जब मैं 28 सितंबर को काठमांडू पहुंचा, तो नेपाल में पिछले दो दशकों की सबसे ज्यादा बारिश हो रही थी। भूस्खलन की वजह से सड़कें शहर से कट गई थीं। पुल डूब गए थे। वाहन मलबे में दब गए थे। अगले कुछ दिनों में, खबर आई कि 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
कई मायनों में नेपाल, हिमालय क्षेत्र में आने वाले जलवायु संकटों को लेकर एक महत्वपूर्ण स्थान बन चुका है। इस देश का बहुत बड़ा हिस्सा पहाड़ी है। यह पहाड़ी लैंडस्केप मौसम के बदलते पैटर्न से जुड़े खराब प्रभावों को बढ़ाता है। ग्लेशियल झीलों को लेकर डर बढ़ रहा है। हमेशा इस बात का डर बना रहता है कि ये अपने किनारों को न तोड़ दे। और इस बात को लेकर भी चिंता है कि पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने और पहाड़ों की ढलानों के अस्थिर होने से क्या हो सकता है।
जलवायु संकट के बारे में खुद को आगाह कर रहा है नेपाल
डायलॉग अर्थ में थर्ड पोल प्रोजेक्ट के लिए लंबे समय से नेपाल के संपादक रहे रमेश भुसाल का कहना है कि जलवायु संकट के सामने नेपाली नागरिकों को निष्क्रिय पीड़ितों के रूप में चित्रित करना एक गलती होगी। हाल ही में, नेपाली भाषा की उनकी एक किताब, छालबाटो; कैलाश देखि गंगा सम्मा प्रकाशित हुई है।
इस पुस्तक में 2019 में करनाली नदी के किनारे की उनकी यात्रा का वर्णन है। यह तिब्बती पठार पर स्थित इसके उद्गम से नेपाल और पूरे भारत में फैली है। भुसाल ने यहां की यात्रा सड़क और राफ्ट से की। यह पुस्तक पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय हुई है। इसकी शुरुआती 3,000 प्रतियां एक महीने से भी कम समय में बिक गईं। इसके बारे में भुसाल ने कहा कि यह दर्शाता है कि नेपाली पाठक पर्यावरण के मुद्दों में गहरी रुचि रखते हैं।
फिर भी, उनका कहना है कि यह रुचि हमेशा जरूरी प्रयासों में तब्दील नहीं होती है।
भुसाल ने कहा, “मौजूदा आपदा को ही लें। हमें जानकारी थी और मौसम विभाग ने चेतावनी जारी की थी, लेकिन जनता और नीति निर्माता दोनों ने बिना कुछ किए बस अपने काम करते रहे। यह आपदा जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ विशेषज्ञों की चेतावनियों को न सुनने का भी परिणाम थी।”
इंडिजिनस ज्ञान भी विशेषज्ञ ज्ञान है
“इंडिजिनस नॉलेज” का मतलब यहां, स्थानीय स्तर पर मूल निवासियों या देशज लोगों को किसी विषय के बारे में परंपरागत जानकारी से है। इसे “एक्सपर्ट नॉलेज” के रूप में मानना ठीक है या नहीं है, यह अपने आप में बहस का विषय है।
सेंटर फॉर इंडिजिनस पीपल्स रिसर्च एंड डेवलपमेंट (सीआईपीआरईडी) द्वारा आयोजित इंडिजिनस नेतृत्व वाले शोध एवं शिक्षा पर दूसरे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में, ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के पासंग यांगजी शेरपा ने बताया कि कैसे मुख्यधारा के जलवायु शोध में देशज समुदायों के अनुकूलन अनुभवों को अक्सर अनदेखा किया जाता है।
वन कार्यक्रमों में दशकों का अनुभव रखने वाले एक सहायक प्रोफेसर विलियम संडरलिन ने इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे शोध में अक्सर विकृत प्रेरणाएं होती हैं। उन्होंने नेपाल में वनों की कटाई का हवाला दिया। इसे ऐतिहासिक रूप से विश्व बैंक जैसे संगठनों ने ऐसा प्रस्तुत किया है कि यह समस्या गरीब समुदायों द्वारा वन संसाधनों की लूट के कारण उत्पन्न हुई।
इस पर, संडरलिन ने तर्क दिया कि यह खनन और लकड़ी कंपनियों के बड़े प्रभाव को अनदेखा करता है। उन्होंने कहा कि इन पूर्वाग्रहों का मुकाबला करने के लिए स्थानीय लोगों के सजीव अनुभव पर आधारित दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
इसी तरह, ऑकलैंड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर लिंडा वैमारी निकोरा ने “दोनों आंखों से” देखने की आवश्यकता पर जोर दिया। इसका मतलब यह है कि वैज्ञानिक अनुसंधान को पारंपरिक ज्ञान के साथ मिलाना चाहिए। उन्होंने 2023 के चक्रवात गैब्रिएल का संदर्भ दिया, जिसने न्यूजीलैंड में माओरी बस्तियों को तबाह कर दिया था। प्रोफेसर खुद माओरी समुदाय की हैं।
आपदा आने की स्थिति में क्या करना चाहिए, इसको लेकर तैयारियों में माओरी समुदाय को शामिल नहीं किया गया था। और आपदा आने पर सरकारी तंत्र कारगर ढंग से काम नहीं कर पाया क्योंकि नौसेना के जहाज और हेलीकॉप्टर प्रभावित क्षेत्रों तक पहुंचने में असमर्थ थे।
माओरी समुदाय के लोगों को घरों के पुनर्निर्माण के लिए अपनी उस पारंपरिक व्यवस्था पर मजबूर होना पड़ा जिसमें समुदाय के लोग श्रम के मामले में एक-दूसरे की मदद करते हैं। यह दृष्टिकोण जलवायु-प्रेरित आपदाओं का जवाब देने के लिए एक साथ आने का एक शानदार तरीका था। खासकर ऐसे मौके पर, जब सरकारी तंत्र के प्रयास कम पड़ गए थे।
विलास के बीच जमीनी हकीकत से रूबरू होना
ये सारे विचार-विमर्श, भले ही वे महत्वपूर्ण थे, शानदार हिल्टन होटल में आयोजित किए गए थे, जबकि देश का अधिकांश हिस्सा आपदा की चपेट में था। प्रतिभागियों के लिए बाद में फील्ड ट्रिप की योजना बनाई गई थी, लेकिन काठमांडू की चर्चा में ही जमीनी हकीकत या वास्तविक जीवन के कुछ उदाहरणों से रूबरू कराया गया।
जब हम पाटन से गुजर रहे थे, तब पूर्व जल संसाधन मंत्री दीपक ग्यावली ने मुझे काफी कुछ दिखाया। यह क्षेत्र 2015 के भूकंप से तबाह हो गया था, जिसे धीरे-धीरे फिर से बनाया गया है।
ग्यावली “इंडिजिनस” शब्द के प्रति संदेहपूर्ण रवैया रखते हैं। उनका सुझाव है कि यह उन देशों में अधिक समझ में आता है जहां औद्योगिक संस्कृति के उपनिवेशवादियों ने पारंपरिक समुदायों को विस्थापित किया या जीत लिया।
हालांकि, नेपाल जैसे देशों में, जहां हाशिए पर पड़े समुदाय शायद कुछ शताब्दियों पहले ही आए हों, और प्रभावशाली समूहों का इतिहास लंबा है, वहां के संदर्भ में यह शब्द अधिक जटिल हो जाता है।
शहरी क्षेत्रों में प्रभावशाली समूह और साथ ही साथ ग्रामीण या वन क्षेत्रों में हाशिए पर पड़े समुदाय दोनों ही देशज होने का दावा कर सकते हैं। और यह विभाजन, सत्ता की गतिशीलता और विकास के रूपों से अधिक जुड़ा हुआ है। इसे ग्यावली “कु-विकास” – या अस्थिर विकास कहते हैं।
उन्होंने कहा कि स्थानीय संस्कृतियों से ली गई पारंपरिक प्रथाएं, जैसे कि सामुदायिक भलाई के लिए श्रम को एकजुट करना, इस सब बहस के बावजूद मूल्यवान हैं।
इसका एक बहुत ही स्पष्ट उदाहरण पिंबहाल पोखरी तालाब की सफाई थी।
उन्होंने बताया, “पिछले कुछ वर्षों में स्थानीय युवा शहर के मुख्य इलाके में स्थित इस तालाब को साफ करने के लिए साथ आए हैं, और तब से यह इलाका फल-फूल रहा है। मेरी मां अभी भी इसे नेपाली शब्द से पुकारती हैं जिसका मतलब है ‘गंदा तालाब’।”
इसके बगल में एक स्तूप परिसर है। यह एक पारंपरिक बौद्ध स्मारक है। यह पवित्र स्थलों और ध्यान से संबंधित होता है। इसको भी नये सिरे से दुरुस्त किया गया है।
कहा जाता है कि इस स्तूप परिसर का निर्माण सम्राट अशोक की बेटियों की एक बेटी ने तकरीबन दो हजार साल पहले करवाया था। यह दक्षिण भारत की शंकराचार्य परंपरा से जुड़े मंदिर परिसर से करीब पचास फीट की दूरी पर है। इसका इतिहास एक हजार साल से भी ज्यादा पुराना है।
स्तूप अक्सर आध्यात्मिक पुनर्जन्म का प्रतीक होते हैं। ये इस बात का एक उपयुक्त रूपक है कि कैसे समुदाय द्वारा संचालित प्रयास इस क्षेत्र में नई जान फूंक रहे हैं।
ग्यावली ने बताया, “जैसे ही तालाब को पुनर्जीवित किया गया, क्षेत्र में जल स्तर में सुधार हुआ और सूखे पुराने कुएं फिर से काम करने लगे।”
नेपाल का इलेक्ट्रिक भविष्य?
आधुनिकता और परंपरा का मिश्रण करते हुए पाटन का पुनर्निर्माण हो रहा है। साथ ही, यह बढ़ते जलवायु संकट की पृष्ठभूमि में सतत शहरी विकास के लिए मूल्यवान सबक प्रदान करता है।
इसके अलावा, शहर में इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग में उछाल देखा गया है।
अधिक किफायती बीवाईडी विकल्पों से लेकर लग्जरी दीपल ब्रांड तक यहां मौजूद हैं। चीनी इलेक्ट्रिक कारें बाजार पर हावी हैं। हालांकि भारतीय ईवी विकल्प – टाटा नेक्सन – भी व्यापक रूप से उपलब्ध है।
एक क्षेत्रीय पत्रिका, हिमाल साउथएशियन के संस्थापक संपादक कनक मणि दीक्षित ने बताया: “नेपाल में इलेक्ट्रिक वाहनों का विस्तार एक बड़ा बदलाव है, खासकर इसलिए क्योंकि यहां पैदा होने वाली बिजली, कोयला जलाने वाले संयंत्रों के बजाय अक्षय जलविद्युत पर आधारित है। लेकिन हमें अधिक इलेक्ट्रिक-आधारित सार्वजनिक परिवहन की आवश्यकता है ताकि हमारे पास अधिक स्वच्छ हवा हो और कम पेट्रोलियम आयात हो।”
नेपाल की प्रति व्यक्ति आय 1,500 डॉलर प्रति वर्ष से कम होने के कारण, अपेक्षाकृत कम अनुपात में लोग निजी कार खरीद सकते हैं। साथ ही, काठमांडू में भीड़ बहुत ज्यादा है। इसका मतलब यह हुआ कि निजी इलेक्ट्रिक कारों से ज्यादा यात्रा हो पाना काफी मुश्किल है। यही कारण है कि दीक्षित ने कहा कि नेपाल में शहरी परिवहन के लिए बड़ी इलेक्ट्रिक बसों को प्रोत्साहित करना अधिक समझदारी भरा है, भले ही ये महंगी हों।
दक्षिण एशिया के परिवर्तन के लिए इस महत्वपूर्ण क्षण पर जोर देते हुए दीक्षित कहते हैं कि बड़े पैमाने पर बदलाव के लिए इलेक्ट्रिक-आधारित परिवहन को व्यापक रूप से अपनाना आवश्यक है। उन्होंने जोर देकर कहा कि क्षेत्र के सामने आने वाली चुनौतियों के बावजूद, यह इनोवेशन यानी नवाचार करने का अवसर भी है।
दीक्षित कहते हैं, “विकास के पुराने पैटर्न का समय बीत चुका है। वे अब हमारे लिए काम नहीं करेंगे। अब नए पैटर्न बनाने का समय आ गया है और नेपाल के लिए अभी हमारा भविष्य इलेक्ट्रिक है।”