भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य असम की राजधानी गुवाहाटी से 103 किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव है- भूरागांव। यहां रहने वाली सबिता बिस्वास अपने पोते-पोतियों को लेकर बेहद चिंतित हैं। 70 साल की बूढ़ी महिला सबिता ने अपनी जमीन के मालिकाना हक वाले कागजात जमा कराए थे, जिनमें उनके पति और ससुर के नाम दर्ज हैं, लेकिन उनका दावा खारिज हो गया है क्योंकि अब वह जमीन वहां मौजूद ही नहीं है। सबिता का दुर्भाग्य ये है कि ब्रह्मपुत्र नदी के भयानक बहाव ने उनकी जमीन का अस्तित्व खत्म दिया।
इस विधवा ने अपने दोनों बेटे भी खो दिये हैं। अभी वह भूरागांव में घरेलू नौकरानी का काम करके अपना जीवन चला रही हैं। वह उन वंचितों में हैं जिनके पास न तो योग्यता है और न ही पैसा, जिससे वह अपने मामले की पैरवी कर सकें।
उनके परिवार में रोजी-रोटी चलाने वाली उनकी बहू हैं जो घरेलू नौकरानी का काम करती हैं। सबिता बिस्वास अब घर-घर जाकर अपने पोते-पोतियों के लिए मदद मांग रही हैं।
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) के तहत असम में वैध नागरिकता संबंधी दस्तावेजों की जांच-पड़ताल की जाती है। इसका एक लंबा इतिहास है। करीब 6 वर्षों तक प्रवासी-विरोधी तमाम विरोध-प्रदर्शनों, आंदोलनों के बाद 1985 में असम समझौता अस्तित्व में आया। इसके मुख्य बिंदुओं में एक ये भी रखा गया कि 25 मार्च, 1971 या उसके बाद राज्य में प्रवेश करने वाले लोगों की पहचान की जाएगी, उनको मताधिकार से वंचित किया जाएगा और उनको निष्कासित किया जाएगा।
दस्तावेजीकरण की इस प्रक्रिया के लिए एनआरसी के तहत कई फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स बनाये गये हैं। इन ट्रिब्यूनल्स के जज उन दस्तावेजों की जांच-पड़ताल करते हैं जो व्यक्ति की पहचान, उसके माता-पिता की पहचान और तय की गई तारीख से पहले असम में निवास को साबित करने के लिए जमा कराये जाते हैं।
जब एनआरसी की सितंबर में फाइनल लिस्ट आई जिसमें 3.3 करोड़ लोगों के दस्तावेजों की पड़ताल की गई और पाया गया कि करीब 19 लाख लोगों के पास जरूरी दस्तावेज नहीं थे। हालांकि 120 दिन के भीतर अपील का वैधानिक प्रावधान है लेकिन ये एक कठिन प्रक्रिया है। भारत ने बांग्लादेश (माना जाता है कि लोग अवैध रूप से बांग्लादेश से भारत में आए हैं) को आश्वासन दिया है कि इस प्रक्रिया का बांग्लादेश पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इस आश्वासन का मतलब ये है कि ऐसे लोगों का निर्वासन बांग्लादेश नहीं किया जाएगा। जिन लोगों के पास वैध नागरिकता संबंधी दस्तावेज नहीं हैं, उन लोगों के लिए डिटेंशन कैंप बनाये जा रहे हैं। इनमें से कुछ डिटेंशन सेंटर तो उन्हीं गरीब लोगों द्वारा बनाया जा रहा है जिनको भविष्य में वहीं रहना पड़ सकता है।
ये एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से बिस्वास अपने पोते-पोतियों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं लेकिन उनको यह नहीं पता है कि अब वह क्या करें। बिस्वास कहती हैं कि उन्होंने अपने ससुर के नाम वाले दस्तावेज जमा कराये थे लेकिन एनआरसी ने उसे स्वीकार नहीं किया जबकि उन्होंने उस जमीन के टैक्स भी जमा कराये थे जो जमीन अब पानी में डूब चुकी है।
असम सरकार ने 2017 में ये फैसला लिया कि अब उन जमीनों का टैक्स नहीं लिया जाएगा जिनका अस्तित्व कटाव के कारण खत्म हो चुका है। इसलिए, अधिकारियों ने बिस्वास को बताया कि जमीन से संबंधित रिकॉर्ड कटाव के कारण नष्ट हो चुका है, इससे कुछ साबित नहीं किया जा सकता। भारतीय कानूनों के मुताबिक स्थानीय राजस्व विभाग की जिम्मेदारी है कि वह निवास स्थानों संबंधित भूमि, कृषि भूमि, खाली जमीन, बेकार पड़ी जमीन, सरकारी जमीन, औद्योगिक विकास के लिए चिह्नित जमीनों का रिकॉर्ड मेनटेन करे।
एनआरसी में व्यक्ति को 1971 से पहले के जमीन के मालिकाना हक संबंधी दस्तावेज प्रस्तुत करने होते हैं जिनमें उनके पूर्वजों के नाम पर जमीन होने की बात सिद्ध होती हो। इस तरह से ये पुराने दस्तावेज नागरिकता साबित करने के आधार बनते हैं। अगर ये दस्तावेज गायब हो जाएं या कोई छोटी गलती हो जाए या अगर जमीन अपने आप किसी वजह से अस्तित्व में न रह जाए तो इसका बहुत विपरीत असर पड़ सकता है।
आंखों में आंसू लिये बिस्वास कहती हैं कि नदी के कटान में हमने अपनी जमीन खो दी। पहले हम अरकाती चार (ब्रह्मपुत्र का एक नदीय द्वीप) पर थे। जब हमारा गांव पानी के नीचे आ गया तब हम भूरागांव आ गये। बाढ़ हर साल हमारा सब कुछ बहा ले जाती है जिसमें दस्तावेज भी शामिल हैं।
असम के अंदर हजारों जलवायु शरणार्थी विस्थापित हुए
असम में बाढ़ और कटाव की वजह से हजारों परिवार बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं। वैसे तो इस तरह के हादसे सैकड़ों वर्षों से होते आए हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ और कटाव के मामलों में इजाफा हुआ है। इसलिए अब ज्यादा जलवायु शरणार्थी हैं। बाढ़ और कटाव के मामलों में इजाफे के चलते बहुत सारे लोगों को जलवायु शरणार्थी बनकर दूसरे इलाकों में पलायन करना पड़ता है लेकिन ऐसे लोगों को घुसपैठिये, खासकर विदेशी घुसपैठिये के रूप में देखा जाता है।
स्थानीय ग्राम सभा के चुने गये एक सदस्य फोतिक चंद्र मंडल कहते हैं, भूरागांव क्षेत्र के आसपास करीब 40 गांव कटान में अपना अस्तित्व गंवा चुके हैं। जब पूरी दुनिया तकनीक के साथ आगे बढ़ रही है, हम पीछे होते जा रहे हैं, अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। ऐसा हमारी भौगोलिक स्थिति के कारण हो रहा है। कटाव की वजह से हम स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा, परिवहन जैसी सुविधाओं से वंचित हो रहे हैं और अब एनआरसी (जिसमें हमें अपनी पहचान साबित करनी पड़ रही है) की मार हम पर पड़ रही है।
भारत के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, देश का 10 फीसदी हिस्सा बाढ़ के लिहाज से संवेदनशील है। असम में ये आंकड़ा करीब 40 फीसदी है जो कि 931,000 हेक्टेयर के आसपास है।
असम के आपदा प्रबंधन मंत्री के मुताबिक, भारी कटान की वजह से समस्या ज्यादा बढ़ गई है। हर साल औसतन 8,000 हेक्टेयर की कटान हो जाती है। 1950 से लेकर अब तक 427,000 हेक्टेयर जमीन कटान में खत्म हो चुकी है। उनका ये भी कहना है कि 2010 से 2015 के बीच कटाव के चलते 880 गांव पूरी तरह से खत्म हो चुके हैं, 67 गांवों को आंशिक नुकसान हुआ है और 36,981 परिवार अपना घर गंवा चुके हैं।
जमीन अस्तित्व में न रहने और बढ़ती जनसंख्या के कारण बची हुई जमीनों पर दबाव बहुत भयानक तरीके से बढ़ा है। कटान की वजह से जमीन खत्म होने के चलते राज्य के भीतर विस्थापित होने वाले हों या अवैध अप्रवासी, सबको संदेह की नजर से देखा जाता है। राज्य में लोग कृषि पर बहुत ज्यादा निर्भर हैं, ऐसे में जिनकी जमीनें कटाव की वजह से खत्म हो जाती हैं, उनके पास जीविका के बहुत कम साधन बचते हैं। आर्थिक निराशा की वजह से असम बच्चों और महिलाओं की तस्करी का अड्डा बनता जा रहा है। इनमें से भी लोग हैं जो अपनी नागरिकता साबित करने के लिए बहुत भयंकर तरीके से प्रयास कर रहे हैं।
ट्रिब्यूनल्स में लोगों को अपने मामले लड़ने के लिए मदद करने वाले एक वकील अमन वदूद कहते हैं, जमीन खोने की वजह से अगर असम के भीतर कोई परिवार विस्थापित होता है तो उसे विदेशियों की नजर से देखा जाता है। ट्रिब्यूनल्स ने ऐसे लोगों को विदेशी घोषित कर दिया क्योंकि वे विभिन्न गांवों के दस्तावेजों पर भरोसा नहीं करते हैं। कई मामलों में ट्रिब्यूनल्स ने पाया कि समान नाम होने के बावजूद लोग अलग-अलग हैं। कुछ दस्तावेज एक इलाके के हैं जबकि कुछ अन्य दस्तावेज किसी अन्य इलाके के हैं।
अविश्वास का माहौल
इस हालात ने मुख्य भूभाग पर रहने वालों और नदीय द्वीपों या ब्रह्मपुत्र के किनारे रहने वालों के बीच अविश्वास पैदा कर दिया है। ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत से निकलती है और बांग्लादेश में प्रवेश से पहले असम वैली से दाहिने की तरफ बहती है। ज्यादातर मामलों में बांग्लाभाषी गरीब लोग, जो कि नदीय द्वीपों या नदी के किनारे वाले हिस्सों में रहते आए हैं, आसानी से बांग्लादेशी या अवैध अप्रवासी के तौर पर निशाना बन रहे हैं।
इस इलाके में एक एक्टिविस्ट, ऑल असम बंगाली परिषद के प्रेसीडेंट सांतनु सन्याल ने thethirdpole.net को बताया कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान अचानक जलवायु परिवर्तन और बाढ़ (जो कि बिना किसी चेतावनी के आती है) ने नदीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है।
गर्म मौसम के कारण (जिसमें तापमान बढ़ जाता है) लोग कृषि योग्य भूमि पर लगातार काम नहीं कर सकते। ऐसे लोग गरीब से बहुत गरीब की श्रेणी में आ गये हैं और जब उनके पास कुछ नहीं बचा है, उनके नाम भी एनआरसी में नहीं हैं। फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स में केस लड़ने के लिए पैसे की भी जरूरत है। लेकिन ऐसे लोगों के लिए केवल यही एक रास्ता बचा है।
ऐसी ही दुखद कहानियां 58 वर्षीय सरबत अली के गांव में हैं। सरबत और उनका परिवार असम के गोरोइमारी में रहता है जो गुवाहाटी से 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। ये लोग बेहद चिंतित हैं। ये लोग असम के नलबाड़ी जिले के बेलभेली गांव से यहां रहने आए हैं। ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे असम सरकार की तरफ से बनाये गये पुश्ते पर ये लोग पिछले 12 साल से रह रहे हैं।
अब अली को वैध नागरिक माने जाने से मना किया जा रहा है क्योंकि जब वे नलबाड़ी छोड़कर यहां आए तो उनके पिता का कागजों में अंसार अली की जगह कोटा अली लिखा हुआ था। अब ये परिवार कह रहा है कि इस वजह से वे अपने संबंध नहीं साबित कर पा रहे हैं। सरबत अली के पिता कहते हैं कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर बसने की वजह से ये समस्याएं खड़ी हुई हैं। मेरा नाम गलत दर्ज हो जाने की वजह से मेरे परिवार के 12 लोगों को अब वैध नागरिक नहीं माना जा रहा है। हम लोग बाढ़ से प्रभावित रहे हैं। हमारा सब कुछ बह गया। हमारे पास तो जमीन भी अब नहीं है। फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में केस लड़ने के लिए वकील को देने के लिए हम फीस कहां से लाएं?
इसी तरह के हालात मजीदा बेगम के भी हैं। मजीदा बेगम और उनके पति कुद्दूस अली असम के कामरूप इलाके में सरकार की तरफ से दी गई जमीन पर रह रहे हैं। उनकी जमीन गोरोयमारी सर्किल में चंपूपारा गांव में थी जो बाढ़ में खत्म हो गई। मजीदा बेगम कहती हैं कि उन्होंने अपनी पुरानी जमीन के कागजात जमा करवाए जिनमें उनके पति और बेटे का नाम दर्ज है, लेकिन इससे कोई मदद नहीं मिली। मेरे पति दिहाड़ी मजदूरी करते हैं। हमारे पास ट्रिब्यूनल में जाने के पैसे नहीं हैं।
आसानी से निशाना बन रहे हैं जलवायु शरणार्थी
वदूद कहते हैं कि बाढ़ की वजह से बहुत सारे लोगों की जमीनें बह गईं। उनके घर तबाह हो गये। ऐसे लोग रोजी-रोटी के लिए असम के भीतर से एक जगह से दूसरी जगह विस्थापित हो गये। ऐसे ही लोगों को अब आसानी से निशाना बनाया जा रहा है और उनको मुख्य संदिग्ध माना जा रहा है। ऐसे लोगों के बारे में धारणा बन गई है कि ये लोग अवैध रूप से असम में घुसपैठ कर गये हैं। असम में अवैध रूप से घुसपैठ के मुद्दे के बीच क्लाइमेट चेंज, जमीनों के बह जाने, भयानक बाढ़ की वजह से होने वाले विस्थापन की बात को तवज्जो नहीं मिल पा रही है।