जलवायु

कश्मीर में नई सरकार क्या पर्यावरण संबंधी मुद्दे सुलझा पाएगी? 

औकीब जावेद लिखते हैं कि जम्मू और कश्मीर में आखिरकार एक निर्वाचित विधानसभा का तो गठन हो चुका है, लेकिन यह देखना अभी बाकी है कि क्या यह सरकार जलवायु चुनौतियों का समाधान कर पाएगी।
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<p>जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी के नेता, उमर अब्दुल्ला, विधानसभा चुनाव जीतने के बाद श्रीनगर शहर में समर्थकों का अभिवादन कर रहे हैं। (फोटो: सोपा इमेज / अलामी)</p>

जम्मू एंड कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी के नेता, उमर अब्दुल्ला, विधानसभा चुनाव जीतने के बाद श्रीनगर शहर में समर्थकों का अभिवादन कर रहे हैं। (फोटो: सोपा इमेज / अलामी)

भारत के केंद्र शासित प्रदेश, जम्मू और कश्मीर में, छह साल से अधिक समय तक नई दिल्ली के प्रत्यक्ष शासन के बाद, आखिरकार 16 अक्टूबर को, एक निर्वाचित सरकार की ताजपोशी हुई। 

विधानसभा चुनाव में उमर अब्दुल्ला की अध्यक्षता वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) जीत हासिल की है। सत्ता संभालने के बाद, उमर अब्दुल्ला को अब कई सवालों के जवाब खोजने होंगे। इनमें एक बेहद अहम सवाल यह भी है कि क्या उनकी सरकार क्षेत्र की बढ़ती पर्यावरण संबंधी चुनौतियों से निपटने के मामले में सक्षम होगी या नहीं। 

पिछली सरकारों ने इस दिशा में कोई भी गंभीर प्रयास नहीं किए हैं। इससे जुड़ी नीतियों में बदलाव के संकेत, विभिन्न राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में भी बहुत कम हैं। ऐसे में, यह सवाल भी अहम हो जाता है कि क्या राजनीतिक दल वाकई में पर्यावरण से संबंधित चुनौतियों का हल खोजने के लिए गंभीर हैं। 

अगस्त 2019 में, भारत सरकार ने जम्मू और कश्मीर में नई दिल्ली के प्रत्यक्ष शासन (खुद की निर्वाचित विधानसभा के बिना) के दौरान कई संवैधानिक बदलाव किए।

इसके तहत, क्षेत्र को न केवल एक राज्य से केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया, बल्कि पूर्व में लद्दाख को एक अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। 

इन सब बदलावों के होने का मतलब स्पष्ट था कि जम्मू और कश्मीर राज्य विधानसभा द्वारा पहले पारित किए गए कानून, राष्ट्रीय कानून द्वारा प्रतिस्थापित किए गए। इनमें भूमि उपयोग और वन से संबंधित कानून भी शामिल हैं। 

ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत के केंद्र शासित प्रदेशों की निर्वाचित विधानसभाओं को दी गई शक्तियां बहुत सीमित हैं। प्रत्येक केंद्र शासित प्रदेश में राष्ट्रीय सरकार के प्रतिनिधि, आमतौर पर एक लेफ्टिनेंट गवर्नर यानी उपराज्यपाल होते हैं और अधिक शक्तियों का प्रयोग यही करते हैं। 

जुलाई में, जम्मू और कश्मीर के विधानसभा चुनावों की घोषणा से ठीक पहले, केंद्र सरकार ने केंद्र शासित प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर की शक्तियों में संशोधन किया। इससे उन्हें अब्दुल्ला की नई स्थानीय विधानसभा पर अधिक शक्ति मिल गई।

पर्यावरणवाद पर हावी है राजनीति 

जब जम्मू और कश्मीर की बात आती है, तो मीडिया कवरेज में यहां की राजनीतिक उथल-पुथल हावी हो जाती है। ऐसे में अक्सर यह बात छूट जाती है कि जलवायु संबंधी मुद्दों ने इस क्षेत्र – विशेष रूप से कश्मीर घाटी – को किस तरह से कमजोर बना दिया है, जिसे पर्यावरण से जुड़े विशेषज्ञ और शिक्षाविद लगातार अपने प्रयासों से कहते रहते हैं। 

बढ़ते तापमान के कारण, क्षेत्र के ग्लेशियर तेजी से पीछे हट रहे हैं। सर्दियां सूखी रह रही हैं। हीटवेव का असर है। सूखे और बारिश के बदलते पैटर्न ने इसकी कृषि को बाधित किया है, जल संसाधनों पर दबाव डाला है और क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र की कमजोरी को बढ़ाया है। 

पर्यावरण संबंधी नुकसान से ये प्रभाव और भी बढ़ गए हैं। दरअसल, जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ तेजी से शहरीकरण होने से आर्द्रभूमि यानी वेटलैंड का क्षरण हो रहा है। 

पिछले कुछ वर्षों में रियल एस्टेट की जरूरतों को पूरा करने के लिए रेत खनन का तेजी से विस्तार हुआ है। अदालती आदेशों के बावजूद, अवैध रूप से ये धंधे चलते रहते हैं। 

इसके प्रभाव अच्छे से डॉक्यूमेंटेड हो सकते है, इसके बावजूद, कश्मीर घाटी के तीन प्रमुख राजनीतिक दलों ने चुनाव के दौरान शायद ही इस पर ध्यान दिया हो। 

नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने इस मुद्दे को हल्के से छुआ, जबकि सबसे छोटी और सबसे युवा जम्मू और कश्मीर अपनी पार्टी (जेकेएपी) ने इस मुद्दे को बिल्कुल भी तवज्जो नहीं दिया। 

नेशनल कांफ्रेंस, जिसकी अब सरकार बन गई है, ने अपने घोषणापत्र में एनवायरनमेंट और सस्टेनेबिलिटी से जुड़ी तीन प्रतिज्ञाओं की बात की थी। इनमें  “हरित पहल” (नवीकरणीय ऊर्जा, जंगल लगाने के काम, प्रदूषण में कमी लाने, लंबे समय तक चल सकने वाली प्रैक्टिसेस), कुशल अपशिष्ट प्रबंधन और आवासीय सौर ऊर्जा (ग्रीन इनीशिएटिव्स सेक्शन में भी उल्लेख किया गया है) शामिल हैं। इनमें से किसी के साथ बहुत अधिक विवरण नहीं दिया गया।

नेशनल कांफ्रेंस, आखिरी बार 2009 और 2015 के बीच सरकार में थी और 2012 में राज्य आपदा प्रबंधन नीति को मंजूरी दी थी। इस पार्टी की सरकार सितंबर 2014 में आई बाढ़ से निपटने के लिए पूरी तरह से असफल साबित हुई। इस बाढ़ को सदी में सबसे खराब आपदा के रूप में जाना जाता है। 

डायलॉग अर्थ ने नेशनल कांफ्रेंस के एक सांसद आगा सैयद रूहुल्लाह मेहदी से यह पूछा कि जब उनकी पार्टी सरकार में थी तब पर्यावरण को लेकर कितनी गंभीरता से कदम उठाए गए। इस पर उनका कहना है कि जम्मू और कश्मीर में राजनीतिक उथल-पुथल और संघर्ष के कारण, क्षेत्र में “सामान्य शासन” “बैक सीट पर आ गया”। उनका मतलब यह है कि ये सब मुद्दे कहीं पीछे छूट गए। 

मेहदी ने कहा कि यह “गलती” “दुर्भाग्यपूर्ण” थी, जिससे पर्यावरण पर इतना बुरा असर पड़ा। उनकी पार्टी यानी नेशनल कांफ्रेंस को एहसास हो गया कि इस मुद्दे को अब और अनदेखा नहीं किया जा सकता।

पीडीपी, जो 2015 से 2018 तक सत्ता में थी, के पास कहीं अधिक विस्तृत घोषणापत्र था। यह मुख्य रूप से वनों की सुरक्षा, जंगलों लगाने के काम, इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने और आर्द्रभूमि यानी वेटलैंड बहाली पर केंद्रित था।

डायलॉग अर्थ ने जब इन प्रतिज्ञाओं के कार्यान्वयन के बारे में पड़ताल की, तो ठोस प्रावधानों के बारे में बहुत कम जानकारी थी। 

वरिष्ठ पीडीपी नेता नईम अख्तर ने हमें बताया: “घोषणा पत्र में इरादे का बयान होता है। नीतियां बाद में आती हैं।” 

नईम अख्तर से जब ये सवाल किया गया कि सत्ता में रहने के दौरान उनकी पार्टी ने आखिर पर्यावरण की दिशा में न के बराबर काम क्यों किए तो उन्होंने कहा: “वह बहुत ही अशांति वाला वक्त था…आप हमसे कुछ भी करने की उम्मीद नहीं कर सकते थे।” 

मेहदी के विचारों को दोहराते हुए, उन्होंने स्वीकार किया कि पर्यावरण को “बहुत अधिक उपेक्षित” किया गया है।

यहां गौर करने वाली बात यह है कि सत्ता में रहने के दौरान, पीडीपी का भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन था और देश में 2014 से ही भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार है। 

जम्मू और कश्मीर से संबंधित नीतियों को तय करने के मामले में भारतीय जनता पार्टी भी उस दौरान एक प्रमुख राजनीतिक दल रहा है क्योंकि 2018 से 2024 तक एक तरह से नई दिल्ली यहां पर सीधे शासन में था। 

इस बीच, हर राजनीतिक दल पर्यटन को बढ़ाने की इच्छा पर जोर देता है। यह तब है जब कई रिसॉर्ट वर्तमान में अधिक पर्यटकों के पर्यावरणीय प्रभाव से निपटने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

नई सरकार की शक्ति पर परस्पर विरोधी विचार

इस बात पर भी परस्पर विरोधी विचार हैं कि जम्मू और कश्मीर के राजनीतिक दलों के पास वास्तव में कितनी शक्ति है। और क्या उनके घोषणापत्र मायने भी रखते हैं।

डायलॉग अर्थ ने क्षेत्र के कानून, न्याय और संसदीय मामलों के विभाग के पूर्व सचिव मोहम्मद अशरफ मीर से बात की। उनका कहना है कि 2019 में संवैधानिक बदलावों से पहले, वन, पशु-पक्षियों की सुरक्षा, बिजली और जनसंख्या नियंत्रण तथा परिवार नियोजन जैसे मामले राज्य विधानसभा के अंतर्गत थे। 

यह अन्य भारतीय राज्यों से अलग था, क्योंकि इन अवशिष्ट शक्तियों का प्रयोग भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत किया जाता था, जिसने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिया था।

संवैधानिक संशोधनों ने राज्य विधानसभा से यह शक्ति हटा दी। हालांकि मीर का कहना है कि इससे पहले भी, “यदि [राज्य के कानून] किसी भी तरह से [भारत की] संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के साथ असंगत होते, तो संविधान के अनुच्छेद 254 के आधार पर संसद का कानून लागू होता।”

जम्मू-कश्मीर के एक प्रमुख पर्यावरण वकील नदीम कादरी, मीर की कुछ बातों से इत्तेफाक नहीं रखते। उनका मानना है कि 2019 से पहले के पर्यावरण कानूनों के लिए राज्य को ज्यादा जवाबदेह नहीं ठहराया जाना चाहिए। उनका कहना है कि राज्य के अधिकांश पर्यावरण कानून, राष्ट्रीय स्तर पर पारित कानूनों का अनुकूलन मात्र थे।

कादरी कहते हैं, “केवल [कानूनों का] नाम बदला गया… सभी कानूनों को केंद्रीय संसद से नियंत्रित किया गया।” उन्होंने आगे कहा कि जम्मू-कश्मीर की नवनिर्वाचित सरकार “केंद्रीय कानूनों में संशोधन नहीं कर सकती। 

इसके बजाय, यह पर्यावरण, जलवायु और वन्यजीवों के साथ-साथ इको-टूरिज्म से संबंधित नीति बना सकती है। “पिछले 15 वर्षों से, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से संबंधित कोई नीति नहीं बनी है। कम से कम अब तो उन्हें ऐसा करना चाहिए।” 

हालांकि, कादरी कहते हैं कि इन नीतियों को लागू करने से पहले भी उपराज्यपाल के अनुमोदन की आवश्यकता होगी। राष्ट्रीय सरकार अभी भी ऐसी नीतियों पर नियंत्रण रखेगी।

कश्मीरी एक्टिविस्ट अदालतों का रुख कर रहे हैं

पड़ोसी लद्दाख में भी इसी तरह की पर्यावरणीय और संवैधानिक चिंताएं बढ़ रही हैं। 

लद्दाख के कुछ एक्टिविस्ट्स ने अक्टूबर में नई दिल्ली तक एक रैली का नेतृत्व किया।  इसमें लद्दाख को राज्य का दर्जा देने और इसे भारतीय संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग की गई। 

यह व्यवस्था वर्तमान में असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों के आदिवासी क्षेत्रों को महत्वपूर्ण स्वायत्तता प्रदान करती है। यह इन कम आबादी वाले और पहाड़ी क्षेत्रों की सांस्कृतिक और सामाजिक विशेषताओं को संरक्षित करने के लिए बनाया गया है।

जब पूछा गया कि क्या जम्मू और कश्मीर में ऐसी मांगें की जा सकती हैं, तो ज्यादातर स्थानीय लोगों और विशेषज्ञों ने, जिनसे डायलॉग अर्थ ने बात की, इस बारे में कुछ भी कहने से मना कर दिया। कश्मीर घाटी के हिंसा के इतिहास को देखते हुए, इस बात की संभावना न के बराबर है कि ऐसी किसी मांग पर केंद्र सरकार विचार भी करेगी। 

लोगों को इस बात पर कम विश्वास है कि पर्यावरण से जुड़े मुद्दे विधायी प्रक्रिया से निपट पाएंगे। ऐसे में, इस दिशा में काम करने वाले एक्टिविस्ट्स अदालतों का रुख कर रहे हैं।

कश्मीर में पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर काम करने वाले एक एक्टिविस्ट राजा मुजफ्फर भट कहते हैं, “मैंने पिछले चार वर्षों के दौरान, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल [भारत की सबसे बड़ी पर्यावरण अदालत] के समक्ष रिवर बेड से अवैध खनन, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, आर्द्रभूमियों की बहाली आदि से संबंधित लगभग छह याचिकाएं दायर की हैं।”

भट का मानना है कि कश्मीर में पर्यावरण से जुड़ी चुनौतियों से सकारात्मक रूप से निपटने का यह एकमात्र रास्ता है। 

श्रीनगर के एक स्वतंत्र पत्रकार, सैयद शहरयार ने इस रिपोर्ट के लिए अपना योगदान दिया है।