जलवायु

भारत की जलवायु, प्रदूषण और गरीबी की चुनौतियों से निपटता बायोमास ब्रिकेट्स

बायोमास के प्रभावी इस्तेमाल से भारत को बिजली पैदा करने, कृषि अपशिष्टों का सुरक्षित निवर्तन करने और किसानों को आय देने में मदद मिल सकती है।
हिन्दी
<p>भारत ने फसल अपशिष्ट (पराली) जलाने की समस्या से निपटने के लिए दशकों तक संघर्ष किया है। (फोटो: अलामी)</p>

भारत ने फसल अपशिष्ट (पराली) जलाने की समस्या से निपटने के लिए दशकों तक संघर्ष किया है। (फोटो: अलामी)

सुरजीत कौर एक 38 वर्षीय किसान हैं जिनका परिवार पंजाब के पटियाला जिले में पीढ़ियों से खेती कर रहा है। हर साल कौर और उनका परिवार मिलकर अपनी तीन एकड़ ज़मीन से लगभग 90 क्विंटल धान की फसल काटते हैं।

हालांकि, धान की फसल से होने वाली नियमित कमाई के साथ-साथ गेहूं बोने के लिए भूसे और कृषि अपशिष्टों का शीघ्रता से निपटारा करने की ज़रूरत होती है। उत्तर भारत में धान और गेहूं की की फसलें प्रमुखता से बोई जाती हैं। धान की कटाई और गेहूं की बुआई के बीच मात्र 10 से 15 दिन का समय बचता है; बुआई में किसी भी तरह की देरी करने से गेहूं की फसल कम हो जाएगी। प्रत्येक टन धान से 1.35 से 1.50 टन भूसा पैदा होता है। क्योंकि विकल्पों की कमी है, पर्यावरणीय लागत, जैव विविधता को नुकसान और मिट्टी की सेहत पर नकारात्मक प्रभाव के बावजूद, हर साल हजारों किसान पराली जलाते हैं

सुरजीत ने द थर्ड पोल को बताया, “(अतीत में) हम अपनी फसल काटते थे और पुआल एवं ठूंठ में आग लगा देते थे। हमारे पास और कोई विकल्प नहीं था।” उन्होंने आगे बताया, “हवा में धुएं के भूरे पर्दे लटके रहते थे… हमें सांस लेने में दिक्कत होती थी और कभी-कभी त्वचा में खुजली भी होती थी।” 

भारत में पराली जलाना अपराध हैनेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने भी 2015 में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में पराली जलाने पर विशेष रूप से प्रतिबंध लगा दिया था। 2023 के अंत में, सुप्रीम कोर्ट ने भी इन राज्य सरकारों को पराली जलाने पर तुरंत रोक लगाने का निर्देश दिया।

लेकिन इन हस्तक्षेपों के बावजूद, जिसमें जुर्माना और यहां तक कि गिरफ्तारियां भी शामिल हैं, अधिकारी पराली जलाने को सीमित करने के लिए जूझ रहे हैं

पराली जलाने पर रोक लगाने के लिए प्रोत्साहन

हालांकि, साल 2018 के बाद से ऊर्जा संयंत्रों में उपयोग के लिए फसल अवशेषों को खरीदने के लिए सरकारी सब्सिडी के रूप में किसानों के लिए एक और समाधान सामने आया। साल 2021 में बिजली मंत्रालय ने मौजूदा कोयला आधारित बिजली संयंत्रों में बायोमास के 5-7 फीसदी मिश्रण का उपयोग करना भी अनिवार्य कर दिया। थर्मल पावर प्लांट्स में बायोमास के उपयोग पर राष्ट्रीय मिशन (समर्थ) के मिशन निदेशक, सतीश उपाध्याय के अनुसार, पांच प्रतिशत कोयले को बायोमास छर्रों से बदलने से सालाना 3.5 करोड़ मीट्रिक टन से अधिक कोयले की बचत होती है। अब तक, राज्य के स्वामित्व वाली बिजली प्रदाता कंपनी एनटीपीसी के 15 सहित 50 ताप ऊर्जा संयंत्रों ने 3,91,000 मीट्रिक टन बायोमास का सह-दहन किया है।

साल 2022 के एक शोध पत्र का अनुमान है कि भारत प्रति वर्ष एक अरब टन फसल अवशेष पैदा करता है। अधिकांश का उपयोग मवेशियों के चारे, जैविक उर्वरक, घरेलू ईंधन और घरों का छप्पर छवाने जैसे कार्यों के लिए किया जाता है, लेकिन लगभग 356.7 मीट्रिक टन फसल अवशेष बच जाता  है। शोध पत्र में यह सुझाव दिया गया है कि बायोमास की यह मात्रा 53,767 मेगावाट विद्युत क्षमता उत्पन्न कर सकती है।

हालांकि समझ के पैमाने पर कुछ स्वतंत्र ऑडिट मौजूद हैं, प्राइसवाटरहाउसकूपर्स की जनवरी 2023 की रिपोर्ट में नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा गया है कि, “(अब) लगभग 230 बायोमास पेलेट निर्माता और 1,030 ब्रिकेट [ईंधन के रूप में उपयोग की जाने वाली कोयले की धूल या पीट ] निर्माता विभिन्न राज्यों में फैले हुए हैं।

कॉन्फेडरेशन ऑफ बायोमास एनर्जी इंडस्ट्री ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मोनिश आहूजा ने द थर्ड पोल को बताया कि पिछले दो या तीन वर्षों में बायोमास पेलेट और ब्रिकेट बनाने के लिए 40 से अधिक कंपनियां सामने आई हैं, जिनमें से प्रत्येक की औसत उत्पादन क्षमता प्रति दिन 200 मीट्रिक टन (एमटी) है। उनमें से सबसे बड़ी, 800 मीट्रिक टन प्रतिदिन की स्थापित क्षमता वाली पंजाब रिन्यूएबल एनर्जी सिस्टम्स प्राइवेट लिमिटेड (पीआरईएसपीएल) का औसत दैनिक उत्पादन 500 – 700 मीट्रिक टन है और यह भारत के 18 राज्यों में काम करता है। इसमें चावल का भूसा, गन्ने के छिलके, मकई के भुट्टे, कपास के डंठल, मूंगफली के छिलके और सोया भूसी जैसे कृषि अपशिष्टों का उपयोग किया जाता है।

पीआरईएसपीएल की राह लंबी रही है। वरिष्ठ उपाध्यक्ष (पूर्वी क्षेत्र) प्रोनोब रॉय के अनुसार, पीआरईएसपीएल ने 2011 में किसानों से बायोमास संग्रह करना शुरू किया था। यह क्षेत्र छोटा था, और दिलचस्पी या निवेश को आकर्षित करना कठिन था, इसलिए पीआरईएसपीएल का पहला बड़ा निवेशक 2013 में ज्यूरिख से आया। रॉय ने कहा, 2018 में जारी राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति ने इस क्षेत्र को बढ़ावा दिया और बायोमास क्षमता का दोहन करने वाली बाद की नीतियों से इस क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ।

कंपनी अब पूरे भारत में फसल अवशेष एकत्र करने वाले लगभग 2,00,000 किसानों और 1,00,000 कृषि श्रमिकों से जुड़ी हुई है। बहरहाल, कंपनी अब भी काफी हद तक मित्सुई (जापान), एनईईवी फंड स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (इंडो-यूके प्लेटफॉर्म का संयुक्त निवेश ), और शेल (नीदरलैंड) जैसे निवेशकों से बाहरी फंडिंग पर निर्भर है।

पंजाब के सुरजीत जैसे किसानों को पीआरईएसपीएल को फसल अवशेष बेचने से कचरे से आसानी से निपटने में मदद मिलती है, और अतिरिक्त राजस्व भी उत्पन्न होता है।

“हमारे गुरुद्वारे में घोषणाएं की जाती हैं, जिसमें हमें वीएलई [ग्राम स्तर के उद्यमियों] से संपर्क करने के लिए कहा जाता है।” वह द थर्ड पोल को बताती हैं कि वीएलई “हमारे खेत से 8-10 दिनों के भीतर फसल अवशेषों को हटाकर प्रत्येक गांव में एक विशिष्ट स्थल पर उसे एकत्र करते हैं।”

सरकार इसे अपनी सफलता बताकर खुश है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने दिसंबर 2023 में भारतीय संसद को बताया कि इन नीतियों के कारण पंजाब और हरियाणा राज्यों में खेत की आग में 27 फीसदी की कमी आई है।

किसानों को फसल अवशेषों के लिए पर्याप्त पैसा नहीं मिलने संबंधी चिंताओं के जवाब में, फरवरी 2023 में उनके पहले के जवाब में अधिक जटिल तस्वीर दिखाई गई थी। पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान राज्यों में खेतों में आग लगने की घटनाओं में आम तौर पर गिरावट आई है (और दिल्ली में मामूली बढ़ोतरी हुई है), लेकिन हरियाणा में 2021 में इसके पहले या उसके बाद के वर्ष की तुलना में अधिक फसल में आग लगने की घटनाएं हुईं। यदि खेत की आग का एकमात्र महत्वपूर्ण कारक सरकारी सब्सिडी होती, तो गिरावट स्थिर होती – जो कि नहीं है।

बहरहाल, उत्तर प्रदेश के रामपुर जिले के एक किसान जयदीप सिंह के लिए कोई भी पारिश्रमिक सकारात्मक था, जो पिछले दो वर्षों से धान का भूसा और गन्ने की सिट्ठी (रस निकालने के बाद बचा अवशेष) बेच रहे हैं। वह द थर्ड पोल को बताते हैं कि शेष राशि, “हमें प्रति वर्ष लगभग 20,000 रुपये या शायद इससे भी अधिक मिलती है।” उनके लिए यह विश्वास करना कठिन था कि इस तरह के ‘कचरे’ का “मूल्य भी हो सकता है”। उनकी पत्नी, सरोज का कहना है कि अतिरिक्त पैसे का उपयोग बुजुर्ग माता-पिता के स्वास्थ्य देखभाल के खर्चों को पूरा करने, बच्चों के लिए एक शिक्षक नियुक्त करने और बीज और उर्वरक खरीदने के लिए किया जाता है।

बायोमास के इस्तेमाल में चुनौतियां कायम हैं

बढ़त के बावजूद, आहूजा का कहना है कि उन्हें महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। वे कहते हैं, ”हम अब भी कोयला आधारित बिजली संयंत्रों और अन्य नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से उत्पादित बिजली की कम लागत की तुलना में बायोमास ऊर्जा उत्पादन की उच्च लागत से जूझ रहे हैं।”

नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में भारत के अग्रदूतों में से एक, एस पी गौण चौधरी कहते हैं, “चूंकि बायोमास का कच्चा इनपुट असंगठित क्षेत्र से आता है, इसलिए इसकी कीमत सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं की जा सकती है; इससे प्रति यूनिट उत्पादन की लागत बढ़ जाती है।”

वह द थर्ड पोल को बताते हैं कि प्रति यूनिट 6 रुपये पर, बायोमास से ऊर्जा बहुत महंगी है, जबकि सौर ऊर्जा के लिए यह 2.20-2.30 रुपये और अधिकांश कोयला संयंत्रों से 3-5 रुपये है। हालांकि, आधुनिक सुपरक्रिटिकल कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से बिजली की लागत बायोमास-आधारित बिजली की लागत के समान है, 6-6.50 रुपये प्रति यूनिट। चौधरी कहते हैं, लेकिन जैसे-जैसे बायोमास का क्षेत्र बढ़ेगा, अर्थव्यवस्थाओं के स्तर के हिसाब से बिजली उत्पादन की लागत कम होने की संभावना है।

आहूजा ने द थर्ड पोल को बताया कि अगर सरकार पौधों की पूंजीगत लागत के लिए प्रोत्साहन और सब्सिडी प्रदान करती है, तो कुछ लागत कम की जा सकती है। इसके अतिरिक्त, फसल अवशेषों को कम करने के लिए कर राहत, आसान परिवहन के लिए बेहतर ग्रामीण सड़कें, साथ ही एकत्रीकरण के लिए सस्ती, गैर-कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता, इस क्षेत्र को निवेश के लिए आकर्षक बनाएगी।

पीआरईएसपीएल के सेखों कहते हैं, ”हितधारकों के बीच समन्वय की भी कमी है।” इसमें कृषि, पर्यावरण, नवीकरणीय ऊर्जा और बिजली सहित कई मंत्रालय शामिल हैं। वे कहते हैं, ”समय की मांग है कि तेज संचार और प्रभावी कार्यान्वयन के लिए मंजूरी के लिए समयबद्ध तंत्र के साथ सिंगल-विंडो वाली एक केंद्रीकृत एजेंसी हो।”

इस बीच, शुरुआती बाधाओं के बावजूद, जीवाश्म ईंधन अप्रसार संधि पहल (जीवाश्म ईंधन के उपयोग को खत्म करने पर जोर देने वाले नागरिक समाज के लोगों का एक नेटवर्क) के ग्लोबल एंगेजमेंट डाइरेक्टर हरजीत सिंह कहते हैं, “कृषि-अपशिष्ट को जैव-ऊर्जा संसाधन के रूप में उपयोग करने की दिशा में यह परिवर्तन निश्चित रूप से एक शक्तिशाली एवं प्रभावी जीत है।”

वे कहते हैं, वर्षों तक पराली जलाने के बाद यह पहल जलवायु शमन प्रदान करती है और वायु प्रदूषण के मुद्दों को संबोधित करती है, साथ ही भारत की ऊर्जा कमी और ग्रामीण गरीबी को भी संबोधित करती है।

Privacy Overview

This website uses cookies so that we can provide you with the best user experience possible. Cookie information is stored in your browser and performs functions such as recognising you when you return to our website and helping our team to understand which sections of the website you find most interesting and useful.

Strictly Necessary Cookies

Strictly Necessary Cookie should be enabled at all times so that we can save your preferences for cookie settings.

Analytics

This website uses Google Analytics to collect anonymous information such as the number of visitors to the site, and the most popular pages.

Keeping this cookie enabled helps us to improve our website.

Marketing

This website uses the following additional cookies:

(List the cookies that you are using on the website here.)