जलवायु

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए असम के किसान ले रहे परंपरागत तरीकों का सहारा

असम के किसानों को हर मानसून के मौसम में पहले की तुलना में और अधिक बाढ़ का सामना करना पड़ रहा है। इसे देखते हुए वे अब अपनी आजीविका को चलाने के अपने पूर्वजों की स्थानीय तकनीक की ओर रुख करते जा रहे हैं।
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<p>Women work in paddy fields in Assam after monsoon flood waters had abated. [image: Azera Rahman]</p>

Women work in paddy fields in Assam after monsoon flood waters had abated. [image: Azera Rahman]

सुभद्रा कुमारी को अपने धान के खेतों से बाढ़ का पानी निकलने और चावल के पौधों को रोपने के लिए कुछ हफ्तों तक का इंतजार करना पड़ा। उनके लिए हालांकि ये वक्त बहुत बेसब्र और परेशानी वाला रहा। असम के बिश्वनाथ चारियाली जिले के 35 वर्षीय एक किसान ने अपने खेत में काम करते हुए कहा, “बाढ़ के कारण पौधे लगाने में हम सही समय से पीछे चल रहे हैं। लेकिन तब भी हमारी फसल सही समय पर ही तैयार होगी। गांव के बड़ों ने इससे भी ज्यादा बारिश की भविष्यवाणी की है, लेकिन स्थानीय किस्म का यह चावल उसे भी सहन कर लेगा।”

चावल की यह स्थानीय किस्म बाओ स्वदेशी और गहरे पानी या तैरती हुई नदी में उपजने वाली प्रजाति है, जो बाढ़ से समय-समय पर आने वाले जलप्लावन हाइब्रिड किस्मों से अधिक देर तक ठहरती है। जलवायु परिवर्तन के कारण बाओ भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य असम की एक अन्य सामान्य विशेषता सूखे की परिस्थितियों में भी अधिक सहिष्णु है। अचानक और अनियमित मौसम परिवर्तन से जूझने पर किसानों की आजीविका खतरे में पड़ जाती है, इसलिए सुभद्रा जैसे किसानों ने अपने सदियों से चले आ रहे पूर्वजों के परंपरागत अर्थात स्वदेशी तकनीकी ज्ञान की ओर रुख किया है।

आज, कृषि के स्वदेशी तकनीकी ज्ञान का वैज्ञानिक तर्कों और बेहतर प्रयोग के लिए पूरे विश्व में अध्ययन व मूल्यांकन किया जा रहा है। असम में चावलों की पारंपरिक किस्मों की वापसी उन किसानों के लिए फायदेमंद साबित हुई है जो कई बाढ़ का सामना करते हैं और जिन्हें उतने ही प्रचंड सूखे जैसी परिस्थितियों को सामना पड़ता है। वर्तमान में मानसून में तीन से पांच बार बाढ़ का सामना करना पड़ता है जो सात से 15 दिन तक रहती है। जलवायु परिवर्तन के कारण इस हालात के और बदतर होने की आशंका है।

असम के जोरहाट स्थित क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केंद्र के प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. तौमिजुद्दीन अहमद कहते हैं, “चावल की परंपरागत किस्मों का फायदा यह है कि बाढ़ होने पर उन्हें सामान्य समय से थोड़े समय बाद भी लगाया जा सकता है और तब भी वे जलमग्न खेत का सामना कर लेते हैं।” चाय उत्पादकों ने भी परंपरागत ज्ञान की ओर वापसी की है। चाय, असम के सबसे अहम नकदी फसल है। इसकी खेती 2,00,000 हेक्टेयर से भी अधिक भूमि पर होती है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण एक नए प्रकार के कीटों की संख्या में इजाफा हुआ है और उनको रोकने के लिए रसायनों के प्रयोग में भी बढ़ोतरी हुई है।

अपने धान के खेत में काम करती सुभद्रा कुमारी [image: Azera Rahman]
गोबिन हजारिका, जो लखीमपुर जिले में दो एकड़ चाय बागान के मालिक हैं, कीटों को दूर करने के लिए पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर हैं। वह कहते हैं, “मैंने चाय की झाड़ियों के बीच में नीम के पेड़ लगाए हैं, जो कीटों को भगाने का प्राकृतिक तरीका है। कभी-कभी मैं तंबाकू के पत्ते भी जलाता हूं।” फलों और बेरी के पेड़ लगाना भी अबरार चौधरी, भारतीय चाय संघ की असम शाखा के अध्यक्ष और गुडरिक चाय उद्यान के वरिष्ठ प्रबंधक, के लिए सफल साबित हुआ। चौधरी कहते हैं, “पक्षी चाय की झाड़ियों से कीटों का शिकार करते हैं। हमने गेंदा जैसे चमकीले फूलों की भी लाइनें लगाई हैं, जो कीटों के प्राकृतिक शिकारियों को आकर्षित करती हैं। नतीजतन कीटनाशकों का प्रयोग काफी कम हो गया।”

चाय उत्पादकों ने कीट प्रबंधन के लिए चावल उत्पादकों के स्वदेशी तकनीकी ज्ञान का भी प्रयोग किया, जैसे कि झाड़ियों के पास एक टी आकार की छड़ी में खुदाई करना, जहां कीटों का शिकार करते समय पक्षी आराम कर सकते हैं। सेनितपुर जिले के तेजपुर गांव के एक किसान हिरेन गोहेन कहते हैं, “जब धान के तैयार होते हैं और कीड़े इनको खाने आते हैं, तब हम अधिकतर खेतों में बांस की छड़ें रख देते हैं।” कीटों को खत्म करने के अन्य परंपरागत तरीकों में पानी के साथ गाय के गोबर को मिलाकर इसका छिड़काव या धान के खेत में चकोतरा के टुकड़े डालना या आस-पास बतखों को पालना शामिल है।

बाढ़ की एक विश्वसनीय प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली की अनुपस्थिति में, प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने के लिए परंपरागत ज्ञान किसानों को बेहतर तैयार करने में मदद कर रहा है। सुभद्रा कहती हैं, “जब चीटियां ऊंचे स्थान पर चली जाती है, तो यह भारी बारिश को इंगित करता है और मानसून के दौरान भारी बारिश हमें बाढ़ की चेतावनी देते हैं।”

बाढ़ से सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में से एक धीमाजी में भी आपदाओं से निपटने के लिए परंपरागत ज्ञान का प्रयोग किया जा रहा है। जहां मानसून बाढ़ लाता है, वहीं सर्दियों में पीने के पानी के लिए निर्भर रहने वाले तालाब सूख जाते हैं। इससे निपटने के लिए, मछुआरों ने कम खाली इलाकों में ऊंचे तटबंधों के साथ उथले तालाबों का निर्माण किया है। इस निर्माण की लागत कम है, लेकिन यह बेहतर जल संग्रहण सुनिश्चित करती है। ऐसे क्षेत्र जहां रिसाव होता है, विशेषतर तौर पर वहां जहां बाढ़ के दौरान ज्यादा गंदगी जमा होती है, वहां तालाब के निचले हिस्से में गाय का गोबर और पानी को मिलाकर लगाया जाता है, जो सीलेंट के रूप में कार्य करता है। कटाव को कम करने के लिए तटबंध पर केले और सुपारी के वृक्ष भी लगाए जाते हैं।

ऊपरी असम के डिब्रूगढ़ के 61 वर्षीय किसान पुलिन बोराह कहते हैं, “हमारे पूर्वजों ने प्रकृति और उनकी कृतियों की गहरी समझ के आधार पर इन परंपरागत तरीकों को बनाया है। क्या ये अप्रासंगिक थे? क्या आपको लगता है कि लोग अभी भी उन पर भरोसा और इस्तेमाल करते रहेंगे? हमारी सबसे अच्छी शर्त यही है कि उनसे निपटने के लिए प्रकृति के तरीकों पर भरोसा करें।”