इन्हें जलदास (जल के सेवक) कहा जाता है। मेघना नदी के मुहाने और चटगाँव और कॉक्स बाज़ार के तटों के किनारे रहने वाले इन वंशानुगत मछुआरों- यह दलित समुदाय अब जलवायु परिवर्तन के सबसे भयावह प्रभावों में से एक का सामना करता है – के घरों को बंगाल की खाड़ी की लगभग हर उच्च ज्वार निगल जाती है।
बांग्लादेश में सबसे पुराना मछली पकड़ने वाला यह समुदाय, लगभग 6 लाख जलदास, अत्यधिक गरीबी, पेयजल की गंभीर कमी, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, औपचारिक बैंकिंग सुविधाओं और अब आजीविका के संकट से जूझ रहे हैं।
ये बांग्लादेश सरकार द्वारा मछली पकड़ने पर प्रतिबंध लगाने से आए दिन प्रभावित होते हैं जब स्टॉक बढ़ाने के लिए सरकार प्रतिबंध लगा देती है। इसके अलावा ये गंगा – ब्रह्मपुत्र – मेघना डेल्टा में बांधों और बैराजों के ऊपर से बहने वाली विभिन्न नदियों और नालों के सूखने से भी प्रभावित होते हैं। पिछले दो दशकों या उससे अधिक के दौरान, इन्हें बढ़ती लवणता से निपटना पड़ा है जो उनके ताजे जल स्रोतों, प्रदूषण और समुद्र के स्तर में वृद्धि को प्रभावित करते हैं।
मछली पकड़ने की दक्षता और प्रबंधन में सुधार के लिए जलदासों को तकनीकी या ऋण सहायता देने वाला शायद ही कोई सरकारी या गैर-सरकारी संगठन हो। नॉर्थ चट्टाला कोस्टल फिशरमैन जलदास कॉपरेटिव वेलफेयर फेडरेशन के अध्यक्ष लिटन जलदास ने कहा, “यह अच्छा नहीं है। हम मछली पकड़ते हैं, लेकिन हमें रोज़ भोजन नहीं मिलता है। हमें जीवित रहना है, लेकिन यह कठिन है।”
जलदास समुदाय शायद ही कोई सदस्य किसी भूमि का मालिक हो, इसलिए खेती या मछलीपालन उनके लिए विकल्प नहीं है। वे मछली पकड़ने के उसी जाल का उपयोग करते हैं जो उनके पूर्वजों ने किया था। वैसे तो, बड़े नेट्स टिकाऊ होते हैं लेकिन इनमें से मछलियों के बच्चे बाहर निकल जाते हैं। इन मछुआरों के पास आधुनिक तकनीक वाले नेट्स नहीं हैं जो मछलियों के बच्चों को भी पकड़ने में उपयोगी हैं, जिनको या तो बाकी मछलियों से अलग करके निकाल दिया जाता है या फिर मछलियों का भोजन तैयार करने वाले कारखानों में बेच दिया जाता है।
बहुत तेजी से, जलदास युवाओं को उनकी पारंपरिक आजीविका से दूर किया जा रहा है और वे शहरी क्षेत्रों में रिक्शा चालकों या अकुशल मजदूरों के रूप में तब्दील हो रहे हैं। इनमें चटगांव और यहां तक कि बांग्लादेश की राजधानी ढाका जैसे शहर शामिल हैं जो समुद्र तट से लगभग 250 किलोमीटर अंदर स्थित हैं।