पिछले महीने ग्लासगो में कॉप26 में, 100 से अधिक देशों ने 2020 के स्तर की तुलना में, दशक के अंत तक वैश्विक मीथेन उत्सर्जन को 30 फीसदी तक कम करने का संकल्प लिया। अगर यह प्रतिज्ञा पूरी तरह से लागू की जाती है, तो वैज्ञानिकों का कहना है कि 2050 तक 0.2 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग को रोका जा सकता है। भारत, वर्तमान में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मीथेन उत्सर्जक देश है। भारत ने चीन और रूस के साथ इस प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर नहीं किए। चीन और रूस पहले और दूसरे सबसे बड़े उत्सर्जक देश हैं।
एक ऐसे समय में, जब ग्रीनहाउस गैसों के वैश्विक उत्सर्जन को कम करने की तात्कालिकता बढ़ती जा रही है, भारतीय वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि देश में मीथेन उत्सर्जन में भारी कटौती से इसकी कृषि प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन होगा। यह सब कुछ ऐसा है जिसके लिए भारत आर्थिक और तकनीकी रूप से तैयार नहीं हो सकता है।
मीथेन का उदय
पिछले 200 वर्षों में, मानवीय गतिविधियों ने वातावरण में मीथेन की मात्रा को दोगुना कर दिया है। मीथेन, कार्बन डाईऑक्साइड के बाद ग्लोबल वार्मिंग का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत है। यह भी अनुमान है कि मीथेन, ग्रीनहाउस गैसों के कारण होने वाले सभी वार्मिंग के लिए 23 फीसदी जिम्मेदार है। कार्बन डाईऑक्साइड के विपरीत, जो सदियों तक वातावरण में जीवित रह सकता है, मीथेन केवल 12 वर्षों तक ही अस्तित्व में रहता है, लेकिन इसकी गर्मी बढ़ाने की क्षमता कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में 20 साल की अवधि में लगभग 80 गुना अधिक है। जब यह अन्य वायुमंडलीय गैसों, जैसे ऑक्सीजन के साथ मिलती है तो कार्बन डाईऑक्साइड में और भी टूट सकती है।
मीथेन तब उत्पन्न होता है, जब कार्बनिक पदार्थ कम या बिना ऑक्सीजन वाले वातावरण में विघटित हो जाते हैं, उदाहरण के लिए पानी के नीचे, या किसी जानवर की आंत में जब भोजन पचता है, जो एक प्रक्रिया है, जिसे आंतों के किण्वन के रूप में जाना जाता है। खड़े पानी में उगने वाले पौधे, जैसे चावल, बहुत अधिक मीथेन उत्पन्न करते हैं, लेकिन कृषि क्षेत्र में इसके लिए सबसे बड़ा योगदान पशुपालन का है।
भारत में, मीथेन का सबसे बड़ा स्रोत कृषि क्षेत्र है लेकिन इस स्रोत को कम करना सबसे कठिन है।अभिषेक जैन, काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनवेंट एंड वाटर
तेल, कोयला और गैस के निष्कर्षण और प्रसंस्करण की प्रक्रिया के दौरान, जीवाश्म ईंधन के दोहन के माध्यम से भी मीथेन निकलती है। ऊर्जा क्षेत्र, लगभग दो दशक पहले तक, मुख्य मीथेन उत्सर्जक हुआ करता था। यह अब भी एक प्रमुख उत्सर्जक है। अंतर्राष्ट्रीय शोध पहल, ग्लोबल मीथेन बजट के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, कृषि अब मीथेन का सबसे बड़ा मानव निर्मित स्रोत है। इसका अनुमान है कि कुल मीथेन उत्सर्जन में कृषि का योगदान 27.3 फीसदी है। आर्द्रभूमि प्राकृतिक रूप से उत्पादित मीथेन का सबसे बड़ा स्रोत है।
जापान एजेंसी फॉर मरीन-अर्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिक और ग्लोबल मीथेन बजट में योगदानकर्ता प्रबीर के. पात्रा का कहना है कि वैश्विक स्तर पर मीथेन उत्सर्जन को कैसे कम किया जाए, इस पर चर्चा में कृषि, महत्वपूर्ण बिंदु है। वह कहते हैं, “यदि कृषि क्षेत्र को ठीक से ध्यान में नहीं रखा गया, तो कॉप26 की प्रतिज्ञा, वैश्विक मीथेन उत्सर्जन को 30 फीसदी तक कम करना, अगर असंभव नहीं है, तो बहुत मुश्किल जरूर है।”
भारत के मीथेन हॉटस्पॉट
दिल्ली के थिंकटैंक, काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनवेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) में ऊर्जा और आजीविका पर शोध कर रहे अभिषेक जैन का कहना है, “भारत में, मीथेन का सबसे बड़ा स्रोत कृषि है लेकिन इस स्रोत को कम करना सबसे कठिन है।” अध्ययनों से पता चलता है कि भारत के कृषि मीथेन उत्सर्जन का 63 फीसदी पशुधन से आता है, जबकि चावल की खेती का योगदान लगभग 11 फीसदी है।
63%
भारत के कृषि मीथेन उत्सर्जन का 63 फीसदी पशुधन से आता है
थिंकटैंक सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी के एक वरिष्ठ शोधकर्ता इंदु मूर्ति का कहना है, “भारत, कृषि पर अपने रुख के बारे में स्पष्ट है। साथ ही, कृषि क्षेत्र से होने वाले उत्सर्जन को लेकर चर्चाओं के संबंध में भी उसकी स्पष्टता है। भारत में, कृषि क्षेत्र में बहुत बड़ी संख्या में लोग कार्यरत हैं, लेकिन कृषि श्रमिकों की एक बहुत बड़ी संख्या गरीबी से दबी हुई है। ऐसी स्थिति में, भारत, अपने जलवायु प्रभावों को कम करने के उद्देश्य से आक्रामक सुधारों का पालन करके इस क्षेत्र पर अतिरिक्त बोझ नहीं डाल सकता है।”
सीईईडब्ल्यू के जैन का कहना है कि मीथेन कटौती अभियान में शामिल होने में भारत की हिचकिचाहट के पीछे कारण हैं। दरअसल, वैश्विक स्तर पर पशुधन से होने वाले उत्सर्जन को कम करने के लिए परिपक्व समाधानों की कमी है। इससे एक ऐसे लक्ष्य के लिए प्रतिबद्ध होना मुश्किल हो जाता है।
वाशिंगटन में इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के सीनियर फेलो, सुरेश बाबू ने जैन की चिंताओं को प्रतिध्वनित किया। वह कहते हैं, “हालांकि भारत ने अक्षय ऊर्जा पर ध्यान केंद्रित करके जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए कुछ मजबूत दृढ़ संकल्प किए हैं। लेकिन मीथेन उत्सर्जन को कम करने के संदर्भ में बात करें तो कृषि क्षेत्र के लिए नीतियों और अनुसंधान को लेकर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है।”
मीथेन को कम करने के लिए बेहतर फसल प्रबंधन
दुनिया में सबसे ज्यादा क्षेत्र में चावल की खेती भारत में होती है। यह चीन से भी अधिक है जो दुनिया का सबसे बड़ा चावल उत्पादक देश है। इसका मतलब है कि देश में बहुत अधिक चावल का उत्पादन होता है, लेकिन अभी काफी सुधार की जरूरत है। भारत की अधिकांश कृषि अभी भी वर्षा पर निर्भर है, और 90 फीसदी भूमि छोटे किसानों की है, जिसमें चावल की उत्पादकता विश्व औसत से 45.88 फीसदी कम है।
बेहतर फसल-प्रबंधन तकनीकों के साथ, जापान जैसे देशों ने दिखाया है कि मीथेन उत्सर्जन में तेजी से कमी संभव है। सिस्टम ऑफ राइस इंटेंसिफिकेशन (एसआरआई) और मॉडिफाइड पैटर्न ऑफ सिस्टम ऑफ राइस इंटेंसिफिकेशन (एमएसआरआई) के तरीकों को अपनाकर, 1990 से जापान ने मिट्टी, पानी और उर्वरकों के सटीक प्रबंधन के माध्यम से पैदावार बढ़ाने और चावल उत्पादन से मीथेन उत्सर्जन को कम करने में कामयाबी हासिल की है। पात्रा कहते हैं, “चूंकि मिट्टी को नम और वातित [एसआरआई और एमएसआरआई के तहत] रखा जाता है, इससे मीथेन उत्सर्जन में काफी कमी आती है, जिससे किसानों की सिंचाई लागत भी बचती है। बीज और उर्वरकों के उपयोग में कमी से भी महत्वपूर्ण बचत होती है। ये सभी लाभ, फसल की उपज से समझौता किए बिना मिलते हैं।”
पात्रा के अनुसार, भारत में इन्ही तरीकों को अपनाने की क्षमता है। पात्रा कहते हैं, भारत की चावल की खेती से मीथेन उत्सर्जन की समस्या “सिर्फ एक प्रबंधन का मुद्दा” है। बेहतर तकनीकों को अपनाकर हम अर्थव्यवस्था को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे, बल्कि हम किसानों के लिए समग्र प्रणाली में सुधार करेंगे। लेकिन बात जब पशुपालन से होने वाले उत्सर्जन में कमी लाने की आती है तो उनको भी लगता है कि इस दिशा में काम करना काफी कठिन है।
पशुपालन की समस्या
मांस, डेयरी और पोल्ट्री का वैश्विक उत्पादन पिछले 50 वर्षों में चौगुना हो गया है। अध्ययनों का अनुमान है कि जैसे-जैसे देश विकसित होते हैं और परिवारों की आय बढ़ती है, मांस और डेयरी उत्पाद, लोगों के आहार के बढ़ते हैं। जैन कहते हैं कि नवाचार से पशुओं के लिए ऐसे चारे की व्यवस्था करना, जो जानवरों [उनके आहार को बदलकर] से मीथेन उत्सर्जन को कम कर सके, मुख्य रूप से सीमित व्यावसायीकरण के साथ प्रयोगात्मक और पायलट चरणों में है।
2012 के बाद से भारत की पशुधन आबादी में 4.6 फीसदी की वृद्धि हुई है, और पिछली जनगणना में, इसके मवेशियों की संख्या में 18 फीसदी की वृद्धि हुई है, यह आंकड़ा आने वाले वर्षों में बढ़ने की उम्मीद है। हालांकि भविष्य में, मीथेन उत्सर्जन के रुझान का सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है। पात्रा का मानना है कि पशुधन क्षेत्र के विकास के साथ मीथेन उत्सर्जन बढ़ता रहेगा। सुरेश बाबू का कहना है कि वर्तमान नीति व्यवस्था के साथ, भारत की गोजातीय आबादी को नियंत्रित करना मुश्किल हो सकता है। भारत की पवित्र गाय नीति, गायों को मारने की अनुमति नहीं देती है। बाबू कहते हैं, “सरकार को इस मुद्दे को न केवल वैचारिक दृष्टिकोण से बल्कि आर्थिक और पारिस्थितिक दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए।”
जैन का मानना है कि भारत, अपने पशुधन की उत्पादकता में वृद्धि करके पशुपालन से मीथेन उत्सर्जन को आंशिक रूप से कम कर सकता है, जिससे बदले में पाले जाने वाले जानवरों की संख्या में कमी आएगी। जैन कहते हैं कि भारत की दूध की पैदावार, अमेरिका जैसे सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले देशों की तुलना में लगभग पांच गुना कम है, लेकिन भारत को उन तरीकों को अपनाए बिना इसका समाधान करना चाहिए जो पश्चिमी देशों में समस्याग्रस्त साबित हुए हैं, जैसे कि एंटीबायोटिक दवाओं और हार्मोन का अति प्रयोग। वह कहते हैं, “इस तरह के हस्तक्षेपों के बिना भी, चयनात्मक प्रजनन और संतुलित फ़ीड के माध्यम से दूध की पैदावार में सुधार की पर्याप्त गुंजाइश है।”
जब आर्द्रभूमि और मीठे पानी की व्यवस्था की बात आती है तो अनिश्चितता और भी बड़ी हो जाती है। पात्रा कहते हैं, “वैश्विक तापमान में वृद्धि के साथ, मिट्टी और पानी गर्म हो जाता है और आर्द्रभूमि अधिक मीथेन उत्सर्जित करती है। हम जानते हैं कि भविष्य में मीथेन उत्सर्जन में क्या वृद्धि हो सकती है, लेकिन हमें यकीन नहीं है कि उन्हें कम करने के लिए क्या-क्या कदम उठाने की आवश्यकता हो सकती है।”