जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पूरी दुनिया में महसूस किए जा रहे हैं। तापमान में जैसे-जैसे इजाफा होता जा रहा है, दक्षिण एशिया दुनिया के उन क्षेत्रों में से एक है, जहां इसका प्रभाव सबसे ज्यादा होने जा रहा है।
इस सबको लेकर विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बहुत सी चर्चाएं होती रहती हैं। इन चर्चाओं का मुख्य फोकस इस बात पर रहा है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अनुकूलन किस तरह से होना चाहिए।
लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि कुछ मामलों में, पारिस्थितिकी तंत्र इस कदर क्षतिग्रस्त हो चुका है कि उनको दुरुस्त कर पाना संभव नहीं रहा है। इन वजहों से उन समुदायों या उन लोगों का जीवन हमेशा के लिए बाधित हो रहा है, जिनका भरण-पोषण इन पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर रहता रहा है।
जलवायु परिवर्तन से संबंधित डिप्लोमेसी में अक्सर एक शब्द का इस्तेमाल होता है -“लॉस एंड डैमेज” या “नुकसान और क्षति”। इसका मतलब यह हुआ कि ऐसे नुकसान, जिनको दुरुस्त कर पाना या जिनकी भरपाई कर पाना संभव नहीं है।
दक्षिण एशिया मौजूदा वक्त में एक बड़े राजनीतिक उथल-पुथल का सामना कर रहा है। बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार अपदस्थ हो चुकी है। पाकिस्तान में चुनाव के बाद राजनीतिक संकट और अफगानिस्तान में तालिबान का शासन है।
इन संकटों के अलावा, जलवायु आपदाएं इस क्षेत्र को खाद्य असुरक्षा और आर्थिक मंदी के प्रति और अधिक नाजुक बना देंगी। जाहिर है कि इससे गरीबी और असमानता बढ़ेगी। और विकसित देशों से “लॉस एंड डैमेज” के लिए वित्तीय सहायता की कमी का सीधा मतलब यह हुआ कि दक्षिण एशियाई देशों का ऋण संकट और बढ़ेगा।
• जलवायु परिवर्तन से होने वाले लॉस एंड डैमेज क्या हैं?
• लॉस एंड डैमेज भारत और दक्षिण एशिया को कैसे प्रभावित करता है?
• जलवायु परिवर्तन से दक्षिण एशिया को कितना लॉस एंड डैमेज होगा?
• लॉस एंड डैमेज विवाद का मुद्दा क्यों है?
• पेरिस समझौता लॉस एंड डैमेज के बारे में क्या कहता है?
• लॉस एंड डैमेज में कितना धन खर्च होता है?
• क्या पर्याप्त लॉस एंड डैमेज फंड बनने की संभावना है?
जलवायु परिवर्तन से होने वाले लॉस एंड डैमेज क्या हैं?
जलवायु परिवर्तन का असर यह है कि बार-बार बाढ़ आने लगी है। बाढ़ की भयावहता बहुत ज्यादा हो गई है। हीटवेव का प्रकोप बढ़ रहा है। भयानक तूफान आने लगे हैं। समुद्र का स्तर बढ़ रहा है।
अब लोग अपने परिवेश में इनमें से कुछ परिवर्तनों के प्रति अनुकूल हो सकते हैं, लेकिन कई मामलों में अनुकूलन संभव नहीं है। लोग आपदाओं में अपना जीवन गंवा देते हैं। तटबंध टूट जाते हैं। भूमि बंजर हो जाती है। निवास स्थान हमेशा के लिए बदल जाते हैं। पशुधन नष्ट हो जाते हैं। जलवायु परिवर्तन के सामाजिक और वित्तीय प्रभाव, जिन्हें टाला नहीं जा सकता है उन्हें “लॉस एंड डैमेज” कहा जाता है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से होने वाला लॉस एंड डैमेज, आर्थिक या गैर-आर्थिक दोनों हो सकते हैं। आर्थिक नुकसान में व्यवसायों को होने वाले वित्तीय नुकसान शामिल हैं। मसलन, भारत में भयानक हीट वेव के कारण गेहूं की पैदावार में कमी आई है। इससे कई किसानों की आजीविका प्रभावित हुई है।
इसके अलावा, इन प्रभावों से संपत्ति और बुनियादी ढांचे का भी भारी नुकसान हो सकता है। उदाहरण के लिए बाढ़ में घरों का बह जाना। यह स्थिति लगातार और गंभीर होती जा रही है।
गैर-आर्थिक लॉस एंड डैमेज में जान-माल के नुकसान के साथ ही सांस्कृतिक परंपराओं, इंडिजिनियस नॉलेज, जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र का नुकसान शामिल हो सकता है।
लॉस एंड डैमेज भारत और दक्षिण एशिया को कैसे प्रभावित करता है?
सेंटर फॉर रिसर्च ऑन द एपिडेमियोलॉजी ऑफ डिजास्टर्स ने इससे संबंधित कुछ आंकड़े जुटाए हैं। इन आंकड़ों के अनुसार, 2019 और 2023 के बीच, दक्षिण एशिया में मौसम संबंधी आपदाओं से 8.21 करोड़ लोग प्रभावित हुए। एशिया में 2022 में प्राकृतिक आपदाओं के कारण होने वाली अधिकांश मौतें दक्षिण एशिया में हुईं। उसी साल पाकिस्तान में एक भयानक और “अभूतपूर्व” बाढ़ आई। इस बाढ़ के कारण 3.3 करोड़ लोगों के प्रभावित होने का अनुमान है।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की कई रिपोर्टों में दक्षिण एशिया की पहचान एक ऐसे क्षेत्र के रूप में की गई है जो गंभीर मौसम संबधी स्थितियों के लिहाज से नाजुक है।
जैसे-जैसे जलवायु गर्म होती जाएगी, ऐसी आपदाएं अधिक बार आएंगी और इनकी तीव्रता भी बढ़ती जाएगी। इससे दक्षिण एशिया में भारी लॉस एंड डैमेज की आशंका है।
जलवायु परिवर्तन का आर्थिक और मानवीय प्रभाव बहुत ज्यादा होने की आशंका लगातार बनी हुई है। ऐसे में, दुनिया लॉस एंड डैमेज को किस तरह से मापती है और उसके लिए कितना भुगतान करती है, यह दक्षिण एशिया और सभी विकासशील देशों के भविष्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।
जीवन और आजीविका दांव पर होने के कारण, इस क्षेत्र के और दुनिया के अन्य जगहों के देश, वैश्विक स्तर पर लॉस एंड डैमेज को लेकर गंभीर चर्चा पर जोर दे रहे हैं। इसके पीछे उद्देश्य यह है कि इसकी रिकवरी के लिए सहयोग प्राप्त किया जा सके और भविष्य में आने वाले ऐसे संकटों से निपटने के लिए तैयारी हो सके।
जलवायु परिवर्तन से दक्षिण एशिया को कितना लॉस एंड डैमेज होगा?
अप्रैल 2024 में नेचर द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण दक्षिण एशिया को 2050 तक 22 फीसदी की औसत आय हानि का सामना करना पड़ेगा। और ऑस्ट्रेलिया के क्रॉफर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी के नेतृत्व में 2018 के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया था कि पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 3 डिग्री सेल्सियस अधिक वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण भारत की जीडीपी 2037 तक 2.1 फीसदी और फिर 2067 तक 5.5 फीसदी गिर जाएगी।
2022 तक, लगभग 65 फीसदी दक्षिण एशियाई लोग कृषि पर निर्भर थे और ग्रामीण क्षेत्रों में रहते थे। यह क्षेत्र दक्षिण एशिया के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 18 फीसदी और इसके कुल रोजगार का 42 फीसदी प्रतिनिधित्व करता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन से कृषि बुरी तरह प्रभावित होती है। यह फसल उत्पादन को प्रभावित करती है। बाजार की कीमतों को बढ़ाती है। इससे क्षेत्रीय खाद्य असुरक्षा बढ़ती है।
जलवायु प्रभावों पर 2022 की एक प्रमुख आईपीसीसी रिपोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि बाढ़, चक्रवात और हीटवेव के कारण होने वाली आर्थिक क्षति, साथ ही साथ कृषि उत्पादकता में गिरावट जैसे धीमी गति से चलने वाले संकट, दक्षिण एशिया को बुरी तरह प्रभावित करेंगे।
यह कहा जाना चाहिए कि दक्षिण एशिया पहले से ही चरम मौसम की घटनाओं से भारी नुकसान का सामना कर रहा है। एनजीओ जर्मनवॉच द्वारा किए गए एक अध्ययन ने 2019 में चरम मौसम से सबसे अधिक प्रभावित देशों में भारत को सातवें स्थान पर रखा। इसमें बताया गया कि उस वर्ष भारी बाढ़ से लगभग 10 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। आपदा में 1,800 लोगों की जान चली गई और लगभग 18 लाख लोग विस्थापित हुए।
हर साल, भारत और दक्षिण एशिया के अन्य देशों को भी उष्णकटिबंधीय चक्रवातों से भारी नुकसान होता है। हालांकि मौसम को लेकर चेतावनी देने वाली प्रणालियां काफी बेहतर हुई हैं और इससे जान गंवाने वालों की संख्या में भारी कमी आई है। फिर भी, घर और आजीविका के स्रोत हर तूफान के साथ हमेशा के लिए खत्म हो जाते हैं।
भारत और बांग्लादेश में 2020 में आए सुपर साइक्लोन अम्फान से अनुमानित 14 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। इससे भारत में 24 लाख और बांग्लादेश में 25 लाख लोग विस्थापित हुए। चार साल बाद, चक्रवात रेमल ने उसी क्षेत्र में भूस्खलन किया। कुल नुकसान की लागत लगभग 60 करोड़ डॉलर थी। इससे मत्स्य पालन, आवास, सड़कें और बहुत कुछ प्रभावित हुए।
जलवायु के गर्म होने के साथ-साथ, इस तरह की मौसम से संबंधित चरम घटनाएं और भी गंभीर व अनिश्चित होती जा रही हैं। इससे मौसम विज्ञानियों के लिए तूफान आने की स्थिति में समय पर चेतावनी जारी करना मुश्किल हो जाएगा।
2005 की कीमतों का इस्तेमाल करने वाले 2019 के एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से होने वाले लॉस एंड डैमेज से 2050 तक दक्षिण एशिया को 518 अरब डॉलर का नुकसान होने का अनुमान है।
2070 तक यह आंकड़ा बढ़कर 997 अरब डॉलर हो सकता है।
लॉस एंड डैमेज विवाद का मुद्दा क्यों है?
देयता और मुआवजे के मुद्दे के कारण अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ता में लॉस एंड डैमेज एक विवादास्पद मुद्दा बन गया है। औद्योगिक क्रांति के बाद विकसित देशों की तरफ से सबसे ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन किया गया। इसके लिए उनकी जवाबदेही होनी चाहिए। लेकिन ये देश किसी भी ऐसे अंतर्राष्ट्रीय समझौते को लेकर सतर्क रहे हैं जो उनके उत्सर्जन के कारण हुए लॉस एंड डैमेज के लिए भुगतान करने का रास्ता खोल सकता है।
सिद्धांत रूप में, इस तरह का एक समझौता 2023 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन यानी कॉप (जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के पक्षों का सम्मेलन) में एक वास्तविकता बन गया। दुबई में आयोजित, कॉप 28 में लॉस एंड डैमेज को लेकर एक फंड के संचालन और पूंजी इकट्ठा करने की बात को शामिल किया गया।
हालांकि, शुरुआती प्रतिज्ञाएं, विकासशील देशों द्वारा अनुभव किए गए कुल वार्षिक नुकसान का 0.2 फीसदी से भी कम थीं।
पेरिस समझौता लॉस एंड डैमेज के बारे में क्या कहता है?
2015 में कॉप 21 में हस्ताक्षरित पेरिस समझौते का अनुच्छेद 8, लॉस एंड डैमेज पर केंद्रित है। इसमें कहा गया है कि हस्ताक्षरकर्ता देश “जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से जुड़े लॉस एंड डैमेज को रोकने, कम करने और संबोधित करने के महत्व” को पहचानते हैं, और उन्हें समाधान लागू करने पर सहयोग बढ़ाना चाहिए।
पेरिस समझौते में लॉस एंड डैमेज पर समर्पित भाषा को शामिल करने से इसे एक औपचारिक मंच मिला। इसके लिए विकासशील देशों ने जोर दिया था। वहीं, जिस तरह से इसे तैयार किया गया था वह विकसित देशों की प्राथमिकताओं के अनुरूप था। पेरिस समझौते के साथ अपनाए गए निर्णय के पैराग्राफ 52 में कहा गया है: “समझौते का अनुच्छेद 8 किसी भी देयता या मुआवजे के लिए आधार प्रदान नहीं करता है।”
इसका मतलब है कि पेरिस समझौता, जलवायु परिवर्तन से जुड़े लॉस एंड डैमेज को संबोधित करने के लिए देशों पर कोई कानूनी रूप से बाध्यकारी दायित्व नहीं डालता है। साथ ही, लॉस एंड डैमेज का भारी सामना करने वाले देशों का सहयोग करने के लिए वित्तीय प्रतिबद्धताओं का कोई उल्लेख नहीं करता है।
लॉस एंड डैमेज में कितना धन खर्च होता है?
संयुक्त राष्ट्र पर्याप्त लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना की दिशा में आगे बढ़ रहा है। संवेदनशील देशों को मदद के लिहाज से किए गए कुछ स्वतंत्र प्रयास भी हुए हैं।
चिल्ड्रन्स इन्वेस्टमेंट फंड फाउंडेशन के नेतृत्व में परोपकारी संगठनों के एक समूह ने 2021 में लॉस एंड डैमेज वित्त सुविधा के लिए 30 लाख डॉलर की पेशकश की।
उसी वर्ष कॉप 26 में, बेल्जियम के वालोनिया क्षेत्र ने 10 लाख यूरो (11 लाख डॉलर) देने का वादा किया और मेजबान देश स्कॉटलैंड ने 20 लाख पाउंड (26 लाख डॉलर) देने का वादा किया।
हालांकि, ये आंकड़े अनुमानित लागतों की तुलना में बहुत कम हैं। 2019 की एक पुस्तक, लॉस एंड डैमेज फ्रॉम क्लाइमेट चेंज, का अनुमान है कि 2030 तक विकासशील देशों में लॉस एंड डैमेज को कवर करने के लिए सालाना 290-580 अरब डॉलर की आवश्यकता होगी।
(इस पुस्तक का सह-संपादन ऑस्ट्रिया में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एप्लाइड सिस्टम्स एनालिसिस और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स द्वारा किया गया था; लेखकों ने इस अनुमान के लिए 2005 की कीमतों का इस्तेमाल किया है।) इस अनुमान का दायरा व्यापक है क्योंकि यह उत्सर्जन में कई संभावित गिरावट वाले परिदृश्यों पर विचार करता है।
क्या पर्याप्त लॉस एंड डैमेज फंड बनने की संभावना है?
दुबई में कॉप 28 के दौरान, नए लॉस एंड डैमेज फंड के लिए विकसित देशों द्वारा लगभग 70 करोड़ डॉलर का वचन दिया गया था।
इसमें संयुक्त अरब अमीरात, जर्मनी, इटली, फ्रांस, जापान, कनाडा, डेनमार्क, आयरलैंड, स्लोवेनिया, यूरोपीय संघ और अमेरिका की तरफ से किए गए वादे की गई राशि शामिल थी।
यह आवश्यक अनुमानित राशि 400 अरब डॉलर का 1 फीसदी भी नहीं है, जिसकी विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले लॉस एंड डैमेज के लिए हर साल आवश्यकता होती है।
इस तरह की अपर्याप्त प्रगति के मद्देनजर, ग्लोबल साउथ के विशेषज्ञों ने अधिक महत्वाकांक्षा के लिए जोर देना शुरू कर दिया: नया सामूहिक परिमाणित लक्ष्य यानी न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल।
यदि भविष्य के जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों और वार्ताओं के दौरान यह प्रयास गति पकड़ता है, तो अनुदान और रियायती वित्त के रूप में यह विकासशील देशों को प्रति वर्ष कम से कम 1 ट्रिलियन डॉलर प्रदान कर सकता है।
पहली बार इस एक्सप्लेनर को जुलाई 2022 में प्रकाशित किया गया था। इसे हमने अपडेट किया है।