शत्रुघ्न राय का सबसे बडा डर पांच साल पहले तब हकीकत में बदल गया, जब बागमती नदी ने उनकी साधारण-सी झोपड़ी को जलप्लावित कर दिया था और उनकी सारी चीजें बहा ली थी। इनमें से सबसे अमूल्य चीज थी-उनकी बकरी। उन्होंने बदला लेने का निश्चय किया।
एक माह बाद, जब बाढ़ का पानी कम हुआ, तब उन्होंने अपना फावड़ा और टोकरी उठाई। उन्होंने नदी किनारे से मिट्टी खोदना और इसे अपनी जमीन पर डालना शुरू किया। राय ने अपनी जमीन को तटबंध के स्तर तक खड़ा करने का निश्चय किया।
तटबंध कम से कम 20 मीटर ऊंचा था। बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के औरई ब्लॉक के जोकी बुजुर्ग गांव के निवासियों को नहीं पता था कि राय के इस कदम पर कैसी प्रतिक्रिया दें। कुछ लोगों का मानना था कि वह भूतप्रेत के साये में आ गया है, कुछ लोग उन्हें पागल मानने लगे थे और कुछ लोग उनकी पूजा करने लगे थे।
उनके एक सहनिवासी मनोज यादव का कहना है कि राय सुबह से देर रात तक मिट्टी खोदते थे। “वह हमेशा भूरी मिट्टी में सने रहते थे। पांच वर्ष तक उन्होंने कोई त्यौहार नहीं मनाया और न ही गांव के किसी जन्म, मृत्यु और विवाह समारोह में हिस्सा लिया।”
जब राय ने यह शपथ ली थी, तब वह 40 वर्ष के थे। आज वे 45 वर्ष के हैं, अब तक उन्होंने अपनी जमीन लगभग 15 मीटर उठा ली है और एक साधारण-सी झोपड़ी दोबारा बना ली है। बकरियों का एक छोटा सा झुंड उनकी जमीन पर खुशी से रहता है।
राय ने thethirdpole.net को बताया कि उनका बदला बागमती, जिसे वो मां कहते थे, से नहीं था। वे कहते हैं, “प्रत्येक वर्ष इस नदी में बाढ़ आती है और यह अपने साथ ताजा मिट्टी भी लाती है, जो मेरे खेत को पुनः जीवंत कर देती है। मेरा बदला तटबंधन और विस्थापन के खिलाफ था।”
आज सभी लोग शत्रुघ्न राय को “तटबंध व्यक्ति” कहते हैं।
यह तटबंध, जो सैकड़ों गांवों के विस्थापन व बाढ़ और सीतामढी, दरभंगा से मुजफ्फरपुर जिले तक की कृषि भूमि को नष्ट करने के लिए जिम्मेदार है, बागमती परियोजना का हिस्सा है।
राय की तरह, इन जिलों के किसान भी बाढ़ जैसी कई बड़ी चुनौतियों का सामना करते हैं।
जंगली सुअर और मृग हमले
जंगली सुअरों के हमले के कारण और ई ब्लॉक के महेश्वर पंचायत के किसानों ने आलू, शकरकंद और मक्का की खेती करना छोड़ दिया है। नीलगायों, यह एक बडा स्थानीय मृग क्षेत्र है, जो अपनी भुक्खड़ प्रवृत्ति के लिए जाना जाता है, के हमलों से बचने के लिए गेहूं की खेती चैकस किसानों की पलटन की निगरानी में की जाती है।
राज मंगल राय का दावा है कि 2008 में तटबंधन के निर्माण के दौरान काफी मिट्टी निकटवर्ती वनों से लाई गई थी। बड़े पैमाने पर मिट्टी के उत्खनन ने मृगों और जंगली सुअरों के प्राकृतिक आवास को खत्म कर दिया था। उन्होंने कहा, “इन जंगली सुअरों, मृगों और तटबंधन ने क्षेत्र के पोषण और कृषि को नष्ट कर दिया है।”
ग्रामीण बताते हैं कि जंगली सुअरों को आधा एकड़ आलू की बुआई को बर्बाद में मुश्किल से एक घंटा का समय लगता है। और मृग लगभग दो घंटे के समय में मक्का और गेहूं की खेती को पूरी तरह से बर्बाद कर देते हैं।
एक अन्य किसान केश्वर राय कहते हैं, “हमारा खाना बदल गया है। हमारे बच्चे शकरकंद को नाश्ते की तरह खाते हैं। हम इसे आग पर भूनते हैं और उन्हें खाने के लिए दे देते हैं। आलू हमारी पंसदीदा सब्जी थी, जिसका बाजार मूल्य भी अच्छा मिलता था।”
जंगली सुअरों और मृगों के हमले की समस्या के निदान के लिए ग्रामीणों ने ओरई के बीडीओ से कई बार शिकायतें की हैं। लेकिन इसकी जवाबदेही के लिए एक भी सरकारी अधिकारी ने क्षेत्र का दौरा नहीं किया है।
बागमती परियोजना
इस परियोजना की संकल्पना 1954 में की गई थी और बागमती की बाढ़ को बांधने के लिए निर्माण कार्य 1956 में शुरू हुआ। परियोजना के प्रथम चरण में हयाघाट से बदलाघाट मे तटबंध का निर्माण करना था।
शुरुआत में इस परियोजना को स्थानीय लोगों से काफी सहयोग मिला।
नदी विशेषज्ञ दिनेश मिश्रा उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि लोग कोशी तटबंध के पूरे होने से उत्प्रेरित थे। “सरकार लोगों को प्रेरित कर रही थी कि कोशी तटबंध के जैसे बागमती परियोजना से बाढ़ की समस्या सुलझ जाएगी।”
कोशी और बागमती दोनों नेपाल से निकलती हैं।
परियोजना का दूसरा चरण 1970 में शुरू हुआ था। यह ढेंग से सीतामढी के रूनी सैदपुर तक की बागमती की ऊपरी पहुंच पर केंद्रित था। लगभग 55 किलोमीटर की लंबाई का तटबंध का निर्माण किया गया था। इससे नदी और तटबंध के बीच में 95 गांवों के 15,000 परिवार फंसे।
मानसून के महीनों में ये गांव लगभग पूरी तरह से डूब गए थे। ग्रामीणों को लगभग तीन महीनों के लिए तटबंध पर रहने के लिए मजबूर किया था और उनके खेत बर्बाद हो गए थे। इससे परियोजना के लिए लोगों का समर्थन खत्म हो गया और इसकी जगह आक्रोश पैदा हो गया।
स्थानीय लोगों के प्रतिरोध के बीच, इन तटबंधों का निर्माण आपातकाल 1978-77, जब भारत-नेपाल सीमा के निकट ढेंग से रूनी सैदपुर लगभग 85 किलोमीटर की दूरी तक नागरिक स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई थी, के दौरान हुआ था।
मुख्य रूप से धन की कमी और परियोजना की बढ़ती लागत के कारण 1980 के बाद निर्माण कार्य अचानक बंद कर दिया गया। मूलरूप से ऊपरी पहुंच में तटबंधों के निर्माण की लागत लगभग 31.7 मिलियन रुपया (496,000 अमेरिकी डाॅलर) अनुमानित की गई थी। यह अनुमान 27 वर्षों में 20 गुना बढ़कर 1969, 1973, 1974, 1976, 1980 और 1981 में क्रमशः 65.4 मिलियन भारतीय रुपया (एक मिलियन अमेरिकी डॉलर), 225.5 मिलियन भारतीय रुपया (3.5 मिलियन अमेरिकी डॉलर), 267.2 मिलियन भारतीय रुपया (4.17 मिलियन अमेरिकी डॉलर), 362 मिलियन भारतीय रुपया (5.65 मिलियन अमेरिकी डॉलर), 518.8 मिलियन भारतीय रुपया (8.1 मिलियन अमेरिकी डॉलर) और 604.8 मिलियन भारतीय रुपया (9.44 मिलियन अमेरिकी डॉलर) हो गया है।
जब परियोजना की लागत बढ़ती जा रही है, सरकार ने 1969 सिंचाई परियोजना और 1984 में बागमती बहु-उद्देश्यीय परियोजना को जोड़ दिया। परियोजनाओं के अभिलेखागार के अनुसार, नेपाल के साथ बढ़ते तनाव के कारण सिंचाई परियोजना को खत्म कर दिया गया था, लेकिन तटबंधन परियोजना को जारी रखा गया। परियोजना का तीसरा चरण रूनी सैदपुर और सोरमार हाट के बीच के तटबंध को पूरा करने के लिए 2006 में शुरू किया गया।
दिनेश मिश्रा ने अपनी किताब बागमती की सद्गति में लिखा है कि “रूनी सैदपुर और हयाघाट के बीच की 90 किलोमीटर की दूरी को सभी समय अस्थिर बताया गया है और 1950 और 1970 के दशक में क्रमशः निचले व ऊपरी सतह पर तटबंध के बावजूद इसे नदी के बाहर निकलने के लिए खुला छोड़ दिया गया था। नतीजतन, औरई, कटरा और गईघाट ब्लॉक्स से होकर गुजरने वाली मध्य तट से बागमती से निर्गत होने वाले बाढ़ के पानी के हमले से जीवन और संपत्ति का भारी नुकसान होता है।”
यह “तटबंध व्यक्ति” शत्रुघ्न राय के जोकी बुजुर्ग के गांव मध्य खंड में स्थित है, जहां शुरूआत में तटबंध नहीं बनाया गया था। अब वे नदी के पूरे खंड में मौजूदा तटबंध को लगभग 79 बिलियन भारतीय रुपया की लागत में मजबूत करने और बढाने रहे हैं।
मिश्रा ने बताया कि पिछले सात दशकों में बागमती का मार्ग तीन बार बदला है। “वर्तमान में, बागमती नदी तटबंधों के बीच में बहती है लेकिन यह कोई नहीं बता सकता कि जब नदी अपना मार्ग बदलेगी, तब क्या होगा।”
उन्होंने कहा कि विस्थापन की लागत और बेकार अवधारणाओं ने बागमती परियोजना को पूरी तरह से व्यर्थ बना दिया है।
विस्थापन और विरोध
मुजफ्फरपुर जिले के औरई, कटरा और गईघाट के तटबंधन के कारण विस्थापित 6,565 परिवार पिछले दो दशकों से पुर्नवास और मुआवजे का इंतजार कर रहे हैं।
गांवों के विस्थापित परिवारों की पुर्नवास की स्थिति पर रिपोर्ट में मुजफ्फरपुर के भूमि अधिग्रहण अधिकारी ने कहा है कि 329 एकड़ भूमि की अभी और आवश्यकता है। कटरा ब्लॉक विस्थापन से सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्र है। यहां पिछले दशक में 17 गांवों के 3,712 परिवार विस्थापित हुए हैं। गईघाट ब्लॉक के 1,412 परिवार और औरई ब्लॉक के 1,452 परिवार विस्थापित हुए हैं। केवल तीन क्षेत्र – उत्तरी बेनीपुर, दक्षिणी बेनीपुर और जीवाजोग, के लोग पुर्नस्थापित हुए हैं।
बागमती परियोजना की पूरी समीक्षा और विस्थापित परिवारों के उचित मुआवजे के मांग के लिए विस्थापित परिवारों ने “चासबास जीवन बचाओ बागमती संघर्ष समिति” का गठन किया है।
संगठन के संयोजक जितेंद्र यादव का दावा है कि 1960 के दशक में बनाई बागमती परियोजना की वर्तमान समय में कोई प्रासंगिकता नहीं है। वह कहते हैं, “छह दशकों में बहुत कुछ बदल गया है। परियोजना के क्षेत्र में गांवों और आबादी की संख्या तिगुनी हो गई है।”
वह एक नक्शा दिखाते हुए बताते हैं कि इस परियोजना से तीन किलोमीटर उत्तर-पश्चिम कॉरिडोर हाईवे और मुजफ्फरपुर से दरभंगा जिले तक 34 पुल प्रभावित होंगे। उनका कहना यह भी है कि तटबंधों से अद्वारा समूह जैसी सहायक नदियां खत्म हो जाएंगी और कृषि को भी बर्बाद कर देगी।
इस संगठन ने अपनी मांग को मनवाने के लिए भूख हड़ताल, सड़क जाम, पैदल यात्रा और यहां तक कि नदी के बीच में खड़े होने तक की कोशिश तक की है। उनकी मांग है कि बागमती परियोजना के व्यवहारिक उपयोग की समीक्षा के लिए नदी और कृषि विशेषज्ञों की एक समिति बनाई जाए। इसके साथ ही वे परियोजना से विस्थापित हुए परिवारों के लिए उचित मुआवजे की मांग कर रहे हैं।
लेकिन अभी बिहार में बाढ़ के जैसे हालात हैं उससे यह अस्पष्ट है कि कोई सुन भी रहा है। और ऐसी स्थिति में जो एकमात्र व्यक्ति सुरक्षित है- वह है शत्रुघ्न राय, जिसने सरकार से बदला लेने के लिए स्वयं का तटबंध खुद बनाया है।