इस साल जुलाई के आखिर में एक उमस भरे दिन, चंदन सिंह अपनी भैंसों का दूध निकालने गए, तो उन्होंने पाया कि उनमें से पांच भैंसें झागदार लार उगल रही थीं।
गांव के पशु चिकित्सक ने उन्हें इसके पीछे हेमरैजिक सेप्टिसीमिया (एचएस) बीमारी बताई। यह एक जीवाणु रोग है। इसे गलघोटू रोग भी कहा जाता है। इसके उपचार पर लगभग 15,000 रुपये का खर्च आया। यह रकम मोटे तौर पर डेयरी किसान की छह सप्ताह की आय के बराबर है।
इतना सब करने के बावजूद, उनकी दो भैंसें कुछ ही दिनों में मर गईं। चंदन सिंह कहते हैं, “उनके गले में सूजन आ गई थी और आंखें लाल हो गईं थी। वे सांस नहीं ले पा रही थीं।”
पुनावली कलां गांव में रहने वाले चंदन सिंह इस तरह के नुकसान को झेलने वाले अकेले नहीं हैं।
इस मानसून में उनके गांव के पांच किलोमीटर के दायरे में लगभग 75 मवेशी मर चुके हैं। एचएस, नम और आर्द्र परिस्थितियों में पनपता है। यह किसानों के लिए एक लगातार बढ़ने वाली चुनौती बन जाता है, खासकर ऐसी परिस्थितियों में, जब जलवायु परिवर्तन की वजह से क्षेत्र में तापमान और तीव्र वर्षा की घटनाएं बढ़ जाती हैं।
इस साल पुनावली कलां के डेयरी किसानों ने भी अत्यधिक गर्मी वाले मौसम के कारण दूध उत्पादन में गिरावट देखी है।
एक अन्य स्थानीय किसान राजकुमार राजपूत का कहना है कि सर्दी के मौसम में गर्मी आने के कारण उनके यहां का दैनिक उत्पादन 45 लीटर से घटकर 30 लीटर रह गया है।
राजपूत 40 घरों की दैनिक दूध की मांग को पूरा करते हैं। वह कहते हैं कि उन्हें “इस कमी को पूरा करने के लिए दूध खरीदना पड़ता है”।
भारत के केंद्रीय भैंस अनुसंधान संस्थान ने 2017 में, जलवायु परिवर्तन और भैंस पालन पर एक अध्ययन किया था। इसमें कहा गया कि अचानक अत्यधिक तापमान परिवर्तन की वजह से पहली बार दूध निकालने के दौरान दूध उत्पादन में 10 से 30 फीसदी की गिरावट और दूसरी व तीसरी बार दूध निकालने के दौरान 5 से 20 फीसदी की गिरावट आ सकती है। ये प्रभाव 2 से 5 दिनों तक जारी रहते हैं।
यह चुनौती और भी बढ़ने वाली है। भारतीय चरागाह और चारा अनुसंधान संस्थान द्वारा 2022 में किए गए एक अध्ययन का अनुमान है कि जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है, उत्तरी मैदानों में वार्षिक दूध उत्पादन में गिरावट बढ़ती जा रही है। यह भारत के दूध उत्पादन का 30 फीसदी है। साल 2039 तक दूध उत्पादन में यह गिरावट 361,000 टन तक पहुंच सकती है। इस तरह की गिरावट का मतलब यह हुआ कि तकरीबन 11.93 अरब रुपये का नुकसान हो सकता है।
लैंसेट ने अपने 2022 के एक अध्ययन के आधार पर चेतावनी दी है कि, यदि वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन उच्च बना रहता है, तो बढ़ता तापमान 2085 तक शुष्क क्षेत्रों में दूध उत्पादन में 25 फीसदी की कमी कर सकता है।
जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष खतरे
जलवायु को लेकर काम करने वाले एक एनजीओ क्लाइमेट एक्शन फंड के पशुधन प्रबंधन सलाहकार अभिनव गौरव कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन मवेशियों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रहा है। पशु खुद बढ़ती गर्मी और नमी से जूझ रहे हैं। और जलवायु प्रभाव उनके चारे के उत्पादन में भी बाधा डालते हैं, उनके चरागाहों को बदलते हैं, और बीमारियों के प्रति उनके जोखिम को बढ़ाते हैं।
बेंगलुरु के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल न्यूट्रिशन एंड फिजियोलॉजी द्वारा 2016 में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि दूध उत्पादन में होने वाला सबसे ज़्यादा नुकसान जलवायु परिवर्तन के अप्रत्यक्ष प्रभावों के कारण हुआ है। मुख्य रूप से, इसका मतलब है कि चारे और पानी के स्रोतों का सिकुड़ना – या उपलब्ध न होना।
जलवायु परिवर्तन वर्षा के पैटर्न को बदलकर, तापमान बढ़ाकर और वनस्पति को बदलकर चारे की गुणवत्ता और उपलब्धता को प्रभावित करता है। इससे पानी की कमी और बढ़ जाती है, जो भैंसों के लिए विशेष रूप से हानिकारक है क्योंकि उनकी मोटी काली त्वचा उन्हें गर्मी के तनाव के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील बनाती है। गौरव कहते हैं, “पारंपरिक दलदले तालाबों का खत्म होना इस नाजुकता को और बढ़ा देता है।”
उत्तर भारत के एक अन्य डेयरी किसान यूनुस, भारी वर्षा के चलते फसल खराब होने पर चारे की कीमतों में उछाल का जिक्र करते हैं। वह कहते हैं, “मुझे 1,700 रुपये प्रति क्विंटल की दर से चारा खरीदना पड़ा, जबकि आम तौर पर यह 700-800 रुपये होता है।” इस गर्मी में, यूनुस की 30 भैंसों से दूध का उत्पादन 200 लीटर से घटकर 150 लीटर रह गया।
डेयरी क्षेत्र में, दूध की कीमतें फैट और सॉलिड-नॉट-फैट सामग्री पर निर्भर करती हैं। गर्मी और आर्द्रता बढ़ने वाले मौसम (अप्रैल से सितंबर) में यह सामग्री कम हो जाती है। जलवायु परिवर्तन, गर्मी का दबाव और अनियमित वर्षा की संभावना इसे और बढ़ा देता है, जिसका अर्थ है दूध उत्पादकों के लिए कम कमाई।
भैंस का दूध | अक्टूबर-मार्च | अप्रैल-सितंबर(लीन पीरियड) |
एसएनएफ (सॉलिड-नॉट-फैट मात्रा) | 9.2% | 8.8% |
फैट की मात्रा | 6.6% | 6.0% |
गाय का दूध | ||
एसएनएफ की मात्रा | 8.6% | 8.0% |
फैट की मात्रा | 4.5% | 4.0% |
लक्ष्य हासिल करने में उलझा उद्योग
एक दशक पहले शुरू किए गए भारत सरकार के राष्ट्रीय पशुधन मिशन का उद्देश्य इस क्षेत्र में उत्पादकता और चारा उत्पादन को बढ़ावा देना है। लेकिन यह जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की तरफ से ध्यान देने में विफल दिखाई दे रहा है।
डायलॉग अर्थ ने वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट इंडिया में रेजिलिएंस एंड एनर्जी प्रोग्राम की वरिष्ठ प्रबंधक नम्रता गिनोया से इस बारे में बातचीत की। उन्होंने डेयरी फार्मिंग में जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन का अध्ययन किया है। वह कहती हैं कि किसान यह समझने लगे हैं कि जलवायु में अनियमित तरह के बदलाव और वर्षा, गर्मी और नमी पर पड़ने वाले इसके प्रभाव, उनकी फसल प्रणालियों को किस तरह से प्रभावित करेंगे। दूसरी ओर, वह कहती हैं कि किसानों के पास अभी भी इस बारे में अपर्याप्त जानकारी उपलब्ध है कि बढ़ती गर्मी का दबाव उनके मवेशियों को कैसे प्रभावित कर सकता है।
गिनोया बताती हैं, “उत्तर और पश्चिम भारत में डेयरी क्षेत्र अब अमूल जैसी सहकारी समितियों पर निर्भर है, जो कुछ मवेशियों वाले छोटे किसानों पर निर्भर हैं।”
दुनिया के सबसे बड़े दूध उत्पादक के रूप में भारत की उल्लेखनीय स्थिति, इन डेयरी सहकारी समितियों की संरचना के साथ-साथ 1970 में शुरू हुए दूध उत्पादन को बढ़ाने के राष्ट्रीय कार्यक्रम पर निर्भर करती है।
ऐसी सहकारी समितियों में अधिकांश दूध उत्पादक, सीमित संसाधनों वाले छोटे किसान हैं।
गिनोया कहती हैं, “जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण, कई छोटे किसान अब पशु पालने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं।”
वहीं, सिंह का कहना है, “सरकार अभी जलवायु परिवर्तनों पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रही है। अभी, उसका ध्यान अधिक दूध उत्पादन हासिल करने पर है।”
पशुपालन और डेयरी विभाग ने 2021 में, 2016 की राष्ट्रीय दूध उत्पादन दरों को 2024 तक दोगुना करने के लक्ष्य के साथ डेयरी विकास के लिए एक राष्ट्रीय कार्य योजना को लागू करना शुरू किया।
उत्तर प्रदेश ने 2022 में, अपने दूध उत्पादों और डेयरी विकास के लिए पांच वर्षीय प्रोत्साहन नीति प्रकाशित की। इसके 11 उद्देश्यों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर स्पष्ट रूप से विचार नहीं किया गया है। अब तक, इन परियोजनाओं की प्रगति के बारे में बहुत कम सार्वजनिक आंकड़े उपलब्ध हैं।
डेयरी क्षेत्र उत्सर्जन: एक विरोधाभास?
मांस और डेयरी पशुधन के उत्पादन प्रदर्शन को जलवायु परिवर्तन, नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। लेकिन यह एक तरह से दो-तरफा मामला है। डेयरी उद्योग ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में काफी योगदान देकर जलवायु परिवर्तन को तीव्र करती है।
20 साल की अवधि के दौरान एक तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि मीथेन उत्सर्जन (जो कि मवेशियों के पाचन प्रक्रियाओं से बनता है) में कार्बन डाइऑक्साइड की वैश्विक तापन क्षमता से 86 गुना अधिक क्षमता है। मीथेन लगभग 10 वर्षों के बाद वायुमंडल में विघटित हो जाती है। वहीं, कार्बन डाइऑक्साइड 300-1,000 वर्षों तक बनी रहती है।
डायलॉग अर्थ ने केरल वेटरनरी एंड एनिमल साइंसेस यूनिवर्सिटी में एक वेटरनरी फिजियोलॉजी प्रोफेसर वी. बीना से इस संबंध में बातचीत की।
प्रोफेसर बीना ने कहा: “भारत में, मवेशी पालन से कार्बन उत्सर्जन, पश्चिमी देशों की तरह महत्वपूर्ण नहीं हो सकता है। पश्चिमी देशों में बड़ी संख्या में जानवरों को मांस के लिए पाला जाता है, जिससे उच्च मीथेन उत्सर्जन होता है। यहां, पशुधन और वृक्षारोपण के साथ मिश्रित खेती, कार्बन पृथक्करण में मदद करती है, जिससे कई खेत कार्बन-तटस्थ हो जाते हैं।”
बीना कहती हैं, “खेतों के लिए कार्बन आकलन की आवश्यकता है, और लाइसेंसिंग प्रणाली यह सुनिश्चित कर सकती है कि प्रत्येक खेत कार्बन-तटस्थता बनाए रखे।”
संभावित समाधान
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 2011 में नेशनल इनोवेशंस इन क्लाइमेट-रिजीलियंट एग्रीकल्चर (एनआईसीआरए) परियोजना शुरू की। कृषि क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के प्रयास के तहत, यह परियोजना अनुसंधान, प्रौद्योगिकी प्रदर्शन और जागरूकता बढ़ाने पर केंद्रित है।
गौरव कहते हैं, “एनआईसीआरए ने बेहतर उत्पादकता और मौसम की स्थिति के प्रति लचीलेपन के लिए देशी मवेशियों की नस्लों में आनुवंशिक लक्षणों की पहचान जैसे मूल्यवान निष्कर्ष निकाले हैं। इसने 151 जलवायु-संवेदनशील जिलों में आशाजनक परिणामों के साथ अध्ययन किया है, लेकिन आगे जानकारी के प्रसार और नीति एकीकरण की कमी है।”
इस बीच, चंदन सिंह जैसे किसानों के लिए अपने नुकसान की भरपाई करने के बहुत कम तरीके हैं। सरकार की पशुधन बीमा योजना केवल मृत्यु के कारण होने वाले नुकसान को कवर करती है।
डायलॉग अर्थ ने सूचना के अधिकार के तहत आवेदन करके कुछ जानकारियां जुटाई हैं। इसके तहत, उत्तर प्रदेश डेयरी विकास बोर्ड ने बताया कि अप्रैल 2008 से मार्च 2024 के बीच इस बीमा योजना के तहत कुल 840,063 डेयरी पशुओं का बीमा किया गया। अप्रैल से अगस्त 2024 के बीच 53,962 और पशु इसके तहत जोड़े गए।
वित्तीय वर्ष 2017-18 के दौरान बीमा की उच्चतम दरें तब दर्ज की गईं, जब 204,296 पशुओं को बीमा कवर किया गया। 2009-10 के दौरान केवल 7,808 पशुओं को बीमा कवर किया गया। सरकार की 2019 की पशुधन जनगणना के अनुसार, 2018-19 के दौरान उत्तर प्रदेश में क्रमशः 1.9 और 3.3 करोड़ मवेशी और भैंस थी। इस तरह से, पिछले 15 वर्षों के दौरान उत्तर प्रदेश में बीमाकृत डेयरी पशुओं का प्रतिशत कभी भी 0.4 फीसदी से अधिक नहीं रहा है।
बिहार में देहात और केरल सहकारी दुग्ध विपणन संघ (जिसे केरल में मिल्मा और गुजरात में कच्छ दुग्ध संघ के नाम से जाना जाता है) जैसी कुछ निजी फर्में, गर्मी आधारित पशु बीमा चला रही हैं।
देहात के डेयरी इनपुट प्रमुख दिग्विजय सिंह कहते हैं कि कंपनी ने इस मार्च में अपनी योजना शुरू करते समय 4,500 किसानों को पंजीकृत किया, जो अप्रैल से जुलाई तक के लिए कवर किए गए। देहात ने अंततः उस अवधि के लिए लगभग 55 दावों का भुगतान किया। कंपनी का लक्ष्य 2025 में इस योजना का विस्तार करके लंबी अवधि को कवर करना है।