हिमाचल प्रदेश की लाहौल स्पीति घाटी में इस जनवरी अब तक बर्फ नहीं गिरी है। विक्रम कटोच इस बात को लेकर चिंतित हैं। इकोलॉजी के लिहाज से नाजुक इस घाटी को पर्यावरण संबंधी दिक्कतों और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाने की दिशा में काम करने वाले एक एनजीओ, सेव लाहौल स्पीति सोसाइटी के उपाध्यक्ष कटोच कहते हैं, “अब तक हमारे यहां कम से कम चार से पांच फीट बर्फ होनी चाहिए थी, लेकिन अभी तक कुछ भी नहीं है। यह गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि बर्फबारी हमारी जल सुरक्षा सुनिश्चित करती है और स्थानीय ग्रामीणों को सिंचाई व खेती के लिए पानी उपलब्ध कराती है।”
तकरीबन 500 किमी उत्तर, कश्मीर के गुलमर्ग में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। यह जगह स्कीइंग के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है। मौजूदा चिल्लई कलां (यह एक फारसी शब्द है, जिसका मतलब है ‘भीषण सर्दी’। यह 40 दिन का होता है) के बावजूद गुलमर्ग से बर्फ गायब है।
जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला ने 9 जनवरी को सोशल मीडिया के माध्यम से कहा: “मैंने गुलमर्ग को सर्दियों में इतना सूखा कभी नहीं देखा… अगर हमें जल्द ही बर्फ नहीं मिली तो गर्मियां बेहद खराब और तकलीफदेह होने वाली हैं।”
भारत के मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के मौसम विज्ञानी सोनम लोटस ने 10 जनवरी को लद्दाख, जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के उत्तरी इलाकों में सर्दियों के दौरान भारी बर्फबारी जैसी स्थिति में कमी आने की पुष्टि की। उन्होंने यह भी कहा कि 25 जनवरी तक बर्फबारी की कोई संभावना नहीं है।
वेस्टर्न डिस्टरबंस कहां है?
वेस्टर्न डिस्टरबंस का मतलब कम हवा वाला दबाव क्षेत्र है। सर्दियों में, पहाड़ी क्षेत्रों में बारिश और बर्फ आदि का कारण वेस्टर्न डिस्टरबंस होता है। यह मैदानी इलाकों में अधिक नमी का कारण बनता है। वेस्टर्न डिस्टरबंस ऐसे तूफान हैं जो कैस्पियन या भूमध्य सागर में उत्पन्न होते हैं। यह वेस्टर्न डिस्टरबंस में भूमध्य और कैस्पियन समुद्र से नमी लाता है। यह वेस्टर्न डिस्टरबंस अत्यधिक ऊंचाई पर पूर्व की ओर चलने वाली ‘वेस्टरली जेट धाराओं’ के साथ यात्रा करते हैं।
इससे पाकिस्तान और उत्तरी भारत में बारिश और बर्फबारी होती है। इससे एक तरह से ग्लेशियरों को पोषण मिलता है। इसीलिए पश्चिमी विक्षोभ इस क्षेत्र की जल सुरक्षा, खेती और पर्यटन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।
भारत के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के पूर्व सचिव माधवन राजीवन के अनुसार, पश्चिमी विक्षोभ की तीव्रता और आवृत्ति दोनों कम हो रही हैं: “हाल के अध्ययनों से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि इस क्षेत्र में सर्दी के मौसम में होने वाली बर्फबारी या बारिश में कमी आ रही है। इसके पीछे की वजह पश्चिमी विक्षोभ का इस क्षेत्र से कम बार गुजरना है।”
वह कहते हैं, “सबसे अहम चिंता पश्चिमी विक्षोभ को लेकर भविष्य के अनुमानों से होनी चाहिए। जलवायु मॉडल्स ने इस ओर इशारा किया है कि 2050 तक इसकी आवृत्ति में लगभग 10-15 फीसदी की और कमी की हो सकती है। यह निश्चित रूप से हमारे लिए चिंता का कारण होना चाहिए।”
जुलाई 2023 के एक अध्ययन (हाल के दशकों में उत्तरी भारत में पश्चिमी विक्षोभ गतिविधि में गिरावट) ने 1980 और 2019 के बीच 39 पश्चिमी विक्षोभ सीजन का आकलन किया। इस अध्ययन में इन तूफानों की आवृत्ति में गिरावट जैसी प्रवृत्ति की बात कही गई है।
रिपोर्ट के अनुसार: “कमजोर और मध्यम पश्चिमी विक्षोभ के विपरीत, जो कि ~ 11 फीसदी बढ़ी…मजबूत और चरम (स्ट्रांग एंड एक्सट्रीम) पश्चिमी विक्षोभ की आवृत्ति में ~ 43 फीसदी तक की गिरावट आई। सबसे तेज गिरावट (~ 49 फीसदी) सबसे तीव्र पश्चिमी विक्षोभों (मजबूत और चरम) के लिए देखा गया था। इससे प्राथमिक तौर पर यह पता चलता है कि पूरे मुख्य पश्चिमी विक्षोभ क्षेत्र में पश्चिमी विक्षोभ की तीव्रता घट रही है।
इसी तरह, अमेरिकी मौसम विज्ञान सोसायटी द्वारा प्रकाशित 2019 पश्चिमी विक्षोभ अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला: “पश्चिमी विक्षोभ की आवृत्ति और तीव्रता में गिरावट से पाकिस्तान और उत्तरी भारत में औसत शीतकालीन वर्षा में कमी आएगी। यह औसत का लगभग 15 फीसदी होगी।”
राजीवन कहते हैं, “पश्चिमी विक्षोभ, मिड-लैटिट्यूड जेट स्ट्रीम से संबंधित हैं। अवलोकनों से पता चलता है कि यह जेट स्ट्रीम, हाल की सर्दियों के दौरान उत्तर की ओर बढ़ गया है। इसका संबंध ग्लोबल वार्मिंग से हो सकता है। (जो यह प्रदर्शित करता है कि मानसून, उष्णकटिबंधीय चक्रवात सहित हर चीज ध्रुव की ओर बढ़ती दिख रही है) यह आर्कटिक सागर की बर्फ के पिघलने से भी संबंधित हो सकता है।
सर्दियों में कम बर्फ, गर्मियों में अधिक बारिश
वेस्टर्न डिस्टरबंस से जुड़ी एक और परेशान करने वाली स्थिति मई, जून और जुलाई के महीनों के दौरान उनकी बढ़ती आवृत्ति है। इस स्थिति को यूके के यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के मौसम विज्ञान अनुसंधान फेलो कीरन हंट द्वारा पश्चिमी विक्षोभ विश्लेषण के अगस्त 2023 प्रीप्रिंट में नोट किया गया है।
कीरन हंट के विश्लेषण के अनुसार: “पिछले 50 वर्षों की तुलना में, पिछले 20 वर्षों के दौरान जून में दोगुना पश्चिमी विक्षोभ आम बात रही है। इसका कारण उपोष्णकटिबंधीय जेट के उत्तर की ओर देरी से वापसी है। यह पहले ग्रीष्मकालीन मानसून की शुरुआत से पहले हुआ करता था।”
प्रीप्रिंट का कहना है कि इसकी सबसे महत्वपूर्ण खोज मानसूनी पश्चिमी विक्षोभ में उल्लेखनीय वृद्धि है। इसका मतलब 2013 में उत्तराखंड की बाढ़ और 2023 में उत्तर भारत की बाढ़ जैसी आपदाओं का आना है। ऐसी विनाशकारी घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं।
बिना बर्फ की सर्दियां
लोटस, लेह में रहते हैं, जहां बिना बर्फ वाली सर्दियां, एक बड़ी चिंता का विषय बन रही हैं। वह कहते हैं, ”यह जनवरी का मध्य है। यह सर्दियों का पीक है लेकिन असामान्य रूप से गर्म है। यह सर्दी पिछले एक दशक में लेह की सबसे गर्म सर्दी है।”
आईएमडी के आंकड़ों के अनुसार, दिसंबर 2023, उत्तर भारत के अधिकांश हिस्सों के लिए लगभग बर्फबारी रहित महीना रहा। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख दोनों में बर्फबारी दिसंबर में सामान्य स्तर से -79 फीसदी रही। हिमाचल प्रदेश में यह -85 फीसदी और उत्तराखंड में -75 फीसदी रही।
जनवरी अब तक बदतर रही है। उत्तराखंड को इस महीने के पहले दो हफ्तों के दौरान सामान्य बर्फबारी का -99 फीसदी प्राप्त हुआ है। इस बीच, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में कोई बर्फबारी नहीं हुई है।
सर्दियों के दौरान बर्फबारी ज़रूरी है क्योंकि यह ग्लेशियरों को पोषण देती है, जो गर्मी के महीनों के दौरान धीरे-धीरे पानी छोड़ते हैं। यह स्थिति झरनों को पुनर्जीवित करती है। नदियों को पानी देती है। सिंचाई के लिए भी पानी उपलब्ध कराती है।इरफान रशीद, कश्मीर विश्वविद्यालय के जियोइंफॉर्मेटिक्स के प्रोफेसर
लोटस का कहना है कि यह इस क्षेत्र का पहला सूखा दौर नहीं है: “पिछले 43 वर्षों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि ऐसे वर्ष रहे हैं जब इस सर्दी में हुई बर्फबारी की तुलना में कम बर्फबारी हुई है। उदाहरण के लिए, 2016 और 2018 में नवंबर और दिसंबर के दौरान लेह में बर्फ नहीं पड़ी। गुलमर्ग 2016 में भी इसी तरह सूखा था: नवंबर और दिसंबर के दौरान 7.6 सेमी बर्फबारी हुई थी, जबकि 2023 में 23 सेमी बर्फबारी हुई थी।”
लोटस, जलवायु परिवर्तन और हिमालय में इस साल की असामान्य बर्फबारी के बीच सीधे संबंध को स्वीकार नहीं करते हैं। हालांकि, वह इस बात को स्वीकार करते हैं कि बढ़ता तापमान, हालात को बदतर बना रहा है। 2023 में, लेह में सबसे कम न्यूनतम तापमान -12.2 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया, जो पिछले वर्षों की तुलना में काफी गर्म है। लोटस का कहना है कि कम बर्फबारी और उच्च तापमान का यह संयोजन हिमालय के हिमनदों के पिघलने में तेजी लाएगा।
ग्लेशियरों पर प्रभाव
द् थर्ड पोल ने कश्मीर विश्वविद्यालय में जियोइंफॉर्मेटिक्स के एक असिस्टेंट प्रोफेसर इरफान रशीद से बात की। रशीद, कश्मीर के क्रायोस्फीयर में विशेषज्ञ हैं। वह, लोटस से सहमत हैं। उनका कहना है, “पिछले दो दशकों में, कम से कम चार बार, बिना बर्फ वाली चिल्लई कलां बीती हैं। सर्दियों की अवधि के दौरान बर्फबारी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह ग्लेशियरों को पोषण देती है, जो गर्मी के महीनों के दौरान धीरे-धीरे पानी छोड़ते हैं। यह स्थिति झरनों को पुनर्जीवित करती है, नदियों को पानी देती है और सिंचाई के लिए भी पानी उपलब्ध कराती है।
क्रायोस्फेयर शब्द इस पृथ्वी के उन क्षेत्रों को कहा जाता है जहां अधिकांश पानी जमे हुए रूप में है: जैसे कि पोलर यानी ध्रुवीय क्षेत्र और ऊंचे पहाड़। दुनिया की सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला हिंदू कुश हिमालय में जमा हुआ पानी ग्लेशियरों, बर्फ की चोटियों, स्नो, पर्माफ्रॉस्ट और नदियों व झीलों पर बर्फ के रूप में मौजूद हैं।
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रशीद कहते हैं, “घाटी में लोग पहले से ही इस साल सूखे की आशंका जता रहे हैं, क्योंकि यह सर्दियों की बर्फबारी ही है जो उन्हें [चावल] और सेब उगाने के लिए पानी उपलब्ध कराकर पूरे साल भरण-पोषण करती है।”
After 7 years, #Kashmir is again experiencing #snowless #winter. The snow in #chillaikalaan, the 40-day severest part of winter b/w 21 Dec and 29 Jan, is important for regulating glacier health and streamflows.+ pic.twitter.com/dUkSUiXKUn
— Irfan Rashid (@irfansalroo) January 10, 2024
ग्लेशियर द्रव्यमान का नुकसान हिमालय क्षेत्र की जल सुरक्षा के लिए एक गंभीर खतरा है। रशीद कहते हैं, “मैं व्यक्तिगत रूप से [लद्दाख में] द्रांग द्रंग ग्लेशियर का अध्ययन कर रहा हूं जो जांस्कर नदी को पानी देता है। 2017 के बाद से यह प्रति वर्ष 5 एम की दर से घट रहा है।”
जल सुरक्षा के लिए खतरा
राजीवन इस बात से सहमत हैं कि यदि पश्चिमी विक्षोभ और उनसे जुड़ी बर्फबारी में कमी आती है तो क्षेत्र की जल सुरक्षा प्रभावित हो सकती है। बर्फ के पिघलने के कारण इन नदियों (सिंधु बेसिन की पांच नदियों) में बहने वाला पानी, जल प्रबंधन के लिहाज से- जैसे, कृषि, बिजली उत्पादन- बहुत महत्वपूर्ण है।
वह कहते हैं कि सिंधु जल संधि भी प्रभावित हो सकती है। यह भारत और पाकिस्तान के बीच नदी जल बंटवारे का प्रबंधन करती है। रशीद इस बात से सहमत हैं कि सर्दियों में बर्फबारी की कमी और घटते ग्लेशियरों का सीमा के दोनों तरफ प्रभाव हो सकता है: “हमें इसके लिए बेसिन के लिहाज से एक व्यापक और विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता है।”
रशीद का कहना है कि इन बदलावों से क्षेत्र में और अधिक आपदाओं का भी खतरा है, जैसे फरवरी 2021 में चमोली आपदा, या हाल ही में सिक्किम में दक्षिण लहोनक झील आपदा।
रशीद बताते हैं, “हिमालयी क्षेत्र – न केवल भारत में, बल्कि पूरे हिंदू कुश और काराकोरम में – में खड़ी ढलानें हैं जो बर्फ या पर्माफ्रॉस्ट की मेजबानी करती हैं। ये नाजुक ढलानें हैं और जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है और पर्याप्त बर्फबारी की कमी होती है। इन क्षेत्रों के जीएलओएफ जैसी आपदाओं के लिए हॉटस्पॉट बनने की संभावना है।”
ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड या जीएलओएफ, किसी पहाड़ी ग्लेशियर के पिघले पानी से बनी झील से पानी का अचानक निकलना है। इसे बर्फ या मोरेन यानी हिमोढ़ (ग्लेशियर द्वारा लाई गई चट्टानें और तलछट) द्वारा रोक लिया जाता है। इस तरह की बाढ़ भूकंप, हिमस्खलन या बहुत अधिक पिघले पानी के जमा होने से उत्पन्न हो सकती है। जीएलओएफ अक्सर बेहद विनाशकारी होते हैं। यह हिमालय जलक्षेत्र में एक बढ़ता खतरा है।
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इनमें से कुछ आपदाएं पहले से ही स्पष्ट हैं। उत्तराखंड में जंगलों की आग में भारी वृद्धि देखी गई है। यह 2002 में 922 से बढ़कर 2019 में 41,600 हो गई है। जलवायु परिवर्तन, जो इस क्षेत्र में कम बारिश की संभावना को बढ़ाता है, एक महत्वपूर्ण प्रेरक कारक है। उत्तराखंड के जंगलों में आग आमतौर पर अप्रैल और जून के बीच लगती है, लेकिन इस साल यहां के जंगल पहले से ही सुलग रहे हैं।
इन उभरती चुनौतियों के दायरे को देखते हुए, रशीद का मानना है कि पश्चिमी विक्षोभ के साथ क्या हो रहा है, यह स्थापित करने के लिए भारत सरकार को तत्काल एक राष्ट्रीय कार्यक्रम तैयार करने की आवश्यकता है। उनका कहना है कि यदि वे विश्वसनीय वैज्ञानिक आंकड़ों से लैस होते हैं, तो संस्थानों को इस उभरते खतरे से निपटने के लिए योजनाएं बनाने में बहुत मिल सकती है।