हर साल जनवरी में, बिहार के खगड़िया जिले के बेल्दौर और चौथम ब्लाक के मछुआरे स्थानीय स्तर पर एक अजीबोगरीब प्रथा के तहत कोसी एवं बागमती के संगम पर अपनी नाव का दान करते हैं। इसके लिए वे लगभग 60 नावों को एकत्र करते हैं, उन्हें नदी के किनारे से जोड़ते हुए एक सीधी पंक्ति में लगाते हैं एवं इस तरह वे एक अस्थायी पंटून सेतु का निर्माण करते हैं।
एक स्थानीय नाविक गोपाल के अनुसार, ये नावें अब खंभों का काम करेंगी और अब हम इस पर एक पुल का निर्माण करने जा रहे हैं। अपनी नई-नई इंजीनियरिंग की प्राप्त क्षमता को दिखाते हुए उसने कहा कि इन नावों को एक सीधी रेखा में रखना आवश्यक है अन्यथा भारी वाहन जो इस सेतु पर चलेंगे डूब सकते हैं। गांव के लोगों बांस के लट्ठों को नाव के ऊपर रस्सी से बांधकर पंटून सेतु का निर्माण एक पखवाड़े के अंदर ही कर लेते हैं।
स्थानीय गांव वालों ने नदी के भारी बहाव के कारण वर्ष 2011 के बाद प्रत्येक वर्ष पास में ही कंक्रीट से बना पुल, बीपी मंडल पुल और एक स्टील से बने पुल के बह जाने के बाद पुल बनाना शुरू कर दिया था जिसे स्थानीय भाषा में नौका पुल के नाम से भी जाना जाता है। इस पंटून पुल के कारण अब गांववालों को बिहार के सुपौल एवं मधेपुरा जिले के साथ-साथ नेपाल पहुंचने के लिए भी लगभग 150 किमी. के अतिरिक्त घुमावदार रास्ते से जाने की आवश्यकता नहीं होती है।
हालांकि रोजमर्रा के कामों के लिए छोटी बसें, कार, भीड़ से ठसाठस वैन एवं यहां तक की सरकारी वाहन इस नौका सेतु के माध्यम से नदी को पार करती हैं लेकिन यह पुल कितना भार सहन कर सकता है इससे संबंधित कोई भी वैज्ञानिक अध्ययन अब तक नहीं हुआ है। बेल्दौर के खण्ड विकास अधिकारी के अनुसार यह नौका पुल खतरनाक है और किसी भी समय गिर सकता है। जब दोनों नदियों में बाढ़ जैसी स्थिति होती है तो इस पुल को या तो हटा दिया जाता है या बन्द कर दिया जाता है। सिन्हा ने www.thethirdpole.net को बताया कि जनवरी से मई के बीच लगभग 10 लाख लोगों के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं होता है क्योंकि इस समय के दौरान यह नौका ही इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए परिवहन का एकमात्र साधन है।
सेतु एवं जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न गंभीर मौसम संबंधी परिस्थितियों के कारण बाढ़ एवं भारी मात्रा में नदी तट अपरदन के कारण कई पुल पानी के तेज बहाव में बह जाते हैं। यह उन स्थानीय लोगों के लिए एक बहुत बड़ी विपत्ति है जो उस क्षेत्र में संदेहपूर्ण सुरक्षा वाले पुलों को बनाकर परिस्थितियों पर काबू करने का प्रयास कर रहे हैं।
![पंटून पुल को पार करता हुआ एक सरकारी वाहन। पृष्ठभूमि में पानी के तेज बहाव में बहते हुए कंक्रीट के पुल को देखा जा सकता है। [image by Alok Gupta]](/wp-content/uploads/2016/07/DSC06017.jpg)
16 जुलाई, 2012 को नए पुल ने भी नदियों की तीव्र धारा के सामने अपना दम तोड़ दिया। इस पुल का 200 मीटर हिस्सा तेज पानी के बहाव में बह गया था। सरकार के इंजीनियरों ने रस्सियों एवं जंजीरों से पुल को वापस खींचने की काफी कोशिश की लेकिन अपने लगातार प्रयास के बाद भी वे इस पुल को वापस खींचने में सफल नहीं हो सके।
बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग, ख्रगड़िया डिवीजन के सुपरिटेंडेट इंजीनियर सत्येंद्र कुमार ने www.thethirdpole.net को बताया कि जहां स्टील के पुल की मरम्मत नहीं की जा सकती है, मंडल पुल की मरम्मत दोबारा की जा रही है। इस पुल की मरम्मत 2016 तक पूरी होने की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन कुमार के आकलन के अनुसार मरम्मत का काम अभी चल रहा है एवं इसे पूरा होने में अभी एक साल और लगेगा।
कई पुल खतरे में
बिहार में केवल ये दोनों ही पुल नहीं हैं जिन्हें नदियों के जलस्तर में वृद्धि एवं इनके बहाव के रास्ते में तीव्र बदलाव के कारण व्यापक नुकसान हुआ है। भागलपुर जिले में गंगा नदी पर बना 4.7 किमी. लंबा विक्रमशिला पुल जो कि भारत का तीसरा सबसे बड़ा पुल है-एवं पूर्णिया एवं कटिहार जिले को आपस में जोड़ता है, भी व्यापक नुकसान झेल रहा है। इसी क्षेत्र में, 1.8 किमी. कोसी महासेतु जिसका उद्घाटन 2012 में किया गया था, भी पुल के पूर्वी भाग में कमजोर होते हुए गाइड बांध के कारण अपने अस्तित्व पर खतरे का सामना कर रहा है। इसके कारण कम से कम पांच गांवों के डूबने का खतरा भी बना हुआ है। इस पुल का निर्माण मधुबनी एवं सुपौल जिलों के बीच यात्रा का समय लगभग पांच घंटों तक कम करने के लिए किया गया था। इन दोनों जिलों के बीच इसी प्रकार का पुल 1934 के भूकंप में नष्ट हो गया था। इसके बाद सरकार को इन दोंनों जिलों को आपस में जोड़ने के लिए 78 वर्ष का समय लग गया।
कोसी महासेतु के संबंध में हालात इतने गंभीर हैं कि इसको देखते हुए बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी को एक पत्र लिखकर राज्य सरकार द्वारा गाइड बांध को मजबूत बनाने में उसकी मदद करने की अपील की है। यादव ने अपने पत्र में इस बात का जिक्र किया है कि सेंट्रल वाटर एवं पावर रिसर्च स्टेशन ने कोसी महासेतु को नष्ट होने से बचाने के लिए पूर्वी ‘गाइड बांध’ की मरम्मत की सिफारिश की है।
विक्रमशिला सेतु के कमजोर होते हुए खंभों देखते हुए इसके अस्तित्व से संबंधित खतरे की घंटी भी बजने लगी है। इस संबंध में टीकामांझीं विश्वविद्यालय के सेवानिवृत इंजीनियरों ने नुकसानग्रस्त 15 एवं 16 नंबर खंभों का निरीक्षण किया। उनमें से एक इंजीनियर अशोक कुमार सिन्हा ने www.thethirdpole.net को बताया कि खंभा नंबर 15 एवं 16 जमीन में 15 एमएम तक धंस चुके हैं। खंभों के चारों तरफ वाली दीवार का एक बड़ा भाग पानी के बहाव में बह चुका है जिससे गंगा नदी के द्वारा किए गए मृदा अपरदन के कारण पुल के गिरने का खतरा बढ़ गया है।
विशेषज्ञ की सलाह
इस संबंध में बिहार सरकार ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, रुड़की के प्रोफेसर नयन शर्मा से बीपी मंडल सेतु एवं पास ही के स्टील पुल को बचाने संबंधी हल जानने के लिए सलाह मशविरा किया था। प्रोफेसर शर्मा ने कहा कि उन्होंने राज्य सरकार को दोनों पुलों पर नदियों के जल के अनियमित बहाव एवं जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले विपरीत प्रभाव के बारे में आगाह किया था। प्रोफेसर शर्मा ने कहा कि उन्होंने अपनी रिपोर्ट में राज्य सरकार को यह सलाह दी है कि वे तुरंत ही पुलों के खंभों को मजबूत करने का कार्य प्रारंभ करें क्योंकि कोसी एवं बागमती नदियों की मजबूत धाराएं पुल के खंभों को कमजोर कर रही हैं।
शर्मा ने गंगा नदी द्वारा विक्रमशिला में तीव्र मृदा अपरदन की समस्या पर भी विस्तृत अध्ययन किया था। उन्होंने अपने शोध पेपर में कहा है कि विक्रमशिला सेतु से 3.5 किमी धारा की दिशा में आगे एक बिन्दु पर 2003 से 2011 के बीच 1,100 मीटर का मृदा अपरदन हो चुका है। इस प्रकार का उच्चतम दर का मृदा अपरदन ऐसी संभावना बना देता है कि नदी पुल के खंभों को कमजोर बना दे। उन्होंने दोहराया कि इस संबंध में आगे विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता है।
उनकी रिपोर्ट के अनुसार मृदा अपरदन से भागलपुर का इंजीनियरिंग कॉलेज, बिहार एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी बिल्डिंग, नेशनल हाइवे 80, एवं फतेहपुर मस्जिद को भी खतरा उत्पन्न होने लगा है। ये सारे तथ्य 2011 में ही प्रकाश में आ गये थे। शर्मा ने आगाह किया कि वर्तमान में स्थिति बदतर हो चुकी है इसलिए राज्य को तुरंत ही मृदा अपरदन को रोकने के लिए कदम उठाने चाहिए।
नदी विशेषज्ञ मिश्रा कहते हैं कि नदी के बहाव को बुरी तरह प्रभावित करने के पीछे जलवायु परिवर्तन के अलावा बीपी मंडल एवं स्टील पुल की इंजीनियरिंग में भी दोष है। उन्होंने साफ किया, सबसे पहले, दो नदियों के संगम पर पुल का निर्माण अपने आप में खतरनाक होता है। दूसरे, इंजीनियरों ने बागमती नदी को कोसी नदी के ऊपर से बहाने का प्रयास किया था।
कृत्रिम संगम
उनके दावे के अनुसार कोसी-बागमती का संगम प्राकृतिक रूप से वहां स्थित नहीं था। इंजीनियरों ने कृत्रिम संगम का निर्माण किया था। चूंकि बागमती नदी ऊंचाई पर है एवं कोसी निचले स्तर पर है इसलिए बागमती को कोसी में समाहित हो जाना चाहिए था। इसका परिणाम यह हुआ कि कोसी के निचले भाग के नदी तल में गाद का जमाव शुरू हो गया था। इसके कारण दोनों ही नदियों में जल का बहाव तेज हो गया जिसके कारण पुलों के खंभों पर अतिरिक्त दबाब पड़ने लगा।
मिश्रा एवं शर्मा दोनों ही ये स्वीकार करते हैं कि नदी के ऊपर बना पुल परिवहन के लिए महत्वपूर्ण है। लेकिन किसी भी प्रकार के नुकसान एवं असुविधा से बचने के लिए जलवायु परिवर्तन एवं आपदा प्रबंधन जैसे कारकों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। शर्मा ने आगाह करते हुए कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि पुराने पुलों की मरम्मत कर उन्हें इस प्रकार तैयार करना चाहिए कि वे नदियों से उत्पन्न किसी भी असमय चुनौती का सामना कर सकें।
बिहार, मुख्यमंत्री पुल योजना के तहत जो 2.5 मिलियन रुपये तक के छोटे पुलों के लिए वित्त प्रदान करता है के लिए एक बड़ी संख्या में पुलों को निर्माण कर रहा है। इस योजना के तहत राज्य बड़ी संख्या में पुलों के निर्माण पर लगभग 191.5 बिलियन रुपये खर्च कर चुका है। इनमें अधिकतर पुल नदियों के ऊपर बने हुए हैं।
बिहार राज्य आपदा प्रबंधन के वाइस चेयरमैन अनिल कुमार सिन्हा स्वीकार करते हैं कि राज्य में नदियों पर बने पुराने पुलों के पास किसी आपदा का सामना करने के लिए कोई तैयारी नहीं है। वह कहते हैं कि हम इस बात को भी जानते हैं कि किस प्रकार कोसी एवं बागमती के संगम पर बने पुल असफल साबित हुए हैं।
सिन्हा कहते हैं कि वर्ष 2014 में राज्य के योजना एवं विकास विभाग ने आपदा प्रबंधन एवं जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए एक निर्देश के द्वारा प्रत्येक विभाग के लिए यह आवश्यक बना दिया कि प्रत्येक प्रकार के कामों में आपदा प्रबंधन के घटक को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है।