जलवायु

भारत में श्रमिकों को गर्मी से कोई राहत नहीं है

जब गर्मी से निपटने की बात आती है तो इंडियन रेगुलेटरी कोड्स की स्थिति ज्यादातर सलाह देने वाली ही है और इसमें भी ह्यूमिडिटी वाले पक्ष को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस वजह से, मानसून और हीटवेव के दौरान लाखों लोगों का स्वास्थ्य और जीवन खतरे में नजर आ रहा है।
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<p>उत्तर प्रदेश के कन्नौज में एक इत्र कारखाने के अंदर, भट्टी की गर्मी से दूर, श्रमिक दोपहर के भोजन के समय आराम कर रहे हैं। (फोटो: तेज प्रकाश भारद्वाज)</p>

उत्तर प्रदेश के कन्नौज में एक इत्र कारखाने के अंदर, भट्टी की गर्मी से दूर, श्रमिक दोपहर के भोजन के समय आराम कर रहे हैं। (फोटो: तेज प्रकाश भारद्वाज)

जून में, जब भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने ‘गंभीर गर्मी के हालात‘ की चेतावनी दी, तो साठ वर्षीय मोहम्मद जफर के लिए यह आग में घी डालने जैसी स्थिति हो गई। 

कारीगर जफर परफ्यूम बनाते हैं और उनका अनुभव तीन दशक का है। वह ‘डेग’ नामक बड़े धातु के बर्तनों को गर्म कर रहे थे जिनका उपयोग शमामा इत्र बनाने में किया जाता है। यह भारत की परफ्यूम कैपिटल कन्नौज शहर में बनाया जाने वाला एक दुर्लभ, पारंपरिक इत्र है। बाहर का तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने के बावजूद, पसीने से लथपथ जफर को अपना ध्यान अपने काम पर बनाए रखना होता है। 

सुगंध बनाने की प्रक्रिया में एक सरल आसवन विधि यानी डिस्टिलेशन शामिल है। एक छोटी भट्टी पर उबालने के लिए एक धातु के बर्तन में सामग्री डाली जाती है, जहां से भाप एक लकड़ी के पाइप के माध्यम से दूसरे बर्तन या रिसीवर तक जाती है, जिसे भाप को संघनित करने के लिए पानी में रखा जाता है। कारीगरों को एक साथ गर्मी को नियंत्रित करना और गर्म रिसीवर को समायोजित करना होता है। इस प्रक्रिया में भट्टी के करीब काम करना और खुद को खतरनाक स्तर की गर्मी के चपेट में लाना ही होता है। 

गर्मियों में यहां काम करना विशेष रूप से कठिन होता है। पूरा इलाका धुएं और काली कालिख से भरा होता है। 
मोहम्मद जफर, इत्र बनाने के मुख्य कारीगर 

पारंपरिक डेग-भापका विधि का विवरण देते हुए जफर बताते हैं, “हमारे काम के लिए हमें इन डेगों पर नजर रखनी पड़ती है ताकि गर्मी को नियंत्रित रखा जा सके। अगर इसे ज्यादा गर्मी की जरूरत होती है, तो हम भट्टी में लकड़ी डालते हैं। एक बार जब भाप रिसीवर पॉट या भापका में इकट्ठा हो जाती है, तो उसके आस-पास का पानी बहुत ज्यादा गर्म हो जाता है। और यही वह समय होता है जब हमें इसे (रिसीवर को) अपने नंगे हाथों से एडजस्ट करना पड़ता है।” 

जफर बिना किसी सुरक्षात्मक गियर के भट्टी के बहुत नजदीक 10 घंटे तक काम करते हैं, सिर्फ ढीले शॉर्ट्स और बनियान पहनते हैं ताकि पसीना जल्दी सूख जाए। गर्म रिसीवर बदलते समय भी, उनकी एकमात्र सुरक्षा एक नम सूती कपड़ा है। भट्टी से निकलने वाली गर्मी ही एकमात्र खतरा नहीं है। जफर एक बंद जगह में काम करते हैं जिसके बीच में एक बड़ा टिन से ढका हुआ परिसर है जिसमें 20 ऐसी डेग और भट्टियां हैं।

वह कहते हैं, “गर्मियों में यहां काम करना बहुत मुश्किल होता है। पूरा इलाका धुएं और काली कालिख से भरा होता है। दूसरे लोग यहां 10 मिनट भी खड़े नहीं रह सकते।” उन्होंने यह भी कहा, “हमें अब इस गर्मी और धुएं की आदत हो गई है। लेकिन हां, इस काम के लिए सर्दियां अधिक बेहतर हैं।”

बदलती जलवायु में स्वास्थ्य और सुरक्षा को लेकर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की नवीनतम वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार, “विभिन्न क्षेत्रों के श्रमिक इन खतरों के लिहाज से नाजुक स्थिति में हैं। हालांकि इनमें से कुछ श्रमिक, जैसे कि कृषि श्रमिक और गर्म जलवायु में भारी श्रम करने वाले अन्य बाहरी श्रमिक, विशेष रूप से जोखिम में हो सकते हैं।” 

भारत में श्रम संबंधी स्थितियों के कारण गर्मी से होने वाली मौतों पर कोई समेकित आंकड़ा नहीं है, भले ही समाचार पत्र कभी-कभी उन्हें रिपोर्ट करते हों।

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साठ वर्षीय कारीगर मोहम्मद जफर इत्र की दुकान के अंदर भट्टी की आग को नियंत्रित करने के लिए पानी डालते हुए (फोटो: तेज प्रकाश भारद्वाज)

जफर जिस इत्र की दुकान में काम करते हैं, वहां लगभग 15 कर्मचारी काम करते हैं। उनके काम की वजह से उन्हें कई तरह के खतरों का सामना करना पड़ता है, जैसे कि उच्च तापमान और भट्टियों से निकलने वाली विकिरण वाली गर्मी। ये कर्मचारी घरों में चलने वाले उद्योगों या छोटे कारखानों में काम करते हैं जहां हवा की आवाजाही भी ठीक नहीं है। इन उद्योगों को सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है।

उत्तर प्रदेश में, जहां कन्नौज है, एमएसएमई क्षेत्र में लगभग 1.1 करोड़ कर्मचारी काम करते हैं, जबकि पूरे भारत में, इस क्षेत्र में 12.3 करोड़ से अधिक लोग काम करते हैं। यह पूरे कार्यबल का 20 फीसदी है। 

हालांकि सभी एमएसएमई अत्यधिक गर्मी से संबंधित गतिविधियों वाले नहीं होते हैं। फिर भी इस क्षेत्र से जुड़े ज्यादातर कर्मचारी अपने काम की अनौपचारिक प्रकृति के कारण गर्मी के खतरों के संपर्क में आते हैं।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) में अर्बन लैब प्रोग्राम के प्रमुख अविकल सोमवंशी कहते हैं: “मध्यम और लघु उद्योगों, कारखानों में काम करने वाले लोग, जो इंसुलेटेड नहीं हैं, या जहां तापमान को  ठंडा रखने के लिए किसी तरह का एयर कंडीशनिंग या पंखे भी नहीं हैं, वे गर्मी के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं।” 

उन्होंने कहा कि ये इमारतें बिना वेंटिलेशन के मामले में खराब हैं। टिन की छतें गर्मी को रोकने में विफल हैं। खासकर मई और जून जैसे अत्यधिक तापमान के दौरान हालात काफी खराब हो जाते हैं। 2024 में, भारत ने अपनी सबसे लंबी हीटवेव का अनुभव किया। उत्तर प्रदेश में 1 मार्च से 9 जून के बीच 20 हीटवेव दिन देखे गएमीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि 1 मार्च से 18 जून के बीच, लगभग 110 लोग हीट स्ट्रोक से मर गए और 40,000 से अधिक संदिग्ध मामले सामने आए। हालांकि काम से संबंधित बीमारी या गर्मी के कारण होने वाली मौतों से संबंधित डेटा उपलब्ध नहीं है, लेकिन रिपोर्ट बताती हैं कि दिल्ली और उत्तर प्रदेश जैसे उत्तर भारतीय राज्यों में मौतें हुई हैं। 

कार्यस्थल पर गर्मी की स्थिति को लेकर भारतीय श्रम कानून

व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य, पहले फैक्ट्रीज एक्ट, 1948 के अंतर्गत आते थे। इसके तहत कारखानों को साफ हवा की आवाजाही के लिए पर्याप्त वेंटिलेशन सुनिश्चित करना और ऐसा तापमान बनाए रखना आवश्यक था जो श्रमिकों को आरामदायक स्थिति प्रदान करे, साथ ही, स्वास्थ्य को होने वाली क्षति से बचाए। 

भारत ने 2020 में, श्रमिकों की सुरक्षा से संबंधित 13 केंद्रीय कानूनों को ऑक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ और वर्किंग कंडीशन कोड, 2020 में इकट्ठा कर दिया।

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जुलाई की शुरुआत में ओखला, नई दिल्ली में उमस भरी गर्मी में काम करते हुए पसीना बहाता एक कर्मचारी। (फोटो: तेज प्रकाश भारद्वाज)

नए कोड में तापमान प्रबंधन का उल्लेख केवल डॉक श्रमिकों (ढुलाई से संबंधित काम करने वाले) के संदर्भ में किया गया है। 

इसके अलावा, जैसा कि थिंक टैंक पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ने उल्लेख किया है, “2020 का विधेयक राज्य सरकार को अधिक आर्थिक गतिविधि और रोजगार पैदा करने के लिए किसी भी नए कारखाने को कोड के प्रावधानों से छूट देने का अधिकार देता है।” इस छूट को अधिनियम में बरकरार रखा गया है।

राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) जैसे अन्य सरकारी संस्थान भी उद्योगों पर बढ़ती गर्मी के प्रभाव को अनदेखा करते हैं। केवल व्यक्तियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। केवल हीटवेव के लिए सलाह जारी किया जाता है। श्रमिक सुरक्षा की देखरेख के लिए जिम्मेदार श्रम और रोजगार मंत्रालय अपने कार्यों में प्रतिबंधित है।

कन्नौज श्रम विभाग के श्रम प्रवर्तन अधिकारी नवनीत श्रीवास्तव कहते हैं, “जिला प्राधिकरण ने दिन के समय काम रोकने के निर्देश जारी किए हैं। हम काम के घंटों में गिरावट देख रहे हैं, खासकर चरम गर्मी के समय (दोपहर 12 बजे से दोपहर 3 बजे तक)।” 

उन्होंने आगे कहा, “हम छोटे कारखानों को काम बंद करने या कार्यस्थल का सीधे निरीक्षण करने के लिए नहीं कह सकते, जब तक कि श्रमिकों द्वारा आयोग से कोई शिकायत न की जाए।”

हीट एक्शन से संबंधित कार्य योजनाएं और सलाह की प्रकृति ‘सामान्य’ है

2019 में, एनडीएमए ने लोगों को अत्यधिक गर्मी से बचाने के लिए हीटवेव पर अपने राष्ट्रीय दिशानिर्देश प्रकाशित किए। 

इन दिशानिर्देशों का उद्देश्य अधिकारियों को भारत के शहरों और कस्बों में अपनी हीटवेव कार्ययोजनाएं विकसित करने में मदद करना है। हीटवेव के दौरान, श्रम विभाग, राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एसडीएमए), भारत मौसम विज्ञान विभाग और अन्य राज्य प्राधिकरण आम जनता और श्रमिकों के लिए सलाह और हीट एक्शन प्लान (एचएपी) जारी करते हैं।

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) के हीट और अनौपचारिक श्रमिकों पर नीति शोधकर्ता अरविंद उन्नी ने इस बात पर प्रकाश डाला कि ये एचएपी और एडवाइजरीज प्रकृति में “सामान्य” हैं। 

वह कहते हैं, “हमारे एचएपी और भीषण गर्मी संबंधी चेतावनियां कभी भी श्रमिकों, जनसंख्या समूहों या हाशिए पर पड़े समूहों के विवरण यानी डिटेल्स में नहीं जाती हैं।” 

उन्नी का सुझाव है कि जिला प्रशासन या नगर निगम के अधिकारी विभिन्न जनसांख्यिकी, जैसे कि इत्र निर्माता, ईंट भट्ठा श्रमिक और कपड़ा श्रमिक, जो अलग-अलग कार्यस्थलों में गर्मी का अनुभव करते हैं, के लिए विशिष्ट सलाह प्रदान करके एचएपी को बढ़ा सकते हैं। इस तरह का दृष्टिकोण इसे थोड़ा बेहतर कर सकता है। 

ह्यूमिडिटी बेहद घातक है 

एचएपी और दिशानिर्देशों में ह्यूमिडिटी पर बात नहीं की जाती है। जबकि अध्ययनों से पता चलता है कि मनुष्य 54 डिग्री सेल्सियस तक की सूखी गर्मी को सहन कर सकता है, लेकिन ह्यूमिडिटी वाली गर्मी का प्रकोप बर्दाश्त करने की सीमा 35 डिग्री सेल्सियस तक ही है। 

चूंकि एमएसएमई वाले स्थानों में वेंटिलेशन खराब होता है और ये अक्सर तंग जगहों पर होती हैं, इसलिए श्रमिकों के लिए ह्यूमिडिटी को सहन करना अधिक कठिन हो जाता है, खासकर मानसून के मौसम में।

जुलाई की शुरुआत में, डायलॉग अर्थ ने दिल्ली में कुछ छोटी बेकरीज का दौरा किया। 

रोटी पकाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तरल पेट्रोलियम गैस से चलने वाली भट्टी के साथ काम करने वाले मोहम्मद रिजवान कहते हैं, “गर्मियों के दौरान यहां बहुत बुरी स्थिति होती है, खासकर जब मानसून आता है। बहुत गर्मी लगती है और चक्कर आने लगते हैं। इससे अक्सर उल्टी होती है।”

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ओखला, नई दिल्ली में भट्टी पर बैठे मोहम्मद रिजवान (फोटो: तेज प्रकाश भारद्वाज) 

24 वर्षीय रिजवान आठ घंटे से अधिक समय तक भट्टी के पास रोटी पकाते हैं। वह कहते हैं, “हम यहां [ऊपर] पंखे नहीं चला सकते, क्योंकि वे केवल गर्म हवा देते हैं।” 

भट्टी के पास एक छोटा टेबल फैन है, वह भी गर्म हवा देता है। 

जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ यानी पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट और भारतीय जन स्वास्थ्य संस्थान, गांधीनगर के पूर्व निदेशक दिलीप मावलंका ने डायलॉग अर्थ को बताया, “भारत में हीट इंडेक्स अच्छी तरह से स्थापित नहीं हैं।”

वह बताते हैं, “अन्य देशों [जैसे कि अमेरिका] में तापमान और आर्द्रता को मिलाकर मापन करने के उपाय हैं। भारत में आर्द्र गर्मी या वेट-बल्ब टेंपरेचर के लिए अलग से एडवाइजरीज नहीं है।” 

उन्नी कहते हैं, “सीमांतता यानी मार्जिनैलिटी की हर परत… एक नई समस्या लेकर आती है।” 

वह यह भी कहते हैं कि जब तक विवरणों यानी डिटेल्स पर ध्यान नहीं दिया जाता, तब तक एचएपी और गर्मी से संबंधित सलाह, भारत में बढ़ती गर्मी के सबसे अधिक जोखिम वाले लोगों के लिए कुछ भी नहीं बदलेगी।