शायद ही टाला जा सके।
वैश्विक जलवायु वित्त में सुधार की योजना, ब्रिजटाउन पहल को आगे बढ़ाने के लिए कॉप 28 का उपयोग करने की बारबाडोस की प्रधानमंत्री मिया मोटली की प्रतिवेदित योजना अधिक रचनात्मक हो सकती है। मोटली के सलाहकार अविनाश पर्सौड ने 20 नवंबर को नई दिल्ली में आयोजित एक प्री-कॉप बैठक में कहा कि विकासशील देशों को उत्सर्जन शमन के लिए प्रति वर्ष 200 ट्रिलियन रुपयों की आवश्यकता होती है। और इसमें से 160 ट्रिलियन रुपए निजी निवेशकों से आ सकते हैं, यदि विकसित देशों की सरकारें शेष जोखिम रहित ऋण देने का वादा करती हैं।
कॉप 28 में, जलवायु वित्त पर तकनीकी समिति ब्रिजटाउन पहल के प्रत्येक पहलू से गुजरेगी, और वे जिस पर भी सहमत होंगे उसे एक कॉप संकल्प के रूप में अपनाने के लिए कांफ्रेंस प्लेनरी में भेजा जाएगा। यदि ऐसे महत्वपूर्ण बिंदु हैं जिन पर वे असहमत हैं, जैसे बंकर ईंधन पर कर लगाना, तो वे इसकी रिपोर्ट अपने मंत्रियों को देंगे, जो फिर समझौते पर पहुंचने का प्रयास करेंगे।
पर्सौड को भरोसा था कि पिछले साल कॉप 27 में जिस ‘नुकसान और क्षति’ वित्त यानी लॉस एंड डैमेज फंड पर सहमति बनी थी – जिसका उद्देश्य अपरिवर्तनीय जलवायु प्रभावों से प्रभावित समुदायों की मदद करना था – उसे विमानन, शिपिंग और अन्य अत्यधिक प्रदूषणकारी गतिविधियों पर कर लगाकर आवश्यक धन मिल सकता है।
लेकिन अन्य विशेषज्ञों को यकीन था कि कुछ विकसित देश, विशेष रूप से अमेरिका, इस तरह के कराधान को स्वीकार नहीं करेंगे।
विकसित देशों की तरफ़ से ज़रूरी वित्त उपलब्ध न कराने को लेकर कॉप 28 में, विकासशील देशों के सरकारी प्रतिनिधियों की तरफ से कड़वे भाषणों को शायद ही टाला जा सके।
जलवायु वित्त वार्ता में खींचतान का एक नया मुद्दा यह है कि कौन सा संगठन हानि और क्षति निधि यानी लॉस एंड डैमेज फंड का प्रबंधन करेगा। अमीर देश चाहते हैं कि विश्व बैंक ऐसा करे। वहीं, गरीब देश चाहते हैं कि इसका नियंत्रण संयुक्त राष्ट्र के तहत गठित ग्रीन क्लाइमेट फंड द्वारा हो। अमीर देशों का विश्व बैंक पर अधिक नियंत्रण है। इसकी गवर्निंग बॉडी में उनके अधिक वोट हैं और उनका कहना है कि यह हरित जलवायु कोष की तुलना में अधिक कुशल है।
विकासशील देशों का कहना है कि विश्व बैंक द्वारा उनको फंड मिलने की संभावना कम है। और जब कभी फंड मिलता भी है तो उसका एक बड़ा प्रतिशत विश्व बैंक परामर्श शुल्क के रूप में ले लेता है। ग्रीन क्लाइमेट फंड में विकसित और विकासशील देशों के वोट बराबर हैं।
2023 के दौरान इस विषय पर बातचीत बार-बार विफल रही है। 5 नवंबर को लिया गया नवीनतम निर्णय, विश्व बैंक को “अस्थायी रूप से” फंड का प्रबंधन करने के लिए है, हालांकि इस समझौते पर कुछ विकासशील देशों के प्रतिनिधियों द्वारा हमला किया जा सकता है।
गरीब देशों की सरकारों को जलवायु वित्त को लेकर एक और बड़ी चिंता है। दरअसल, इसका अधिकांश हिस्सा अनुदान के बजाय ऋण के रूप में आ रहा है। इसे विकसित देशों के एक समूह व दक्षिण अफ्रीका और बाद में इंडोनेशिया, वियतनाम और सेनेगल के बीच जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन पार्टनरशिप (जेईटीपी) में देखा जा सकता है।
कॉप में आधिकारिक तौर पर जेईटीपी के मुद्दे को शामिल नहीं किया जाएगा, लेकिन साइड इवेंट में उन पर चर्चा की जाएगी, और यह संभव है कि अमेरिका कुछ नए सौदों की घोषणा करेगा।
नवीकरणीय ऊर्जा को तीन गुना करना
कॉप 28 की तैयारी कर रहे सरकारी प्रतिनिधियों और जलवायु वार्ता पर लंबे समय से नज़र रखने वालों को उम्मीद है कि सम्मेलन सितंबर में जी 20 द्वारा 2030 तक वर्तमान नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करने की अपनाई गई प्रतिज्ञा को दोहराएगा। कॉप के मंच से ऐसा होना एक बड़ी सकारात्मक बात होगी।
लेकिन ऐसी किसी भी प्रतिज्ञा के साथ कुछ अमीर देशों की मांग भी शामिल हो सकती है कि उभरती अर्थव्यवस्थाएं – विशेष रूप से चीन और भारत – कोयले के उपयोग को और अधिक तेजी से चरणबद्ध तरीके से बंद करने पर सहमत हों।
यह संभावना भारतीय वार्ताकारों को चिंतित कर रही है, खासकर इसलिए, क्योंकि सरकार ने हाल ही में बिजली उत्पादन के लिए कोयला उत्पादन बढ़ाने की योजना की घोषणा की है।
उनकी संभावित बातचीत की रणनीति केवल कोयला ही नहीं, बल्कि सभी जीवाश्म ईंधनों तक बातचीत का विस्तार करना होगा, जिससे प्रतिज्ञाओं को अपनाने की संभावना कम हो जाएगी।
मीथेन एक नया मुद्दा रहेगा
मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है। यह जलवायु वार्ता में एक चर्चा का कारण रहा है, खासकर जब से 2021 में कॉप 26 के दौरान वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा शुरू की गई थी। इसके माध्यम से, अमेरिका के नेतृत्व में कुछ विकसित देशों ने मीथेन उत्सर्जन को तेजी से कम करने का वादा किया है और विकासशील देशों पर भी ऐसा करने के लिए दबाव डाल रहे हैं।
चीन ने मीथेन प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, लेकिन हाल ही में एक मीथेन योजना जारी की है। भारत ने दो बिंदुओं पर प्रतिज्ञा का विरोध किया है। पहला : यह तेल और गैस के जलने के बारे में बहुत कम बात करता है, जो सभी मीथेन उत्सर्जन का कम से कम आधा हिस्सा है। दूसरा : मीथेन के अन्य बड़े स्रोत पशुधन और धान की खेती हैं, और भारत ने तर्क दिया है कि इन क्षेत्रों में कार्रवाई से छोटे किसानों पर असर पड़ेगा।
लेकिन हाल ही में अमेरिका-चीन जलवायु समझौते के बाद, जो मीथेन को कम करने पर था, भारत पर किसी प्रकार की प्रतिज्ञा करने के लिए नए सिरे से दबाव हो सकता है। यह दबाव ‘मीथेन और गैर-कार्बन डाइऑक्साइड ग्रीनहाउस गैस शिखर सम्मेलन’ से आने की संभावना है जिसे अमेरिका और चीन, कॉप 28 में आयोजित करने की योजना बना रहे हैं। द् थर्ड पोल के साथ बातचीत में, भारतीय वार्ताकारों ने अब तक कहा है कि वे प्रतिज्ञा करने के लिए सहमत नहीं होंगे।
कॉप 28 में आंतरिक समस्या
जलवायु वार्ता एक आंतरिक समस्या से ग्रस्त है। यूएनएफसीसीसी के निर्णय सभी देशों के बीच आम सहमति से होने चाहिए।
दशकों से, नौकरशाह अधिक से अधिक लाभ लेने और कम से कम देने के लिए, अपनी सरकारों से बुनियादी जानकारी लेकर जलवायु वार्ता में जाते रहे हैं।
जब विकास के इतने सारे अलग-अलग चरणों में और इतनी अलग-अलग राजनीतिक प्रणालियों वाले देश बातचीत में शामिल होते हैं, तो ज्यादा से ज्यादा वे जलवायु आपातकाल से निपटने के लिए बहुत कमजोर समझौते पर पहुंचते हैं।
जलवायु परिवर्तन से पहले से ही प्रभावित दुनिया भर के लोग उम्मीद कर रहे हैं कि कॉप 28,कम से कम थोड़ा तो अलग होगा।